सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

अमृतपान - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

हमारे पूर्वजों के चलाये
हजारों पर्व और त्यौहार
पूरे नहीं पड़ते
तेजस्वी, दाता, द्युतिवान
उत्सवप्रिय देवों को
जभी तो वे नाचते गाते
गुनगुनाते
शामिल होते हैं
लोसार, ओली व खमोरो ही नहीं
हैलोवीन और क्रिसमस में भी
लेकिन मुझे यकीन है कि
बकरीद हो या दसाइन
बेज़ुबान प्राणियों की
कुर्बानी, बलि या हत्या में
उनकी उपस्थिति नहीं
स्वीकृति भी नहीं होती
मृतभोजी नहीं हो सकते वे
जो अमृतपान पर जीते हैं

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

शाकाहार सम्बन्धी कुछ भ्रम और उनका निवारण -2

आज कई मांसाहार प्रचारक अपने निहित स्वार्थों, व्यवसायिक हितों, या धार्मिक कुरीतियों के वशीभूत होकर अपना योजनाबद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं। वस्तुतः अब कुसंस्कृतियाँ सामिष आहार प्रचार के माध्यम से ही विकार पैर पसारने को तत्पर है। इस प्रचार में,  न केवल विज्ञान के नाम पर भ्रामक और आधी-अधूरी जानकारियाँ दी जा रही हैं, बल्कि इस उद्देश्य से धर्मग्रंथों की अधार्मिक व्याख्यायें प्रचार माध्यमों द्वारा फैलाई जा रही हैं। यह सब हमारी अहिंसक और सहिष्णु संस्कृति को दूषित  और विकार युक्त करने का कुटिल प्रयोजन है।

ऐसे ही 7 भ्रमों  का निवारण  निरामिष पर पहले प्रस्तुत  किया गया था, अब प्रस्तुत है भ्रम-निवारण 8 से 12……  

भ्रम # 8 अहिंसावादी, जीवदयावादी व शाकाहारियों के प्रभाव से भारतीय जनमानस कमजोर और कायर हो गया था।

उत्तर : मध्यकालीन आक्रांता तो धर्म-कर्म-जात आदि से केवल और केवल आक्रमणकारी ही थे, उनकी कोई नैतिक युद्धनीति नहीं थी। उनका सिद्धांत मात्र बर्बरता ही था। उनका सामना करने की जिम्मेदारी अहिसावाद,जीवदया या करूणा से प्रभावित लोगों की नहीं, बल्कि मांसाहारी राजपूत सामंतो व क्षत्रिय योद्धाओं की थी। जब वे भी सामना न कर पाए तो अहिंसावादी, जीवदयावादीयों को जिम्मेदार ठहराना हिंसावादियों की कायरता छुपाने का उपक्रम है। शौर्य और वीरता कभी भी मांसाहार से नहीं उपजती। न वीरता प्रतिहिंसा से प्रबल बनती है। वीरता तो मात्र दृढ़ मनोबल और साहस से ही पैदा होती है। इतिहास में एक भी प्रसंग नहीं है जब कोई यौद्धा अहिंसा को बहाना बना पिछे हटा हो। यथार्थ तो यह है कि युद्ध-धर्म तो दयावान और करूणावंत भी पूरे उत्तरदायित्व से निभा सकता है। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आक्रमण और पराजय का खेल केवल भारत में नहीं खेला गया है। सारी दुनिया में कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि वह सदा अजेय रही है। क्या वे सभी जातियाँ शाकाहारी थीं? गुलामी और हार का सम्बन्ध, शाकाहार या अहिंसा से जोड़ने का आपका यह प्रयास आधारहीन है। इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ सौ साल की गुलामी से पहले भारत में हज़ारों साल की स्वतंत्र,सभ्य और उन्नत संस्कृति का इतिहास भी रहा है।

इसलिए यदि 'धर्म' के परिपेक्ष्य चिंतन करें तो उसमें हिंसा और हिंसा के प्रोत्साहक माँसाहार का अस्तित्व भला कैसे हो सकता है। पशुहत्या का आधार मानव की कायर मानसिकता है, जब शौर्य व मनोबल क्षीण होता है तो क्रूर-कायर मनुष्य, दुस्साहस व धौंस दर्शाने के लिए पशुहिंसा व मांसाहार का आसरा लेता है। लेकिन पशुहिंसा से क्रूरता व कायरता को छुपने का कोई आश्रय नहीं मिलता। निर्बल निरीह पशु पर अत्याचार को भला कौन बहादुरी मानेगा। इसीलिए क्रूरता से कायरता छुपाने के प्रयत्न सदैव विफल ही होते है।

यह लेख दृष्टव्य है - "जहाँ निष्ठुरता आवश्यक है……………"


भ्रम # 9 सुरक्षा के लिए भी रक्तपात आवश्यक है।

उत्तर : रक्तपात सुरक्षा की गारंटी नहीं है। रक्तपात तो आपस में ही लड़ मरने की, वही आदिम-जंगली शैली है। रक्तपात को कभी भी शान्ति स्थापक समाधान नहीं माना गया। हिंसा कभी भी, किसी भी समस्या का स्थाई हल नहीं होती और न हो सकती है। चिरस्थाई हल हमेशा चिंतन, मनन, मंथन और समझोतों से ही उपजते हैं।

भ्रम # 10 मांसाहार एक आहार विकल्प है, शाकाहार या मांसाहार जिसकी जो मर्जी हो खाए।

नहीं!, मांसाहार आहार का विकल्प नहीं है। वह मात्र एक मसाला सामग्री की तरह स्वाद विकल्प मात्र है। पोषण उद्देश्य के लिए तो शाकाहार अपने आप में सम्पूर्ण है। मनुष्य शाकाहार के विकल्प के रूप में मांसाहार का प्रयोग नहीं करता। क्योंकि मात्र मांसाहार को वह अपना सम्पूर्ण आहार नहीं बना सकता, उसके लिए भी मांसाहार के साथ शाकाहार सामग्री का प्रयोग अनिवार्यता है। केवल मांस खाकर इन्सान जिन्दा नहीं रह सकता। इस लिए विकल्प की तरह चुनाव की बात करना मतिभ्रम है। स्वादलोलुपता की धूर्तता के कारण इसे विकल्प की तरह पेश किया जाता है। वस्तुतः मांसाहार आहार में आया एक विकार है। किसी जीव ने अपने जिन्दा रहने के लिए शाकाहार करके अपने शरीर की मांस मज्जा बनाई और आप उसके अपने जीवन भर के श्रम के अर्जन को निर्दयता से छीन कर अपना पेट भरें वह भी उसकी जिन्दगी ही लेकर? इस मर्जी को क्या कहेंगे।

कोई कैसे मनमर्जी खा सकता है मामला जब क्रूरता या असंवेदनशीलता का हो? अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। इसीलिए अहिंसा भाव का प्रारंभ भी आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तभी हमारे जीवन में संवेदनशीलता और अन्तः सात्विकता प्रगाढ होती है। नशीले पदार्थ का भोग व्यक्ति की अपनी मर्जी होने के बाद भी सभ्य समाज उसे सही नहीं ठहराता उसी तरह चुनाव की आजादी के उपरांत भी हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं।

दृष्टव्य: भोजन का चुनाव व्यक्तिगत मामला मात्र नहीं है।
दृष्टव्य: मानव के भोजन का उद्देश्य

भ्रम # 11 दुनिया भर में मांसाहार को लेकर कोई अपराधबोध नहीं है?

