जैसे विषयुक्त आहार हमारे शरीर में भयंकर विकार उत्पन्न करता है वैसे ही विकार युक्त विचार भी हमारे मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर भयंकर तनाव, दुःख, अशान्ति व असाध्य रोग उत्पन्न करते हैं। अतः यदि आप एक ऊँचा व्यक्तित्व पाना चाहते हो तो आहार एवं विचारों के प्रति प्रतिपल सजग रहना अवश्यक है। व्यक्ति अपने शरीर के प्रति जितनी बेरहमी बर्तता है शायद ही इतनी बेरहमी वह किसी के साथ करता हो।यह देह देवालय, शिवालय है। यह शरीर भगवान् का मन्दिर है। इसे शराब पीकर सुरालय, तम्बाकु आदि खाकर रोगालय और मांसादि खाकर इसे श्मशान या कब्रिस्तान नहीं बनाओ।
ऋत्भुक्, मित्भुक् व हितभुक् बनो। समय से, सात्विक, संतुलित व सम्पूर्ण आहार का सेवन कर शरीर को स्वस्थ बनाओ।
जैसे इस दुनिया में हमें जीने का हक है, वैसे ही सृष्टि के अन्य प्राणियों को भी निर्भय होकर, यहां जीने का अधिकार है। यदि हम किसी जीव को पैदा नहीं कर सकते तो उसे मारने का अधिकार हमें किसने दिया । और हम किसी पशु-जीव या प्राणी को मात्र इसलिए मार देते हैं कि ये देखने में हमारे जैसे नहीं लगते। वैसे तो सब प्राणियों के दिल, दिमाग व आँखें होती हैं। इनको दुःख या गहरी पीड़ा होती है। लेकिन हम इसलिए उन्हें मार दें कि उनके पास अपनी सुरक्षा के लिए हथियार नहीं हैं या लोकतन्त्र की नई तानाशाही के इस युग में उन्हें मतदान करने का अधिकार नहीं है। इसलिए उनकी सुरक्षा की सरकारों को दरकार नहीं है। काश! उनको भी हमारे जैसी बोली बोलनी आती तो अपनी पीड़ा व दर्द से शायद वे इन्सान को अवगत करा देते, लेकिन क्या करें, बेचारे इन जीवों को इन्सानी भाषा नहीं आती और हम बेरहमी से निरपराधी, निरीह, मूक प्राणियों की हत्याएं करके खुशियां मनाते हैं और दरिंदगी के साथ कुत्तों एवं भेड़ियों की तरह मांस को नोच-नोचकर खाने में गौरव का अनुभव करते हैं। इससे ज्यादा घोर पाप और अपराध और कुछ नहीं हो सकता। जब बिना निर्दोष प्राणियों की हत्या किए ही शाकाहार से तुम जीवन जी सकते हो तो क्यों अनावश्यक प्राणियों का कत्ल किये जा रहे हो? मनुष्य स्वभाव से ही शाकाहारी है। मानवीय शरीर की संरचना शाकाहारी प्राणी की है, यह एक वैज्ञानिक सत्य है।
जैसे इस दुनिया में हमें जीने का हक है, वैसे ही सृष्टि के अन्य प्राणियों को भी निर्भय होकर, यहां जीने का अधिकार है। यदि हम किसी जीव को पैदा नहीं कर सकते तो उसे मारने का अधिकार हमें किसने दिया । और हम किसी पशु-जीव या प्राणी को मात्र इसलिए मार देते हैं कि ये देखने में हमारे जैसे नहीं लगते। वैसे तो सब प्राणियों के दिल, दिमाग व आँखें होती हैं। इनको दुःख या गहरी पीड़ा होती है। लेकिन हम इसलिए उन्हें मार दें कि उनके पास अपनी सुरक्षा के लिए हथियार नहीं हैं या लोकतन्त्र की नई तानाशाही के इस युग में उन्हें मतदान करने का अधिकार नहीं है। इसलिए उनकी सुरक्षा की सरकारों को दरकार नहीं है। काश! उनको भी हमारे जैसी बोली बोलनी आती तो अपनी पीड़ा व दर्द से शायद वे इन्सान को अवगत करा देते, लेकिन क्या करें, बेचारे इन जीवों को इन्सानी भाषा नहीं आती और हम बेरहमी से निरपराधी, निरीह, मूक प्राणियों की हत्याएं करके खुशियां मनाते हैं और दरिंदगी के साथ कुत्तों एवं भेड़ियों की तरह मांस को नोच-नोचकर खाने में गौरव का अनुभव करते हैं। इससे ज्यादा घोर पाप और अपराध और कुछ नहीं हो सकता। जब बिना निर्दोष प्राणियों की हत्या किए ही शाकाहार से तुम जीवन जी सकते हो तो क्यों अनावश्यक प्राणियों का कत्ल किये जा रहे हो? मनुष्य स्वभाव से ही शाकाहारी है। मानवीय शरीर की संरचना शाकाहारी प्राणी की है, यह एक वैज्ञानिक सत्य है।
इस ब्लॉग को पढ्कर अच्छा लगा... मैं कोरिया में रहता हूँ.. यहाँ मांस के बिना भोजन की कल्पना भी नहीं करते लोग... हर दिन भोजन में तरह-तरह के जीव-जंतुओं को मांस होते हैं... पूर्ण शाकाहारी भोजन ढूंढना मंगल गृह पर जल ढूंढने के समान है.. सब्जियों से बने खाद्यों में भी ये किसी मांस का पाउडर वगैरह तो डाल ही देते हैं... मैं चिकन और अंडे तक तो खा लेता हूँ... कोशिश तो करता हूँ वो भी न खाने की पर यह सरवाइवल का प्रश्न हो जाता है क्योंकि होस्टल में खाना बनाने की अनुमति नहीं है...
जवाब देंहटाएंयह ब्लॉग शाकाहार को बढाने में काफी मदद करेगा.. आपलोगों को ढेरों बधाइयां और शुभकामनाएं....
सतीश जी,
जवाब देंहटाएंयह सच है कि दुर्गम परिवेश में शुद्ध सात्विक आहार मिलना दुर्लभ है,किन्तु आपके मन में इन सामिष वस्तुओं से अरूचि है। यह भी बहुत बडी बात है। आज आप जीजिविषा से मज़बूर है, किन्तु जब भी आपको सहजता से शाकाहार उपलब्ध होगा, आप सामिष से दूर हो जायेंगे।
सत्यार्थी के भावो में सात्विकता बनी रहे। शुभकामनाएँ।
काबिलेतारीफ़ है प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंराजीव जी,
जवाब देंहटाएंआभार