कहते है कि हमारे अच्छे विचारों के लिए कुछ हद तक हमारा आहार भी जिम्मेदार होता है। इसलिए मनुष्य यदि अपने आहार को दुरुस्त रखे, तो उसके विचार भी अच्छे होंगे। और अच्छे विचारों से ही हमारी उन्नति संभव है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे लिए कौन-सा आहार उचित हो सकता है? दरअसल, मानव शरीर के लिए शाकाहार ही सर्वोत्तम है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, हमारे पाचन तंत्रों की बनावट शाकाहार के अनुकूल है। वहीं दूसरी ओर, हमारे वेद, पुराण, गीता, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब और दूसरे धर्म ग्रंथों में हमें दूसरे जीवों के प्रति करुणा और दया का भाव रखने की सलाह दी गई है। सच तो यह है कि परमात्मा की सृष्टि से प्रेम करना परमात्मा से प्रेम करने के समान है। यदि आप चाहते है कि ईश्वर हम पर दया और कृपा करता रहे, तो आपको भी उन प्राणियों के प्रति प्रेम और दया की दृष्टि रखनी होगी, जिन्हे परमात्मा ने बनाया है। बहुत पुरानी कहावत है-जैसा पिएं पानी, वैसी बने वाणी। जैसा खाएं अन्न, वैसा बने मन। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे मन पर आहार का बहुत प्रभाव पड़ता है।
सच तो यह है कि मांसाहार का सेवन करने वाले व्यक्ति का मन पवित्र हो ही नहीं सकता है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जीवों के प्राणों का अंत कर उसे खाने वाले मनुष्यों पर ईश्वर की कृपा दृष्टि नहीं होती। महर्षि दयानंद के अनुसार, मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक हो जाता है। गीता में भोजन की तीन श्रेणियां बताई गई है। सात्विक भोजन- फल, दालें, अनाज, मेवे, दूध, मक्खन आदि। इनसे मनुष्यों में सुख, शांति, दया, अहिंसा और करुणा का भाव बढ़ता है। राजसी भोजन में तीखे, गर्म, कड़वे, खट्टे और मिर्च-मसाले वाले भोजन आते है। इनसे जलन पैदा होती है। इस तरह का भोजन दुख, रोग और चिन्ता बढ़ाने वाला होता है। तामसिक भोजन- बासी, अधपक्व, दुष्पक्व, दुर्गध वाले, नशीले, मांसाहार आदि। ऐसे आहार गंदे संस्कारों की तरफ ले जाते है। हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, शरीर में अनेक बीमारियां उत्पन्न होती है और आलस्य बढ़ता है। इससे यह पता चलता है कि सात्विक आहार ही हमारे लिए सर्वोत्तम है।
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन कहते थे कि शाकाहार का हमारी प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि दुनिया शाकाहार अपना ले, तो हिंसा होने की गुंजाइश ही खत्म हो जाए। महान दार्शनिक जॉर्ज बर्नाड शॉ ने लिखा है, 'हम मांस खाने वाले चलती-फिरती कब्रों के समान हैं, जिनमें कई जानवरों की लाशें दफन हैं।'
भारत में भी कई संत और दार्शनिक हुए है, जिन्होंने मांसाहार को जहरीला या राक्षसी आहार कहा है और उनसे दूर रहने की हिदायत दी है। महान दार्शनिक और संत तिरुवल्लुवर ने कहा है कि उस मनुष्य में दया की भावना कैसे आ सकती है, जो अपना मांस बढ़ाने के लिए दूसरे जीव-जंतुओं का मांस खाता है? गुरुनानक देव ने भी मांसाहार को सर्वथा त्याज्य बताया है। इसके अलावा, महाकवि शैले, जो महान शाकाहारी थे, ने कहा है कि इनसान जब जीव-जंतुओं का सेवन करने लगता है, तो वह उन नीच जानवरों की श्रेणी में आ जाता है, जो स्वभावत: मांसाहारी और क्रूर होते हैं। इसलिए मांसाहार को पाप और अपराध के लिए जिम्मेदार बताया गया है। इसके बावजूद भी यदि हम मांस खाते है, तो यह हमारी मूर्खता होगी। सच तो यह है कि यदि आप चाहते है कि आपका मन पवित्र हो और आपके विचार सर्वोत्तम हों, तो आपको आज से ही मांसाहार का परित्याग कर देना चाहिए।