यह सही नहीं है कि लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है। हम एक बहु-विविध विश्व में रहते हैं। अमेरिकी घोड़ा खाना पाप समझते हैं, जापानी साँप खाने को हद दर्ज़े का जंगलीपन मानते हैं, भारतीय मांसाहारी गाय को अवध्य मानते रहे हैं जबकि मुसलमान सुअर नहीं खाते। मतलब यह कि मांसाहार लगभग हर भौगोलिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक प्रकार के अपराधबोधों से ग्रस्त है। और कुछ नहीं तो हलाल-झटका-कुत्ता का ग्लानी भरा झंझट तो व्याप्त है ही। यह भी उतना ही सत्य है कि ऐसे प्रत्येक देश विदेशों में कम ही सही पर कुछ लोग न केवल शाकाहार का समर्थन करते हैं बल्कि वे उसे ही बेहतर मानते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि ऐसा वे किसी भारतीय के कहने पर नहीं करते। विख्यात 'द वेजेटेरियन सोसायटी' अस्तित्व में आयी है, बेल्जियम के गेंट नगर ने सप्ताह में एक दिन शाकाहार करने का प्रण लिया है। ब्रिटेन व अमेरिका के अनेक ख्यातनाम व्यक्तित्व न केवल शाकाहारी हैं बल्कि पेटा आदि संगठनों के साथ जुड़कर पूरे दमखम से शाकाहार और करुणा का प्रचार-प्रसार करने में लगे हैं। वीगनिज़्म का जन्म ही भारत के बाहर हुआ है। इथियोपिया से चलकर विश्व में फैले ‘रस्ताफेरियन’ पूर्ण शाकाहारी होते हैं। भारी संख्या में 'सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट' भी शाकाहारी हैं।

भ्रम # 12 यह जरूरी नहीं है कि सभी मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हो।

मांसाहार में कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। हर भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा की सम्वेदनाओं को निष्ठुर बना देता है। हिंसक दृश्य, निष्ठुर सोच और परपीड़ा को सहज मानने की मनोवृति हमारी मानसिकता पर दुष्प्रभाव डालती है। ऐसा दुष्प्रभाव यदि सम्भावनाएँ मात्र भी हो, तब बुद्धिमानी यह है कि सम्भावनाओं को अवसर ही क्यों दिया जाय। वस्तुतः कार्य गैर जरूरी हो और दुष्परिणाम की सम्भावनाएं भले एक प्रतिशत भी हो घटने के पर ही लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है।

मनुष्य के हृदय में सहिष्णुता का भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। जब मात्र स्वाद और पेट्पूर्ती के उद्देश्य से मांसाहार का चुनाव किया जाता है तब ऐसी प्राणी हत्या, मानस में क्रूर भाव का आरोपण करती है जो निश्चित ही हिंसक मनोवृति के लिए जवाबदार है। मांसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ व निर्दयता की भावनाओं का पनपना, आज विश्व में बढ़ती हिंसा, घृणा, आतंक और अपराधों का मुख्य कारण है। हिंसा के प्रति जगुप्सा के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। जीवदया और करूणा भाव हमारे मन में कोमल सम्वेदनाओं को स्थापित करते है और यही सम्वेदनाएं हमें मानव से मानव के प्रति भी सहिष्णु बनाए रखती है।

दृष्टव्य: दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

निरामिष विशेष कड़ियाँ (लिंक्स)

निरामिष पर अब तक प्रकाशित लेखों में विशिष्ठ आलेखों की विषयवार कड़ियाँ (लिंक्स)


  • अहिंसक मनोवृति (जीवदया और करूणा  के लिए शाकाहार)
  1. दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार।
  2. विश्व शान्ति का उपाय शाकाहार।
  3. हिंसा का अल्पीकरण ही अहिंसा का सोपान।
  4. आहार का अक्रूर आयाम है शाकाहार।

  • संतुलित पोषण स्रोत (पोषणयुक्त शाकाहार)
  1. प्राकृतिक पोषण मूल्यों का प्राथमिक स्रोत,शाकाहार ।
  2. संतुलित पोषण तत्वो का प्रमुख आधार है शाकाहार।
  3. केवल शाकाहार में है पोषण का पूर्ण संतुलन।
  4. शारिरिक प्रतिरक्षा प्रणाली का बल है शाकाहार।

  • आरोग्य वर्धक ( निरामय और स्वास्थ्यप्रद शाकाहार)
  1. स्वस्थ व दीर्घ जीवन का आधार है शाकाहार।
  2. आरोग्य संवर्धक है शाकाहार।
  3. विश्व स्वास्थ्य शाकाहार में निहित है।

  • सभ्य-खाद्याचार (सुसंस्कृत सभ्य आहार)
  1. आदिमयुग से विकास और सभ्यता की धरोहर है शाकाहार।
  2. शाकाहारी संस्कृति का संरक्षण ही हमारी सुरक्षा है।
  3. मानवीय जीवन-मूल्यों का संरक्षक है शाकाहार।

  • पर्यावरण संरक्षण (प्राकृतिक संसाधनों के संयमित उपभोग हेतु शाकाहार)
  1. पर्यावरण का श्रेष्ठ उपचार है शाकाहार।
  2. प्राकृतिक संसाधनो का उपभोग संयम अर्थात् शाकाहार।
  3. अपरिहार्य हिंसा का भी अल्पीकरण है शाकाहार।
  4. विश्व भूखमरी का निदान है शाकाहार।

  • तर्कसंगत-विकल्प (पूर्णरूपेण तर्कसंगत और न्यायसंगत शाकाहार)
  1. प्रागैतिहासिक मानव, प्राकृतिक रूप से शाकाहारी ही था।
  2. मनुष्य की सहज वृति और उसकी कायिक प्रकृति दोनो ही शाकाहारी है।
  3. मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल।
  4. शाक से अभावग्रस्त, दुर्गम क्षेत्रवासी मानवो का अनुकरण मूर्खता!!
  5. सभ्यता व विकास मार्ग का अनुगमन या भीड़ का अंधानुकरण?
  6. यदि अखिल विश्व भी शाकाहारी हो जाय, सुलभ होगा अनाज!!
  7. भुखमरी को बढाते ये माँसाहारी और माँस-उद्योग!!
  8. शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल !!!
  9. प्राणी से पादप : हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है।
  10. प्रोटीन प्रलोभन का भ्रमित दुष्प्रचार।
 11.  विटामिन्स का दुष्प्रचार।
 12. उर्ज़ा व शक्ति का दुष्प्रचार


निरामिष के बारे में आपका दृष्टिकोण कृपया यहां रखें.....

रविवार, 30 जून 2013

निरामिष आंदोलन

निरामिष-आहार, निर्मल-विचार, निर्दोष-आचार, निरवध्य-कर्म, निरावेश-मानस।

अहिंसा जीवन का आधार है, सहजीवन का सार है और जगत के सुख और शान्ति का एक मात्र उपाय है। अहिंसा के कोमल और उत्कृष्ट भाव में समस्त जीवों के प्रति अनुकम्पा और दया छिपी है। अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। यूँ तो सभी धार्मिक सामाजिक परम्पराओं में जीवन का आदर है परंतु "अहिंसा परमो धर्मः" का उद्गार भारतीय संस्कृति की एकमेव अभिन्न विशेषता है। अपौरुषेय वचन के तानेबाने अहिंसा, प्रेम, करुणा और नैतिकता के मूल आधार पर ही बुने गये हैं।

चूँकि आहार जीवन की एक मुख्य आवश्यकता है, इसलिये अहिंसा भाव का प्रारंभ आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तो हमारे जीवन में सात्विकता प्रगाढ होती है। इसीलिये "निरामिष" आहार पर हमारा विशेष आग्रह है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। ज्ञातव्य है कि कुछ लोगों के लिये भोजन भी एक अति-सम्वेदनशील विषय है यद्यपि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। सिख, बौद्ध, हिन्दू, जैन समुदाय में तो शाकाहार सामान्य ही है परंतु इनके बाहर भी कितने ही ईसाई, पारसी और मुसलमान शुद्ध शाकाहारी हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा जैसे दैवी गुण धर्म, क्षेत्र, रंग, जाति भेद आदि के बन्धनों से कहीं ऊपर हैं। जब यह कोमल भाव हमारे अन्तर में दृढभूत हो जाते हैं तब मानव की मानव के प्रति हिंसा भी रुकती है जो कि आज संसार भर में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है।

