निरामिष आहार का विकास मानव के विकास, उसकी पूर्णता तथा मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक एकता की दिशा में बढ़ते हुए चरण हैं। सात्विक होने के लिए सदा सात्विक भोजन अपेक्षित है और उसके लिए निरामिष आहार आवश्यक है। मानव व्यक्तित्व से यदि हमें पाशविकता का उन्मूलन करना है तो हमें अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का जीवन लेने का मोह छोड़ना होगा।
निरामिष आहार केवल आहार की ही एक शैली नहीं, वह जीवन की भी शैली है। जिसका आधार है- सभी प्राणियों से प्रेम करना। उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा कोई कष्ट नहीं पहुंचाना। आहार एक साधन है, साध्य नहीं। हमें ऐसे आहार को अपनाना चाहिए जो पोषण के साथ-साथ हमारे परिवेश में एकत्व कर सके। जीवशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है, फिर भी उसमें बुद्धि और हृदयगत सुकोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि उसका पशु स्वभाव संयमित होता गया। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का वध करने की प्रेरणा नहीं देती।
आहार जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु कैसा भी आहार ग्रहण कर मृत्युंजयी नहीं बन सकते। हममें ऐसे भी कुछ तत्व हैं जो शाश्वत, चिरन्तन और सनातन हैं, जिसे आत्मतत्व कहा गया है। ये आत्मतत्व हमारे आहार पर आधारित नहीं हैं, फिर भी ये हम पर निर्भर हैं कि हम किस प्रकार का आहार करें। यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो हमें यह मानना होगा कि जैसे हमें जीनें का अधिकार है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। ‘तत्वमसि’ एवं ‘अहं ब्रह्मासि’ के सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म एवं जीव की पूर्ण एकता है।
किसी प्राणी का वध वस्तुत: स्वयं का ही वध है। श्रेष्ठजन, मात्र स्वाद के लिए निरीह पशुओं की हिंसा में पाप, अधर्म और उसे बर्बर कृत्य मानते हैं।
निरामिष आहार केवल आहार की ही एक शैली नहीं, वह जीवन की भी शैली है। जिसका आधार है- सभी प्राणियों से प्रेम करना। उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा कोई कष्ट नहीं पहुंचाना। आहार एक साधन है, साध्य नहीं। हमें ऐसे आहार को अपनाना चाहिए जो पोषण के साथ-साथ हमारे परिवेश में एकत्व कर सके। जीवशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है, फिर भी उसमें बुद्धि और हृदयगत सुकोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि उसका पशु स्वभाव संयमित होता गया। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का वध करने की प्रेरणा नहीं देती।
आहार जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु कैसा भी आहार ग्रहण कर मृत्युंजयी नहीं बन सकते। हममें ऐसे भी कुछ तत्व हैं जो शाश्वत, चिरन्तन और सनातन हैं, जिसे आत्मतत्व कहा गया है। ये आत्मतत्व हमारे आहार पर आधारित नहीं हैं, फिर भी ये हम पर निर्भर हैं कि हम किस प्रकार का आहार करें। यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो हमें यह मानना होगा कि जैसे हमें जीनें का अधिकार है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। ‘तत्वमसि’ एवं ‘अहं ब्रह्मासि’ के सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म एवं जीव की पूर्ण एकता है।
किसी प्राणी का वध वस्तुत: स्वयं का ही वध है। श्रेष्ठजन, मात्र स्वाद के लिए निरीह पशुओं की हिंसा में पाप, अधर्म और उसे बर्बर कृत्य मानते हैं।
किसी भी जीव के वध का दृश्य इतना वीभत्स होता है कि उसके बाद उसे खाने की सोचना......तौबा-तौबा!
जवाब देंहटाएंकुमार राधारमण जी,
जवाब देंहटाएंनिरामिष आहार के समर्थन के लिये अनंत आभार
सत्य....निरोगिता, शक्तिवर्द्धन, दीर्घायुष्य आदि सतोगुणी शक्तियों की प्राप्ति का एकमात्र साधन सिर्फ सात्विक आहार ही है....
जवाब देंहटाएंश्रीमदभागवतगीता में भी कहा गया है---
आयु: सत्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धन:
रस्या: स्निधा: स्थिरा ह्रद्या आहारा: सात्विकप्रिया:!!
पं.डी.के.शर्मा"वत्स" जी,
जवाब देंहटाएंनिरामिष आहार के समर्थन के लिये अनंत आभार
मैं आमंत्रित करता हूँ इस विषय के विशेषज्ञ बंधु, जो योगदान देना चाहें, कृपया सम्पर्क करें।
जवाब देंहटाएंसभी ब्लॉगर बंधु कृपया इस ब्लॉग का समर्थन करके इस अभियान को प्रोत्साहित करें।