वैज्ञानिकों के अनुसार, हमारे पाचन तंत्रों की बनावट शाकाहार के अनुकूल है। वहीं दूसरी ओर, हमारे वेद, पुराण, गीता, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब और दूसरे धर्म ग्रंथों में हमें दूसरे जीवों के प्रति करुणा और दया का भाव रखने की सलाह दी गई है। सच तो यह है कि परमात्मा की सृष्टि से प्रेम करना परमात्मा से प्रेम करने के समान है। यदि आप चाहते है कि ईश्वर हम पर दया और कृपा करता रहे, तो आपको भी उन प्राणियों के प्रति प्रेम और दया की दृष्टि रखनी होगी, जिन्हे परमात्मा ने बनाया है। बहुत पुरानी कहावत है-जैसा पिएं पानी, वैसी बने वाणी। जैसा खाएं अन्न, वैसा बने मन। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे मन पर आहार का बहुत प्रभाव पड़ता है।
सच तो यह है कि मांसाहार का सेवन करने वाले व्यक्ति का मन पवित्र हो ही नहीं सकता है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जीवों के प्राणों का अंत कर उसे खाने वाले मनुष्यों पर ईश्वर की कृपा दृष्टि नहीं होती। महर्षि दयानंद के अनुसार, मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक हो जाता है। गीता में भोजन की तीन श्रेणियां बताई गई है। सात्विक भोजन- फल, दालें, अनाज, मेवे, दूध, मक्खन आदि। इनसे मनुष्यों में सुख, शांति, दया, अहिंसा और करुणा का भाव बढ़ता है। राजसी भोजन में तीखे, गर्म, कड़वे, खट्टे और मिर्च-मसाले वाले भोजन आते है। इनसे जलन पैदा होती है। इस तरह का भोजन दुख, रोग और चिन्ता बढ़ाने वाला होता है। तामसिक भोजन- बासी, अधपक्व, दुष्पक्व, दुर्गध वाले, नशीले, मांसाहार आदि। ऐसे आहार गंदे संस्कारों की तरफ ले जाते है। हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, शरीर में अनेक बीमारियां उत्पन्न होती है और आलस्य बढ़ता है। इससे यह पता चलता है कि सात्विक आहार ही हमारे लिए सर्वोत्तम है।
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन कहते थे कि शाकाहार का हमारी प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि दुनिया शाकाहार अपना ले, तो हिंसा होने की गुंजाइश ही खत्म हो जाए। महान दार्शनिक जॉर्ज बर्नाड शॉ ने लिखा है, 'हम मांस खाने वाले चलती-फिरती कब्रों के समान हैं, जिनमें कई जानवरों की लाशें दफन हैं।'
भारत में भी कई संत और दार्शनिक हुए है, जिन्होंने मांसाहार को जहरीला या राक्षसी आहार कहा है और उनसे दूर रहने की हिदायत दी है। महान दार्शनिक और संत तिरुवल्लुवर ने कहा है कि उस मनुष्य में दया की भावना कैसे आ सकती है, जो अपना मांस बढ़ाने के लिए दूसरे जीव-जंतुओं का मांस खाता है? गुरुनानक देव ने भी मांसाहार को सर्वथा त्याज्य बताया है। इसके अलावा, महाकवि शैले, जो महान शाकाहारी थे, ने कहा है कि इनसान जब जीव-जंतुओं का सेवन करने लगता है, तो वह उन नीच जानवरों की श्रेणी में आ जाता है, जो स्वभावत: मांसाहारी और क्रूर होते हैं। इसलिए मांसाहार को पाप और अपराध के लिए जिम्मेदार बताया गया है। इसके बावजूद भी यदि हम मांस खाते है, तो यह हमारी मूर्खता होगी। सच तो यह है कि यदि आप चाहते है कि आपका मन पवित्र हो और आपके विचार सर्वोत्तम हों, तो आपको आज से ही मांसाहार का परित्याग कर देना चाहिए।
शाकाहार बेहतर है, लेकिन शाकाहारी को साधु और मांसाहारी शैतान जैसा प्रस्तुत किया जाना उचित नहीं. (गंगा स्नान कर पाप नहीं धोये जा सकते.)
जवाब देंहटाएंराहुल जी,
जवाब देंहटाएंबात तो आपकी सही है,(गंगा स्नान कर पाप नहीं धोये जा सकते.)
किन्तु कुछ सात्विकता जुडी हुई है शाकाहार से, और हिंसा जुडी हुई है मांसाहार से। साधु और शैतान नहीं पर अन्तर तो रहेगा ही।
'शाकाहार समर्थित करूणा भाव' वस्तुतः कुछ इस तरह है कि परमात्मा की सृष्टि से प्रेम करना परमात्मा से प्रेम करने के समान है। यदि आप चाहते है कि ईश्वर हम पर दया और कृपा करता रहे, तो आपको भी उन प्राणियों के प्रति प्रेम और दया की दृष्टि रखनी होगी, जिन्हे परमात्मा ने बनाया है। यही अहिंसा का ध्येय है।
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