आज कई मांसाहार प्रचारक अपने निहित स्वार्थों, व्यवसायिक हितों, या धार्मिक कुरीतियों के वशीभूत होकर अपना योजनाबद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं। वस्तुतः कुसंस्कृतियाँ सामिष आहार के माध्यम से ही आक्रमण करने को तत्पर है। न केवल विज्ञान के नाम पर भ्रामक और आधी-अधूरी जानकारियाँ दी जा रही हैं, बल्कि अक्सर धर्मग्रंथों की अधार्मिक व्याख्यायें भी इस उद्देश्य के लिये प्रचार माध्यमों से फैलाई जा रही हैं। यह सब हमारी अहिंसक संस्कृति को दूषित कर पतित बनाने का प्रयोजन है। ऐसे सामिष प्रचारी 'हर आहार के प्रति सौहार्द', 'आहार चुनाव की स्वतंत्रता', व 'आवेश उत्थान शक्ति' आदि भ्रांत तर्कों के माध्यम से प्रभावित करते नज़र आते है। हमारी नवपीढी सामिष दुष्प्रचार की शिकार हो रही है। कहीं अधिक पोषण का झांसा दिया जा रहा है तो कहीं स्वास्थ्य का, कही खाद्य अभाव का रोना रोया जाता है और कभी स्टेटस सिंबल का प्रलोभन। जबकि उसके पीछे सच्चाई का अंश भी नहीं है।

‘निरामिष’ सामुदयिक ब्लॉग एक जागृति अभियान है, एक दयावान, करूणावान ‘निरामिष समाज’ के निर्माण का। हमारा मुख्य प्रयोजन, जगत में शान्ति के उद्देश्य से अहिंसा भाव के प्रसार का है। मनुष्य के हृदय में अहिंसा भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। शाकाहार समर्थन के लिए लोकहित में यहां तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ लेख उपलब्ध होंगे। हमारी निष्ठा सत्य और अहिंसा के प्रति है। हमारा प्रयत्न यहाँ पर अहिंसा और जीवदया के उस गौरव को पुनर्स्थापित करना है जो सदा से भारतीय संस्कृति की आधारशिला रहा है। "निरामिष" पर उपलब्ध सभी सामग्री न केवल श्रमसाध्य है बल्कि हमारी विशेष निष्ठा इस बात पर है कि यहाँ केवल विश्वसनीय सामग्री ही उपलब्ध हो।

यह एक गैरलाभ सेवा-कार्य है, ‘निरामिष’ के समर्थक बनकर सहयोग प्रदान करें। निरामिष समाज की रचना में योगदान दें। सात्विक आहार से स्वस्थ समाज के निर्माण में यह छोटा सा विनम्र प्रयास है।

सात्विक-आहार, स्वस्थ-आरोग्य, सौम्य-विचार, सुरूचि-व्यवहार, सद्चरित्र

सोमवार, 27 मई 2013

मनुस्मृति और मांसाहार

मनुस्मृति और मांसाहार (अध्याय पञ्चम अनुशीलन एंवम् समीक्षा)---

मांसाहार पर मनुस्मृति का पक्ष

मनुस्मृति पञ्चम अध्याय के प्रथम चारो मंत्र प्रक्षिप्त है(1 से 4 तक)

1- इन चारो मत्रोँ मे ऋषि लोग भृगु से प्रश्न कर रहेँ है।
2- ये चारो मंत्र अध्याय के विषय तालमेल नही रखते है।
3- इन चारो श्लोको मे प्रदर्शित प्रश्न और उत्तर मे भी परस्पर कोई संगति नही है। जैसे द्वितीय मंत्र मे प्रश्न है कि "स्वधर्म यानी वेदशास्त्रो के वेत्ता देवताओँ को मुत्यु कैसे मारती है" उत्तर है- वेदोँ के अनाभ्यास से, आचार के त्याग से, आलस्य से, अब आप खुद देखे कि एक तरफ तो प्रश्न में वेदवेत्ता शब्द है फिर उत्तर मे अनाभ्यासी, भला ये दोनो एक साथ संभव है क्या?

मनुस्मृति पञ्चम अध्याय मे आगे मंत्र 6-7 प्रक्षिप्त है क्योँकि 7वेँ मंत्र मे मांसाहार का वर्णन है और 6वाँ उसी से सम्बद्ध है। मंत्र 11 से 23 तक सभी प्रक्षिप्त है-

1- सभी प्रकार का मांसभक्षण और यज्ञोँ मेँ मांस डालना मनु की मान्यता के विरूद्ध है जैसा ये श्लोक बखान कर रहेँ हैँ।
2- ये श्लोक पूर्वापर प्रसंगविरूद्ध हैँ और प्रंसग भंग कर रहे हैँ। 10वेँ मंत्र मे दही और दही से बने पदार्थो के खाने का विधान किया है और 24वेँ मे घृत और घृतनिर्मित पदार्थो के भक्षण का विधान है। बीच मे मांसभक्षण सम्बन्धी वर्णन ने उस प्रसंग को भंग कर दिया है। अब हम सबसे महत्वपूर्ण मत्रोँ की ओर आतेँ है क्योँकि इन मंत्रो लेकर कोई जाकिर नाईक आर्यधर्म पर मांसभक्षण का आरोप लगाता है।

मंत्र 26 से लेके 44 तक प्रक्षिप्त है---

1- सभी प्रकार के मांसभक्षण की मान्यता और पशुयज्ञ का विधान सर्वथा मनु की मान्यता के विरूद्ध है।
2- मंत्र 24-25 मे मांस आदि से रहित अनिन्दित भोजन करने का कथन है, तदनुसार 45,46 वा 51वेँ मंत्र मेँ मांस का भोजन निन्दित है और किस प्रकार निन्दित है यह वर्णित है बीच मे मांसाहार का वर्णन प्रसंग भंग करता है। अत: ये मंत्र प्रसंगविरूद्ध प्रक्षेप है।

50वां मंत्र पुन: प्रक्षिप्त है क्योकिँ ये विधिपर्वूक मांसभक्षण की बात करता जबकि 51वेँ मंत्र मे मांस भक्षण से जुड़े हर व्यक्ति को पापी कहते है।

मंत्र 52 से 56 तक सभी प्रक्षिप्त है क्योँकि 52वां मंत्र विधिपूर्वक मांसभक्षण का विधायक है तो 56 वां सर्व प्रकार के मांसभक्षण का, जबकि मनु(5/51) मे मांसाहारी तो क्या उसमें सहयोगी को भी दोषी बतातेँ हैँ।

अब आगे इस अध्याय मे मंत्र 57 से 110 तक गृहस्थान्तर्गत देहशुद्धि विषय का वर्णन है। यहां मंत्र 58 से 104 तक प्रक्षिप्त है पुन: 108 भी शैलीविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है।

मंत्र 111 से 146 तक द्रव्य शुद्धि विषय मंत्र 113 वा 125वाँ प्रक्षिप्त है, फिर 127 से 145 तक सभी प्रक्षिप्त है। मंत्र 147 से 166 तक गृहस्थान्तर्गत पत्नीधर्म विषय मंत्र 147-148 प्रक्षिप्त है, फिर मंत्र 153 से 162 तक सभी प्रक्षिप्त है, मंत्र 164, 166 वा 168वां फिर प्रक्षिप्त हैँ।

पञ्चम अध्याय की समीक्षा- मित्रो, आश्चर्य की बात तो यह है कि मांसभक्षण कि सिद्धि के लिए प्रक्षेप करने वालोँ व्यक्तियोँ ने ऐसी अन्धता से प्रक्षेप किये हैँ कि उन्हे अपने पूर्वापर मत्रोँ का भी ध्यान नही रहा है, जिसके मन मे जैसा श्लोक आया बनाकर डाल दिया। मांसभक्षण की सिद्धि के लिए परलोक, पुण्य, यज्ञ, वेद, प्राचीन ऋषि सबकी आड़ ली। और अपनी बातोँ की सिद्धि के लिए जो युक्तियाँ दी है वे अत्यन्त छिछली, हास्यास्पद और स्वार्थपूर्ण है, जैसे यज्ञ के लिए मांस खाने वाले देवता है और शरीर के लिए खाने वाले राक्षस है। क्या अन्तर किया देवता और राक्षस का?

