निश्चित ही सुक्ष्म हिंसा तो वनस्पतिजन्य आहार में भी है। लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि- 'जब सभी तरह के आहार में हिंसा है तो जानबुझ कर, सबसे क्रूरत्तम हिंसा ही क्यों न की जाय।' यहां हमारा विवेक कहता है कि हिंसा से जितना बचा जा सके, निश्चित ही बचना चाहिए। हमें यह नहीं भुलना चाहिए, कि एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है। और वह अंतर सम्बंधित पदार्थ की गुणवत्ता पर आधारित होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव/जीवन और एक केले के जीव/जीवन के जीवन-मूल्यों में भी भारी अंतर होता है।
आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक धारणा है कि सृष्टि में जीवन विकास सुक्षम एकेन्द्रिय जीव से प्रारंभ होकर पंचेंद्रिय तक क्रमशः विकास हुआ है। ऐसे में हमारा जीवन जब कम से कम विकसित जीवो (एकेन्द्रिय जीव) की हिंसा से चल सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं हम उससे अधिक विकसित जीवों की निर्थक हिंसा करें। विकास मॉडल के दृष्टिकोण से मात्र आहार के लिए विकसित ( पशु) की हत्या प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।
प्रकृति और अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि संसाधनो का ज्यादा से ज्यादा विवेक और दक्षता से उपभोग किया जाय। मानव के पास बुद्धिमत्ता है इसलिए उसका यह उत्तरदायित्व है कि वह उपलब्ध संसाधनो का मितव्ययता से सर्वोत्तम प्रबंध करे। अर्थार्त कम से कम संसाधन खर्च कर अधिक से अधिक सुनियोजित उपयोग करे। शाकाहार शैली उसी तरह का सुनियोजित उपभोग है।
माँसाहार भक्षण पद्धति में केवल एक जीव हत्या तक ही हिंसा नहीं बल्कि जब जीव की मांस के लिये हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही उस मुर्दे पर करोडों मक्खियां अंडे दे जाती है। पता नहीं, मक्खिओं को जान निकलनें तत्क्षण कैसे आभास हो जाता है। वह मांस उसी क्षण से उन मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनता है। किसी जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही असंख्य सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। इतना ही नहीं जहां यह मांस तैयार होता है वे बुचड्खाने व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी भले हानिकर हो पर होते जीव ही है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मक्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव और करोडों रोगाणु होते है। इसके बाद भी जब यह पकता है और पकने के बाद भी उस मांस में जीवोत्पती निरंतर जारी रहती है। इसलिये, भले एक जीव की हत्या माँस प्राप्त किया जाय वह एक जीव साथ साथ असंख्य जीवहत्या का कारण होता है। जीव संख्या के आधार पर भी माँसाहार अनंत जीवहिंसा का कृत्य है।
जीवन जीने की हर प्राणी में अदम्य इच्छा होती है। जब जीने के संघर्ष की बात आती है तो कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के खिलाफ़ प्रतिकार शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु-रोगाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं के विरुद्ध जीवन बचाने के तरिके खोज लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जीजिविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। ऐसे में प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है।
