एक बार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ बहुत बीमार हो गए। डॉक्टरों ने उन्हें सलाह दी कि ताकत बढ़ाने के लिए वे मांस खाएं, इससे स्वस्थ रहेंगे और दीर्घायु होंगे। इस पर उन्होंने कहा कि इस राक्षसपन से तो मृत्यु ही उत्तम है। मैंने अपनी वसीयत लिख दी है। मेरी मृत्यु पर मेरी अर्थी के साथ विलाप करती गाड़ियों की आवश्यकता नहीं है। मेरे साथ गायों, बैलों, भेड़ों और मुर्गों का एक काफिला होगा। इन सभी पशु-पक्षियों के गले में सफेद दुपट्टे होंगे, उस दोस्त के शोक में जिसने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा मरना उत्तम समझा।
निरामिष आहार के 2 रूप हैं- स्थूल एवं सूक्ष्म। स्थूल अर्थ है सिर्फ खाने में मांसाहार का त्याग। पर हम आहार में मांसाहार का त्याग करें, लेकिन मन में अमैत्री का भाव हो, व्यवहार में शोषण हो, वचन में कटुता, रोष और अहंकार हो तो क्या फायदा? जिस प्रकार एक ओर चींटी को चीनी खिलाएँ या मछलियों को तालाब में दाना दें तथा दूसरी ओर बेहिचक मुनाफाखोरी और शोषण करें तो वह अहिंसा का मजाक उड़ाने की तरह है। उसी प्रकार एक तरफ निरामिष आहार का व्रत लेना और दूसरी तरफ धोखा, आडम्बर, विश्वासघात और वैर में लगे रहना एक तरह का पाखंड है।
वास्तव में निरामिष आहार के विचार का विकास, मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक विकास का लक्षण है। यदि हमें पाशविकता को खत्म करना है, तो अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का जीवन लेने का मोह भी छोड़ना होगा। निरामिष आहार का दर्शन है- मैत्री भाव। यह एक जीवन मूल्य है, यह एक जीवन शैली है।
हम लोग जीने के लिए भोजन करते हैं, भोजन के लिए नहीं जीते। आहार एक साधन है, साध्य नहीं। इस दृष्टि से हमें ऐसे ही आहार को अपनाना चाहिए जो हमें पोषण देने के साथ-साथ हमारे वातावरण से भी तादात्म्य स्थापित कर सके। यद्यपि जीवन शास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है। फिर भी उसमें बुद्धि और कोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि वह अपने पशु भाव को संयमित रख पाता है। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणियों के प्राण नहीं लेने की प्रेरणा देती है।
जहाँ एक ओर मानव में क्रूरता का भाव है, वहीं अपरिमित करुणा भी है। वह विकृत होकर विश्व का सबसे बर्बर एवं नृशंस प्राणी बन सकता है और सभ्य होकर करुणा की मूर्ति बन सकता है। आहार जीवन के लिए जरूरत है, किन्तु कैसा भी आहार ग्रहण कर मृत्युंजय नहीं बना जा सकता।
यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो जैसे हमें जीने का अधिकार है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। हर जीव ईश्वर का अंश है, इसलिए वह उतना ही पवित्र है, जितना ईश्वर। यदि हर जीव में ईश्वर का वास है, तब किसी भी जीव का वध एक प्रकार का ईश्वर दोह ही है।
हम अपने को आध्यात्मिक जीव तथा अन्य प्राणियों को अपना आखेट मान लें, यह धर्म नहीं हो सकता। मांसाहार में घृणा के बीज छिपे हैं। निरामिष आहार अहिंसा का आयाम है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि सृष्टि में एक व्यापक आहार चक्र है। एक प्राणी दूसरे प्राणी को अपना आहार बनाता है। लेकिन इस तर्क का खंडन करते हुए प्राचीन यूनानी दार्शनिक पाइथोगोरस कहते हैं- बाघ एवं सिंह आदि के लिए आखेट उनकी प्रकृति है, किन्तु मनुष्यों के लिए विलासिता और अपराध है।
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के प्रथम ही मंत्र में कहा गया है, अघ्न्या यजमानस्य पशून पाहि!' अर्थात हे पुरुष, तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात सबके सुख देने वाले जनों के संबंधी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होए। इसलिए श्रेष्ठजन केवल स्वाद के लिए निरीह पशुओं की हिंसा को पाप, अधर्म और बर्बर कृत्य मानते हैं।