और प्रक्षेपोँ मे बच्चो जैसी बातेँ है जैसे 5/14,15 मे मछली खाना पूर्णत: निषिद्ध है तो 16वेँ में निमन्त्रण मेँ मछली खा लेने का विधान है।

मनु हर प्रकार से हिँसा के विरूद्ध है और कहते है कि दैनिक जीवनयापन के लिये उन कार्यो का चयन करे जिनमे हिँसा न हो(4/2)

मनु कहते है कि पशुओँ को चाबुक भी इस प्रकार मारोँ कि वो सन्तप्त न हो(4/68)

भला क्या ऐसे धर्मात्मा मांसभक्षण की आज्ञा दे सकतेँ है??

सोमवार, 6 मई 2013

विचार-- --नियति (सूक्ति)

अपने विचारों पर ध्यान दो, वे शब्द बन जाते हैं। अपने शब्दों पर ध्यान दो, वे क्रिया बन जाते हैं। अपनी क्रियाओं पर ध्यान दो, वे आदत बन जाती हैं। अपनी आदतों पर ध्यान दो, वे तुम्हारा चरित्र बनाती हैं। अपने चरित्र पर ध्यान दो, वह तुम्हारी नियति का निर्माण करता है। 

 --लाओ-त्जु

विचार से कर्म की उत्पत्ति होती है, कर्म से आदत की उत्पत्ति होती है, आदत से चरित्र की उत्पत्ति होती है और चरित्र से आपके प्रारब्ध की उत्पत्ति होती है। 
-- बौद्ध कहावत 

कर्म को बोओ और आदत की फसल काटो। आदत को बोओ और चरित्र की फसल काटो। चरित्र को बोकर भाग्य की फसल काटो। 
-- बोर्डमैन

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

दया

'दया' पर महापुरूषों के विचार ......

(1) दयालु चेहरा सदैव सुंदर होता है।     - बेली

(2) मुझे दया के लिए भेजा है, शाप देने के लिए नहीं।      - हजरत मोहम्मद

(3) जो सचमुच दयालु है, वही सचमुच बुद्धिमान है, और जो दूसरों से प्रेम नहीं करता उस पर ईश्वर की कृपा नहीं होती।      - होम

(4) दया के छोटे-छोटे से कार्य, प्रेम के जरा-जरा से शब्द हमारी पृथ्वी को स्वर्गोपम बना देते हैं।     - जूलिया कार्नी

(5) न्याय करना ईश्वर का काम है, आदमी का काम तो दया करना है।      - फ्रांसिस

(6) दयालुता हमें ईश्वर तुल्य बनती है।     - क्लाडियन

(7) दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है।     - प्रेमचंद

(8) दया सबसे बड़ा धर्म है।     - महाभारत

(9) दया दो तरफी कृपा है। इसकी कृपा दाता पर भी होती है और पात्र पर भी।     - शेक्सपियर

(10) जो असहायों पर दया नहीं करता, उसे शक्तिशालियों के अत्याचार सहने पड़ते हैं।     - शेख सादी

(11) दयालुता दयालुता को जन्म देती है।     - सोफोक्लीज

(12) दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण।     - तुलसीदास

(13) जिसमे दया नहीं उसमे कोई सद्गुण नहीं।     - हजरत मोहम्मद

(14) दया और सत्यता परस्पर मिलते हैं, धर्म और शांति एक दुसरे का साथ देतें हैं     - बाइबिल

(15) हम सभी ईश्वर से दया कि प्रार्थना करते हैं और वही प्रार्थना हमे दूसरों पर दया करना सिखाती है।     - शेक्सपियर

(16) दया चरित्र को सुन्दर बनती है।     - जेम्स एलन

(17) आत्मा के आनंद रूपी सामंजस्य का बाहरी रूप दया है।     - विलियम हैज़लित

(18) सबपर दया करनी चाहिए क्योंकि ऐसा कोई नहीं है जिसने कभी अपराध नहीं किया हो।     - रामायण

(19) कितने देव, कितने धर्म, कितने पंथ चल पड़े पर इस शोकग्रस्त संसार को केवल दयावानों कि आवश्यकता है।     - विलकास्य

(20) न्याय का मोती दया के ह्रदय में मिलता है।     - जर्मन कहावत

(21) जो गरीबों पर दया करता है वह अपने कार्य से ईश्वर को ऋणी बनाता है।     - बाइबिल

(22) समस्त हिंसा, द्वेष, बैर और विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शान्त हो जाती हैं।     - अज्ञात

(23) दया का दान लड़खड़ाते पैरों में नई शक्ति देना, निराश हृदय में जागृति की नई प्रेरणा फूँकना, गिरे हुए को उठने का सामर्थ्य प्रदान करना एवं अंधकार में भटके हुए को प्रकाश देना है।     - अज्ञात

(24) वह सत्य नहीं जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिसमें मनुष्य का हित होता हो, वही सत्य है।     - अज्ञात

(25) शांति से बढकर कोई तप नहीं, संतोष से बढकर कोई सुख नहीं, तृष्णा से बढकर कोई व्याधि नहीं और दया के सामान कोई धर्म नहीं।     - चाणक्य

(26) दुनिया का अस्तित्व शस्त्रबल पर नहीं, सत्य, दया और आत्मबल पर है।     - महात्मा गांधी

(27) आलसी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु ज्ञानी नहीं हो सकता, ममत्व रखनेवाला वैराग्यवान नहीं हो सकता और हिंसक दयालु नहीं हो सकता।     - भगवान महावीर

(28) श्रेष्ठ वही है जिसके हृदय में दया व धर्म बसते हैं, जो अमृतवाणी बोलते हैं और जिनके नेत्र विनय से झुके होते हैं।    - संत मलूकदास

(29) हममें दया, प्रेम, त्याग ये सब प्रवृत्तियां मौजूद हैं। इन प्रवृत्तियों को विकसित करके अपने सत्य को और मानवता के सत्य को एकरूप कर देना, यही अहिंसा है।     - भगवतीचरण वर्मा

(30) जिसमें दया नहीं है, वह तो जीते जी ही मुर्दे के समान है। दूसरे का भला करने से ही अपना भला होता है।     -अज्ञात

(31) दुनिया का अस्तित्व शस्त्रबल पर नहीं, बल्कि सत्य, दया और आत्मबल पर है।     - महात्मा गांधी

(32) प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उससे प्यार करता है।     - महात्मा गांधी

(34) सज्जनों का लक्षण यह है कि वे सदा दया करने वाले और करुणाशील होते हैं।     - विनोबा भावे

(35) श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति।     - रामचन्द्र शुक्ल

(36) जिनका मन कपटरहित है, वे ही प्राणिमात्र पर दया करते हैं।     - क्षेमेंद्र

(37) क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो।     - दयानंद सरस्वती

(38) शांति, क्षमा, दान और दया का आश्रय लेने वाले लोगों के लिए शील ही विशाल कुल है, ऐसा विद्वानों का मत है।     - क्षेमेंद्र