येन केन पेट भरना ही मानव का लक्षय नहीं है। यह तो पशुओं का लक्षण है। प्रकृति प्रदत्त बुद्धि से ही हमने सभ्यता साधी। मानव- बुद्धि हमें विवेकशीलता प्रदान करती है, कि हमारे विचार और व्यवहार सौम्य व पवित्र रहे। यह निर्विवाद है कि हिंसा जन्य आहार लेने से हिंसा के प्रति सम्वेदनाएं समाप्तप्राय हो जाती है। किसी दूसरे जीव के प्रति दया करूणा के भाव प्रकट खत्म हो जाते है। निर्थक-निष्प्रयोजन हिंसा-भाव मन में रूढ हो जाता है। शनै शनै आवेश और निष्ठुरता हमारे आचरण में समाहित होती चली जाती है। ऐसी मनोदशा में कभी हमारे सुख की प्रतिकूल दशा में निष्ठुर आवेगोंवश आवेश में हिंसक कृत्य की भी सम्भावनाएं बन जाती है। निश्चित ही आहार हमारे विचारों को इसी तरह प्रभावित करता है।
यह ‘निरामिष सामुदयिक ब्लॉग’ एक अभियान है, उसका उद्देश्य मात्र यही है कि भले सामिष आहारी, सात्विक आहार अपनाए या न अपनाए, पर जो परम्परा से निरामिष आहारी है, कम से कम वे सामिष आहार प्रचारको के प्रभाव में न आए और हमारी नवपीढी 'सोहार्द', 'आहार चुनाव की स्वतंत्रता', 'आवेशशक्ति उत्थान' के झांसे में न फंसे। उसके पास सोचने समझने और मंथन करने के लिये पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो। ‘निरामिष’ पर ऐसे ही लेख उपलब्ध होंगे। निर्णय की उनकी स्वतंत्रता है, पर पूरी जानकारी प्राप्त करने का उनका भी अधिकार हैं। उनकी सोच समझ और मंथन में सहायता देना हमारा कर्तव्य।
जवाब देंहटाएंकुछ बातें जोड़ना चाहूंगी |
जवाब देंहटाएंजो बात शाकाहार के विरोध में बार बार कही जाती है - कि एक आम जो मैं खा रही हूँ - उसमे असंख्य जीवाणु हैं - जिनके मैं हत्या कर रही हूँ
१. ऐसे जीवाणुओं की संख्या मांसाहार में प्राकृतिक रूप से शाकाहार की अपेक्षा अधिक है | सब्जी मंदी में सब्जी तीन दिन तक नहीं ख़राब होती उन ही climatic conditions में कसाई की दुकान पर कटे हुए बकरे का मांस सुबह से शाम होते होते ही ख़राब हो जाता है | यही दर्शाता है कि जीवाणु किसमे अधिक पनप रहे हैं |
२. इन जीवाणुओं का जीवन वैसे तो क्षणिक ही है - मैं आम खाऊँ या ना खाऊँ - वह पल दो पल में समाप्त हो ही जाएगा | इससे अधिक बड़ी बात और महत्वपूर्ण बात यह है कि मेरे आम को खाने से उन जीवाणुओं के जीवन की अवधि पर प्रभाव नहीं होता | वे मेरे पेट में भी उतने समय तक जीवित ही रहेंगे जितने समय तक वे बिना खाए आम में जीवित रहते | परन्तु मांस के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है - क्योंकि मांस को खाने से पूर्व बहुत अधिक समय तक तेज ताप पर पकाना और उसके भीतर के जीवाणुओं को मारना आवश्यक है | अन्यथा मांस (कच्चे मांस) को मनुष्य नहीं खा सकते (केवल शेर आदि हिंसक पशु ही पचा सकते हैं )
३. जो शाकाहारी (सब्जी आदि) पका कर खाई जाती हैं - उन्हें पकाने में हुई जीव हिंसा की क्षमा ही मांगी जाती हैं खाने से पूर्व प्रसाद चढाने में | प्रसाद चढ़ाना का अर्थ एक physical मूर्ती को physical भोजन ऑफर करना नहीं, वरन उस पकाने की क्रिया में हुई अनिच्छित हिंसा की क्षमा माँगना है | फिर भी - यदि comparison करने की जिद हो ही - तो प्राकृतिक रूप से वनस्पतियों में जीवाणु पनपने का अनुपात मांस से कहीं कम है | आप मांसाहारी भोजन और शाकाहारी भोजन सुबह से शाम तक पकाने के बाद कौनसा जल्दी ख़राब होता है - compare कर सकते हैं |
४. पौधे से भोजन / गाय से दूध आदि के लिए उस पौधे या गाय की जान लेना आवश्यक नहीं है | उसे दर्द देना भी नहीं |
५. पेट भरना ही मानव का लक्ष्य नहीं है।