निरामिष आहार के 2 रूप हैं- स्थूल एवं सूक्ष्म। स्थूल अर्थ है सिर्फ खाने में मांसाहार का त्याग। पर हम आहार में मांसाहार का त्याग करें, लेकिन मन में अमैत्री का भाव हो, व्यवहार में शोषण हो, वचन में कटुता, रोष और अहंकार हो तो क्या फायदा? जिस प्रकार एक ओर चींटी को चीनी खिलाएँ या मछलियों को तालाब में दाना दें तथा दूसरी ओर बेहिचक मुनाफाखोरी और शोषण करें तो वह अहिंसा का मजाक उड़ाने की तरह है। उसी प्रकार एक तरफ निरामिष आहार का व्रत लेना और दूसरी तरफ धोखा, आडम्बर, विश्वासघात और वैर में लगे रहना एक तरह का पाखंड है।
वास्तव में निरामिष आहार के विचार का विकास, मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक विकास का लक्षण है। यदि हमें पाशविकता को खत्म करना है, तो अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का जीवन लेने का मोह भी छोड़ना होगा। निरामिष आहार का दर्शन है- मैत्री भाव। यह एक जीवन मूल्य है, यह एक जीवन शैली है।
हम लोग जीने के लिए भोजन करते हैं, भोजन के लिए नहीं जीते। आहार एक साधन है, साध्य नहीं। इस दृष्टि से हमें ऐसे ही आहार को अपनाना चाहिए जो हमें पोषण देने के साथ-साथ हमारे वातावरण से भी तादात्म्य स्थापित कर सके। यद्यपि जीवन शास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है। फिर भी उसमें बुद्धि और कोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि वह अपने पशु भाव को संयमित रख पाता है। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणियों के प्राण नहीं लेने की प्रेरणा देती है।
जहाँ एक ओर मानव में क्रूरता का भाव है, वहीं अपरिमित करुणा भी है। वह विकृत होकर विश्व का सबसे बर्बर एवं नृशंस प्राणी बन सकता है और सभ्य होकर करुणा की मूर्ति बन सकता है। आहार जीवन के लिए जरूरत है, किन्तु कैसा भी आहार ग्रहण कर मृत्युंजय नहीं बना जा सकता।
यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो जैसे हमें जीने का अधिकार है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। हर जीव ईश्वर का अंश है, इसलिए वह उतना ही पवित्र है, जितना ईश्वर। यदि हर जीव में ईश्वर का वास है, तब किसी भी जीव का वध एक प्रकार का ईश्वर दोह ही है।
हम अपने को आध्यात्मिक जीव तथा अन्य प्राणियों को अपना आखेट मान लें, यह धर्म नहीं हो सकता। मांसाहार में घृणा के बीज छिपे हैं। निरामिष आहार अहिंसा का आयाम है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि सृष्टि में एक व्यापक आहार चक्र है। एक प्राणी दूसरे प्राणी को अपना आहार बनाता है। लेकिन इस तर्क का खंडन करते हुए प्राचीन यूनानी दार्शनिक पाइथोगोरस कहते हैं- बाघ एवं सिंह आदि के लिए आखेट उनकी प्रकृति है, किन्तु मनुष्यों के लिए विलासिता और अपराध है।
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के प्रथम ही मंत्र में कहा गया है, अघ्न्या यजमानस्य पशून पाहि!' अर्थात हे पुरुष, तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात सबके सुख देने वाले जनों के संबंधी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होए। इसलिए श्रेष्ठजन केवल स्वाद के लिए निरीह पशुओं की हिंसा को पाप, अधर्म और बर्बर कृत्य मानते हैं।
इस नए ब्लॉग के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंजगत में सुख और शान्ति का एक मात्र उपाय अहिंसा है, इसलिये सर्वजन में श्रेष्ठ अहिंसा भाव रहना आवश्यक है। उत्कृष्ट अहिंसा भाव, जीव-मात्र के प्रति अनुकम्पा से ही जाग्रत हो सकता है। चुंकि आहार ही सबकी मुख्य आवश्यकता है और उसी उद्देश्य से ही सर्वाधिक हिंसा की सम्भावनाएं बनती है, इसलिये अहिंसा भाव का प्रारंभ भी आहार से ही होता है। दूसरे जीवो के दुख व पीडा से सम्वेदनाओ सहित सुकोमल भाव हमारे में अनुकम्पा जगाता है, दया जगाता है। और हम अपना आहार निर्वध्य करते हुए सात्विक आहार की तरफ़ बढते है और हमारे विचार में भी सात्विकता प्रगाढ बनती है। इस तरह अन्तर तक गहरे उतरे, निर्दोष निर्मल कोमल भाव हमें मानव से मानव के प्रति भी हिंसक बनने से रोकते है।
जवाब देंहटाएं