गुरुवार, 14 मार्च 2013

निरामिष परिचय

निरामिष शब्दार्थ व भावार्थ:-

निरामिष : मांसरहित (fleshless)

निरामिष आहार : ऐसा खाद्य पदार्थ या भोजन जिसमें आमिष अर्थात् मांस या सामिष अर्थात् मांस के अंश या मांस स्वरूप अंडा या मछली न मिला हो।

निरामिष व्यक्ति : जो मांस, अंडा, मछली आदि न खाता हो।

अर्थात्, निरामिष आहार एक ऐसा शाकाहार है जिसमें दुग्ध पदार्थ सम्मलित है। शाकाहार के आधुनिक श्रेणी में हम निरामिष आहार को लैक्टो-शाकाहार ( lacto-vegetarian ) कह सकते है। परम्परागत भारतीय संदर्भ में शुद्ध शाकाहार या सात्विक आहार का आशय “निरामिष” आहार से ही है। अर्थात वह आहार जिसमें किसी भी प्रकार के मांस या मांस-व्युत्पन्न पदार्थ, अंडा मछली आदि उत्पाद शामिल न हो।

प्रारंभिक काल से ही निरामिष आहार घनिष्ठ रूप से प्राणियों के प्रति अहिंसा व अनुकम्पा से जुड़ा हुआ है। अहिंसा के जीवन मूल्यों में प्रत्येक जीवन के प्रति आदर व्यक्त हुआ है। अहिंसा में दया का सद्भाव है, जो प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।

जीवदया का मार्ग निरामिष आहार से प्रशस्त होता है। मनुष्य के हृदय में तब तक अहिंसा भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों की हत्या कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। जब मात्र स्वाद और पेट्पूर्ती के लिए मांसाहार का चुनाव किया जाता है तो मांसाहार के उद्देश्य से प्राणी हत्या, मानस में क्रूर भाव का आरोपण करती है जो निश्चित ही हिंसक मनोवृति के लिए जवाबदार है। मांसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ व निर्दयता की भावनाओं का पनपना आज विश्व में बढ़ती हिंसा, घृणा व अपराधों का मुख्य कारण है। जीवदया और करूणा भाव हमारे मन में कोमल सम्वेदनाओं को स्थापित करते है। यही सम्वेदनाएं हमें मानव से मानव के प्रति भी सम्वेदनशील बनाए रखती है। शाकाहार मानवीय जीवन-मूल्यों का संरक्षक है। आज संसार में यदि शान्ति लक्षित है तो समस्त मानव समाज को निरामिष आहार अपना लेना चाहिए। क्योँकि अहिंसा ही शान्ति और सुख का अमोघ उपाय है।

मांसाहार में कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। हर भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा की सम्वेदनाओं को निष्ठुर बना देता है। हिंसक दृश्य, निष्ठुर सोच और परपीड़ा को सहज मानने की मानसिकता, हमारी मनोवृति पर दुष्प्रभाव डालती है। भले यह मात्र सम्भावनाएँ हो, इन सम्भावनाओं देखते हुए,  सावधानी जरूरी है कि घटित होने के पूर्व ही सम्भावनाओं पर ही लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है। हिंसा के प्रति जगुप्सा के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती।


“निरामिष” ब्लॉग, शाकाहार के प्रसार, प्रचार और जागृति को समर्पित एक सामुदयिक ब्लॉग है। “निरामिष”, स्वस्थ समाज निर्माण के उद्देश्य के प्रति निष्ठावान है। "निरोगी काया, निर्विकार मन, निरामय समाज।" हमारा नीति – वाक्य है। 'निरामिष ब्लॉग', तथ्यनिष्ठ, प्रमाणिक और विश्वसनीय जानकारी प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है।

बुधवार, 6 मार्च 2013

मैं शाकाहार क्यों अपनाऊँ ? जब कि मैं हमेशा से मांसाहार लेता रहा हूँ और मुझे वह पसंद भी है?

जब हम शाकाहार का प्रसार करने के प्रयास करते हैं तब अक्सर यह दो प्रश्न उठते हैं :

१. आप शाकाहारी हैं - यह आपका निजी निर्णय हैं । लेकिन मेरा भोजन मेरा निर्णय है । मैं मेरे भोजन को आपकी विचारधारा के अनुरूप क्यों बदलूँ ?

२. मैं आपसे तो आपका भोजन बदलने को नहीं कह रहा / रही । फिर आप मेरे भोजन के पीछे क्यों हाथ धोकर पड़े हुए हैं ?  
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कुछ उत्तरों पर नज़र डालते हैं : ४ कारण 

1. हम लोग "आपके जीवन / आपकी विचारधारा / आपका भोजन" बदलने के प्रयास नहीं कर रहे । 

नहीं । 
हम बदलने का प्रयास कर रहे हैं उन करोड़ों निरीह प्राणियों का जीवन , जो आपके १५ मिनट के "भोजन" के लिए बरसों का दर्दभरा जीवन / दर्द / भय / यातना / लगातार / व्यग्रता / चिंता में जीते हैं - २- ३ साल का नर्क - सिर्फ १० मिनट आपके भोजन के थाली की सज्जा बढाने को  | २ -३ साल का नर्क (और भयानक ह्त्या के रूप में मृत्यु ) - सिर्फ १० - १५ मिनट के भोजन के लिए ? आपको यह उचित लगता है स्वाद / स्वंतत्र विचारधारा / निजी निर्णय के नाम पर ? 

2. फेक्टरी फ़ार्म पर जीवन भयावह है । 

सोच कर देखिये - क्या आप और हम सारी उम्र ( नवजात प्राणी के जन्म से २-३ वर्ष का समय ) १.५' वर्ग जमीन पर खड़े हुए अपना जीवन बिता सकते हैं ? क्योंकि हम इंसान इतनी जगह में खड़े रह सकते हैं न ? अवश्य रह सकते हैं । 

लेकिन क्या सारी उम्र खड़े रह सकते हैं ? क्या कहा ? नहीं ? क्यों नहीं???? - क्योंकि हम मानव हैं - थक जाते हैं - हमें आराम चाहिए ?

लेकिन मनुष्य होने का अर्थ मनुष्यता भी होता है न ?- तो मनुष्यता यह नहीं है कि  अपने भोजन के लिए दुसरे जीव को ऐसा जीवन जीने पर मजबूर किया जाए । ऐसे ही लगातार , सारी उम्र , बिना आराम या जगह के , खड़े रहने पर मजबूर किया  जाए ।  

लेकिन आपके भोजन की थाली में परोसा गया मुर्गा  ऐसे ही खडा रहा है अपनी सारी उम्र - क्योंकि फेक्टरी फ़ार्म कमाई के लिए होते हैं - जानवरों को काटने के लिए पाला जा रहा है उनके ऐशो आराम के लिए नहीं । तो उतनी जगह में जितने अधिक प्राणी रहे , उतना लाभ । बेचारे प्राणी ऐसे ही रहते हैं  वहां । सारी उम्र ऐसे ही ...... जन्म से मृत्यु (ह्त्या) तक ....

कुछ चित्र देखिये :

 







pigs factory farm
                                                                              Cows 

यदि हम खुद 24x7x365 खड़े नहीं रह सकते लेकिन चाहते हैं कि हमारे भोजन के लिए मूक प्राणी ऐसा जीवन जियें , तो क्या हमें खुद को मनुष्य कहने का अधिकार है ?

सूअर,गायें,मछलियाँ, मुर्गियां आदि , जो प्राणी खाए जा रहे हैं , भी सोचने समझने वाले जीव हैं - जो आपकी और हमारी ही तरह भय और दर्द महसूस कर सकते हैं - लगातार भय , लगातार दर्द - पूरे पूरे जीवन :( :(  यदि आप कहते हैं कि  आप फेक्टरी फ़ार्म का मांस नहीं  लेते , तो बताइये कि इतना मांस कहाँ से आता है जो इतने मांसाहारियों को भोजन के लिए पर्याप्त हो ? पता कीजिये - आपके फेवरेट रेस्तराओं में कहाँ से मांस सप्लाय हो रहा है ? 

कृपया जानिये (और याद रखिये ) एक वर्ष में 25,00,00,00,000 से अधिक पशुओं की क्रूर ह्त्या होती है , मानव भोजन के लिए  :(

3. क्रूरता :
जी - हाँ मानती हूँ कि हम में से अधिकाँश लोग पशुओं के प्रति क्रूर नहीं हैं  । हम सड़क चलते बिल्लियों पर, कुत्तों को, पत्थर नहीं मारते । अपने बच्चों को भी मना करते हैं कि ऐसा करना गलत है , उन्हें दर्द होगा । यदि कोई ऐसा करता दिखे तो हमें क्रोध भी आता है । 

फिर फेक्टरी फ़ार्म के पशु इस से अलग किस तरह हैं ? क्या उन्हें भी इस सहानुभूतिपूर्ण रवैये का अधिकार नहीं है ? 

a. 
मुझे इंजेक्शन लगवाना पसंद नहीं । वह भी ऐसे इंजेक्शन जो मेरी सेहत के लिए (अच्छे नहीं हो कर) बुरे हैं । 

लेकिन फेक्टरी फार्मों के पशुओं को हर हफ्ते ग्रोथ हारमोंस के इंजेक्शन दिए जाते हैं - वे कुछ नहीं कर सकते  । यह उन्हें उम्र से जल्दी बड़ा और मोटा करने को दिए जा रहे हैं - क्योंकि ज्यादा मांस अर्थात ज्यादा  पैसा । उन्हे अपने बढ़ते शरीर का बोझ उठाने के लिए हड्डियों के लिए केल्शियम चाहिए - लेकिन कीमत तो हड्डियों की नहीं -  मांस की मिलती है - तो उन्हें केल्श्यम युक्त भोजन नहीं  दिया जाता । कम्जोर (बच्चे) शरीर की हड्डियाँ और परिपक्व से भी बड़े शरीर का भार , और २४ घंटे खड़े रहना ।  ऐसा जैसे एक १ वर्ष का मानव बालक , २ साल तक लगातार , अपने पिता को गोद में उठा कर खडा हो - बिना बैठे , बिना आराम किये -- सोचिये ज़रा । 

उनके पैर सूजे रहते हैं और भयावह रूप से दर्द करते हैं । कई पशु चल भी नहीं पाते और भोजन तक नहीं पहुँच पाने से भीड़ में गिर कर /  भूख से / दब कर .... मर जाते हैं  । उनकी मृत देह वहीँ सडती रहती है और दुसरे पशु उसी सडती हुई देह से सटे खड़े रहने को मजबूर हैं | 

b.
मैं अपने ही मल मूत्र से घिरा सना नहीं जीना चाहूंगा  । किन्तु फेक्टरी फ़ार्म की जीवों के पास कोई चोइस नहीं है :( .. उनके आराम की किसे  फ़िक्र है? वे तो काटे जाने के लिए जी रहे हैं :(

c. 
मैं नहीं चाहूंगी एक लाइन में खड़ी आगे बढती रहूँ जिसमे बारी आने पर आगे वाले को दर्दनाक रूप से काट कर मार दिया जा रहा है ।  लेकिन काटने का समय आने पर इनमे से हर प्राणी ऐसे ही अपनी बारी का इंतज़ार करता है I शायद ऐसी लाइन में खडी रहने पर मैं तो अपनी बारी से पहले ही डर के मारे दिल के दौरे से मर जाऊंगी । :( । लेकिन इसी भयग्रस्त मनःस्थिति में करीब आधे घंटे खड़े आगे धकेली जाते पशु को काटा जा रहा है - और उसके शरीर में भय से होने वाले स्राव अपनी चरम सीमा पर हैं - और वे सब भयग्रस्त स्राव आपकी प्लेट में रखे भोजन में हैं । 

d.
मैं नहीं चाहूंगी कि कोई मुझे जबरदस्ती छुए /  धकेले / फेंके / बांधे / उलटा लटका कर गला रेंत कर तड़पते हुए मरने के लिए खून बहने को छोड़ दे ...आदि I पर यही होता है उन प्राणियों के साथ । उनमे से हर एक के साथ - जो आपकी थाली में परोसा जाता है ...... और आगे लाइन में अपनी अबरी का इंतज़ार कर रहा पशु यह सब देख रहा होता है - भय से तड़पता रहता है - पर क्या करे ? 

e. 
ये फ़ार्म इतने गंदे हैं, इतने कीटाणुओं से भरे , कि सारे जानवर काटने से पहले ही इन्फेक्शन से मर  जाएँ । मल मूत्र, मरे हुए प्राणियों का सड़ता शरीर आदि के कारण । लेकिन उनके ऐसे ही मर जाने से नुक्सान होगा न ? इन्हें जीवित कैसे रखा जाए ? ...... 

उन्हें बड़ी भारी मात्रा में एंटीबायोटिक इंजेक्शन दिए जाते हैं  ।कहने की ज़रुरत ही नहीं की यही एंटीबायोटिक आपके भोजन के साथ आपके शरीर में पहुँच रहे हैं । 

f.
गायों के भोजन की घास में (गाय शाकाहारी है) में मरी हुई गायों की हड्डियां पीस कर मिलाई जाती हैं - दूध बढाने के लिए  । ऐसे ही - रोज अंडे देने के लिए मुर्गियों को तेज़ प्रकाश में रखा जाता है जिससे वे सोये नहीं और रोज़ अंडे दें । 

4. पर्यावरण  

a. जितने समय में , जितनी भूमि में . 20,000 पाउंड आलू उगाये जा सकते हैं, उतनी ही भूमि में उतने ही समय में एक गाय का १ पाउंड मांस तैयार होता है  । भुखमरी से होने वाली कितनी मानव मौतें इससे बच सकती थीं ?

b.
रेंन फोरेस्ट्स काटे जाते हैं मांस के लिए पाले जा रहे पशुओं की चारागाह बनाने के लिए । 257 hamburgers के बनने योग्य मांस के लिए, एक पल में, एक फुटबाल मैदान जितना रेंन फोरेस्ट काटा जा रहा है ।

c.
: प्रदूशण : फेक्टरी फार्मों पर हर्बिसाइड और पेस्टिसाईड का छिडकाव होता है - जो मिटटी को खराब करता है, और नदियों में प्रवेश कर लोगों के पीने के पानी को खराब करता है । इससे केंसर आदि बढ़ रहा है । इसके अलावा सिंथेटिक एन्हान्सर्स जो पशुओं को दिए जाते हैं - उनके कारण भी भयानक केमिकल प्रदूषण फैलता है  | 

d. 
एक कार एक दिन में ३ किलो कार्बन डाई ऑक्साइड बनाती है  । और रेंन फोरेस्ट को काटने में जो मशीन चलती हैं - वे एक दिन में ७५ किलो कार्बन डाई ऑक्साइड बनाती है  । अर्थात  एक हैमबर्गर के लिए 75 किलो कार्बन दाई ऑक्साइड । 

एक पाउंड हैमबर्गर खाना उतना ही प्रदूषण कर रहा है जितना अपनी कार को ३ हफ्ते तक  चलाना ।सोचिये । 
e.
ऊर्जा बहुत लगती है : 5000 गैलन पानी एक पाउंड बीफ के लिए व्यय होता है । 

यह सब पढने के बाद एक बार खुले मन से - सोचिये निरामिष भोजन या सामिष ?

आपका आभार .....

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

जीवदया का अनुरोध - पाकिस्तान में


जहाँ मानवता है वहाँ करुणा, दया और पशुप्रेम की बात होना स्वाभाविक ही है। कभी भारत का अंग रहा पाकिस्तानी भूभाग भले ही अधिकांशतया हिंसक घटनाओं के लिए खबरों में रहता हो, समय के साथ वहाँ भी कुछ सुखद परिवर्तन आ रहे हैं। मुल्तान स्थित "पाकिस्तान पशु रक्षा आंदोलन" इसी प्रकार का सुधार आंदोलन है जो देश भर में प्रेम और दया बढ़ाने को प्रयासरत है। इसी आंदोलन के अध्यक्ष श्री खालिद मुहम्मद कुरैशी की एक अपील का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है।
हम परोपकार चाहते हैं, प्रेम चाहते हैं, तो हमें उसे अपने कर्म में अपनाना पड़ेगा। हम एक दूसरे से प्रेम करें, और एक दूसरे के प्रति, सबके प्रति परोपकार अपनाएं. पशुओं और मानवमात्र के प्रति हिंसा करने का अर्थ तो यही निकलता है कि हमें प्रेम और अनुकंपा नहीं चाहिए, शांति नहीं चाहिए। प्रकृति का नियम है कि यदि हम हत्या करते हैं, यदि हम अन्य जीवों के प्रति हिंसा करते हैं तो हम अपनी आत्मिक श्रेष्ठता नष्ट कराते हैं। हम जितना अधिक जीव-भक्षण करते हैं, अपनी आत्मिक श्रेष्ठता में उतने ही निर्धन होते जाते हैं, हमारा आत्म-बल नष्ट होता जाता है। और जब हमारा आत्म-बल चुकने लगता है, तो उसका मूल्य हम अपने और अपने परिवारजनों के स्वास्थ्य, मानसिक शांति और भाग्य से चुकाते हैं। बात यहीं नहीं रुकती, अपनी और परिजनों की मानसिक शांति चुकने के बाद पहले हमारे परिवेश की और फिर संसार की शांति को खतरा उत्पन्न होता है। खाने के नाम पर पशु हत्या करने पर हम मानो धरती की ही हत्या करते हैं, और इस तरह एक प्रकार से हम हत्यारे बनते हैं। हत्यारे नहीं, नायक बनिए। भक्षक नहीं, रक्षक बनिए। धरती ग्रह की रक्षा कीजिये। पशु हत्या और पशु भक्षण के क्रूरकर्म में भागीदार न बनें ...

खालिद मुहम्मद कुरैशी.
अध्यक्ष,
पाकिस्तान पशुरक्षा आन्दोलन
1094/2 हुसैन अगाही, मुल्तान-60000
दूरभाष +92 300 7368557

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

शाकाहार (निरामिष) ही क्यों ?


शान्ति का समुचित उपाय,  अहिंसा

सम्पूर्ण जगत में प्रत्येक जीव के लिए सुख का आधार शान्ति ही है। शान्ति का लक्ष्य अहिंसा से ही सिद्ध किया जा सकता है। संसार में आहार पूर्ती के लिए सर्वाधिक हिंसा होती है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से ही प्रशस्त होता है। सुक्ष्म हिंसा तो कईं सजीव पदार्थों में भी सम्भव है, किन्तु शाकाहार, अपरिहार्य हिंसा का भी अल्पीकरण है जो अपने आप में अहिंसाभाव है। जबकि जो लोग मात्र स्वाद और पेटपूर्ती के स्वार्थवश, दूसरे जीवों को पीड़ा देकर किंचित भी आहत नहीं होते। जो निसंकोच हिंसा और मांसाहार करते है, वे हिंसा और निर्दयता को महज साधारण भाव से ग्रहण करने लगते है। फिर भी मन की सोच पर आहार का स्रोत हावी ही रहता है,यदि वह स्रोत क्रूरता प्रेरित है तो उसका चिंतन हमारी सम्वेदनाओं का क्षय कर देता है। हमारी कोमल भावनाओं को निष्ठुर बना देता है। अन्ततः इस अनैतिक कार्य के प्रति एक सहज वृति  पनपती है। मांसाहार के लिए प्राणहरण, मानस में क्रूर भाव का आरोपण करता है जो हिंसक मनोवृति के लिए जवाबदार है। मांसाहार द्वारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ व निर्दयता की भावनाओं का पनपना आज विश्व में बढ़ती हिंसा, घृणा व अपराधों का मुख्य कारण है। पृथ्वी पर शान्ति, शाकाहार से ही सम्भव है। जीवदया और करूणा भाव हमारे मन में कोमल सम्वेदनाओं को स्थापित करते है। यही सम्वेदनाएं हमें मानव से मानव के प्रति भी सम्वेदनशील बनाए रखती है। शाकाहार मानवीय जीवन-मूल्यों का संरक्षक है। इसलिए अहिंसा ही शान्ति और सुख का अमोघ उपाय है।  

धर्म-दर्शन अभिप्रायः

लगभग सभी धार्मिक सामाजिक परम्पराओं में 'जीवन' के प्रति आदर व्यक्त हुआ है, परंतु "अहिंसा परमो धर्मः" या “दया धर्म का मूल है” का सिद्धांत भारतीय संस्कृति की एकमेव विलक्षण विशेषता है। चाहे कोई भी धर्मग्रंथ हो, हिंसा के विधान किसी भी अपौरूषेय वाणी में नहीं है। आर्षवचन के भव्य प्रासाद, सदैव ही अहिंसा, करुणा, वात्सल्य और नैतिक जीवन मूल्यों की ठोस आधारशीला पर रखे जाते हैं। सारे ही उपदेश जीवन को अहिंसक बनाने के लिए ही गुंथित है और अहिंसक मनोवृति का प्राथमिक कदम शाकाहार है।  

सभ्यता और संस्कृति

शाकाहार की प्रसंशा करना शुद्धता या पवित्रता का दंभ नहीं है। शाकाहार अपने आप में स्वच्छ और सात्विक है। इसलिये शुद्धता और पवित्रता सहज अभिव्यक्त होती है। आहार की शुचिता भारतीय संस्कृति एवं चेतना के समस्त प्रवाहों का केन्द्र रही है जो शाकाहार को मात्र भोजन के आयाम पर अभिकेन्द्रित नहीं करती, वरन् इसे समस्त दर्शन और सहजीवन के सौहार्द से सज्जित, जीवन-पद्धति के रूप में आख्यादित करती है। शाकाहार, क्रूरता विहीन जीवन संस्कृति की बुनियाद है, जिसमें सह अस्तित्व के प्रति अनुकम्पा, वात्सल्य, और करूणा के स्वर अनुगुन्जित होते है। भले ही मानव अभक्ष्य आहार की आदत डाल ले अभ्यास से आदतें बनना सम्भव है पर मानव शरीर की प्रकृति शाकाहार के ही अनुकूल है। यदपि मनुष्य अपनी उत्पत्ती से  शाकाहारी ही रहा है, प्रागैतिहासिक मानव शाकाहार करता था यह प्रमाणित है। तथापि सभ्यता की मांग होती है जंगली जीवन से सुसभ्य जीवन की ओर उत्थान करना, विकृत आहार त्याग कर सुसंस्कृत आहारी बनना। शाकाहार, आदिमयुग से सभ्यता की विकासगामी धरोहर है। यह मानवीय जीवन-मूल्यों का प्रेरकबल है। सभ्यता, निसंदेह शान्ति की वाहक होती है। शाकाहार शैली सुसभ्य संस्कृति है।

 प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण

यदि सभ्यता विकास और शान्त सुखप्रद जीवन ही मानव का लक्ष्य है तो उसे शाकाहार के स्वरूप में प्रकृति के संसाधनों का कुशल प्रबंध करना ही होगा। वन सम्पदा में पशु-पक्षी आदि, प्राकृतिक सन्तुलन के अभिन्न अंग होते है। प्रकृति की एक समग्र जैव व्यवस्था होती है। उसमें मानव का स्वार्थपूर्ण दखल पूरी व्यवस्था को विचलित कर देता है। मनुष्य को कोई अधिकार नहीं प्रकृति की उस नियोजित व्यवस्था को अपने स्वाद, सुविधा और सुन्दरता के लिए खण्डित कर दे। मानव के पास ही वह बुद्धिमत्ता है कि वह उपलब्ध संसाधनो का सर्वोत्तम प्रबंध करे। अर्थार्त कम से कम संसाधन खर्च कर अधिक से अधिक उसका लाभ प्राप्त करे। जीवहिंसा से पर्यावरण संतुलन विखंडित होता है, जो प्राकृतिक आपदाओ का प्रेरकबल बनता है। शाकारहार अपने आप में सृष्टि का मितव्ययी उपभोग है, प्राकृतिक संसाधनो के संरक्षण में प्रथम योगदान है।सृष्टि के प्रति हमारा सहजीवन उत्तरदायित्व है कि वह जीवों का विनाश न करे यह प्रकृति की बहुमूल्य निधि है। जीवराशी का यथोचित संरक्षण शाकाहार से ही सम्भव है, प्राकृतिक संसाधनो का संयमपूर्वक उपभोग अर्थात् शाकाहार। धरा की पर्यावरण सुरक्षा शाकाहार में आश्रित है। वैश्विक भूखमरी का निदान भी शाकाहार है। वैश्विक खाद्य समस्या का सर्वोत्तम विकल्प शाकाहार है। यह तो मज़ाक ही है कि शाकाहार से अभावग्रस्त, दुरूह क्षेत्र की आहार शैली का सम्पन्न क्षेत्र में भी अनुकरण किया जाय। अधिसंख्यजन यदि इसके आदी है तो उनका अनुकरण किया जाय। यह न्यायोचित विवेक नहीं है। अपरिहार्य सुक्ष्म हिंसा में भी विवेक जरूरी है। विश्व स्वास्थ्य भी शाकाहार में निहित है। कुल मिलाकर पर्यावरण का अचुक उपचार एकमात्र शाकाहार शैली को अपनाना है।  

संतुलित पोषण आधार

आधुनिकता की होड़ में, हमारी संस्कृति, हमारे आचार- विचार आदि  को दकियानूसी कहने वाले, इस झूठी घारणा के शिकार हो रहे है कि शाकाहारी भोजन से उचित मात्रा में प्रोटीन और पोषक तत्व प्राप्त नहीं होते। जबकि आधुनिक विशेषज्ञों और शरीर वैज्ञानिकों की शोध से यह भलीभांति प्रमाणित है कि शाकाहारी आहार में न केवल उच्च कोटि के प्रोटीन होते है, अपितु सभी आवश्यक पोषक तत्व जैसे- विटामिन्स, वसा और कैलॉरी पूर्ण संतुलित,  गुणवत्ता युक्त, सपरिमाण मात्रा में प्राप्त होते है। विशेषतया खनिज तो शाकाहारी पदार्थों में पर्याप्त मात्रा में  उपलब्ध होते ही है। उससे बढ़कर, आन्तरिक शरीर को 'निर्मल' और 'निरोग' रखनें में सहायक निरामय ‘रेशे’ (फ़ाइबर्स) तो मात्र, शाकाहार से ही प्राप्त किए जा सकते है। शाकाहार संतुलित पोषण का मुख्य स्रोत है, शाकाहार से प्रथम श्रेणी की प्राथमिक उर्जा प्राप्त की जाती है। शाकाहार, उर्ज़ा और शारिरिक प्रतिरक्षा प्रणाली  का प्रमुख आधार है।  

आरोग्य वर्धक

शाकाहार में  आहार-रेशे पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते है। आहार-रेशों की विध्यमानता से पाचन तंत्र की कार्य-प्रणाली सुचारू संचालित होती है। निरामिष भोजन में न हानिकर कोलेस्ट्रॉल की अति होती है न प्राणीजन्य प्रोटीन का संकलन। परिणाम स्वरूप  व्यक्ति, मनोभ्रंश (अल्जाइमर), गॉल्ब्लैडर की पथरी (गॉलस्टॉन), मधुमेह (डायबिटीज टाइप-2) , अस्थि-सुषिरता (ऑस्टियोपोरोसिस), संधिवात (आस्टियो आर्थराइटिस), उदर समस्या (लीवर प्रॉबलम), गुर्दे की समस्या (किड़नी प्रॉबलम), मोटापा, ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप, दंतक्षय (डेन्टल कैवेटिज), आंतो का केन्सर, कब्ज कोलाइटिस, बवासीर जैसी बिमारियों से काफी हद तक बचा रहता है। इस दृष्टि से शाकाहार पूर्णतःआरोग्यप्रद है। विश्व स्वास्थ्य समस्यांए शाकाहार से समाधान पा सकती है। शाकाहारी पदार्थों में वे तत्व बहुलता से पाए जाते हैं जो हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करते है।
मानव कल्याण भावना से सादर

रविवार, 6 जनवरी 2013

भारतीय धर्म-दर्शन संस्कृति और हिंसा?

भारतीय सनातन संस्कृति में हिंसा व माँसभक्षण की न तो कोई आज्ञा है और न कोई अनुमति। यह बात अलग है कि कभी क्षेत्र के कारण तो कभी अज्ञानता में या कभी देखा देखी जन साधारण में इस कुरीति का अस्तित्व रहा है। किन्तु आर्ष ग्रंथों में या उपदेशों में किंचित भी पशु-हिंसा का अनुमोदन या मांसभक्षण की अनुज्ञा, अनुमति का कोई अस्तित्व नहीं है। भारतीय संस्कृति अहिंसा प्रधान संस्कृति है।

सनातन संस्कृति के वेदों से ही अहिंसा की अजस्र धारा प्रवाहित रही है। 

वैसे तो सभी धर्म जीवों के प्रति करूणा को महत्व देते है। 

किन्तु कईं बाहरी संस्कृतियों में पशु हिंसा की प्रतीकात्मक कुरीतियाँ रूढ़ हो चुकी है। 

जबकि भारतीय संस्कृति के सभी ग्रंथ जीव हत्या को स्पष्ट अधर्म बताते है। 

भारतीय संस्कृति की तो आधारशिला में ही अहिंसा का सद्भाव रहा है।

इसलिए,वैदिक संस्कृति में माँसाहार का स्पष्ट निषेध है।

वस्तुत: वैदिक यज्ञों में पशुबलि---एक भ्रामक दुष्प्रचार है

भला यज्ञ हो तो हिंसा कैसे हो सकती है?

ऋषभक बैल नहीं, ऋषभ कंद है।- ऋषभक का परिचय


इसलिए यदि 'धर्म' के परिपेक्ष्य चिंतन करें तो उसमें हिंसा और हिंसा के प्रोत्साहक माँसाहार का अस्तित्व भला कैसे हो सकता है। पशुहत्या का आधार मानव की कायर मानसिकता है, जब शौर्य व मनोबल क्षीण होता है तो क्रूर-कायर मनुष्य, दुस्साहस व धौंस दर्शाने के लिए पशुहिंसा व मांसाहार का आसरा लेता है। लेकिन पशुहिंसा से क्रूरता व कायरता को कोई आधार नहीं मिलता। निर्बल निरीह पशु पर अत्याचार को भला कौन बहादुरी मानेगा। क्रूरता से कायरता छुपाने के प्रयत्न विफल ही होते है।

शनिवार, 5 जनवरी 2013

शाकाहार या माँसाहार - इस वीडियो को देखने के बाद निर्णय करें.

मेरे एक मित्र श्री गौरव जी गुप्ता ने फेसबुक पर एक वीडियो लिंक शेयर किया है. इसे देखने के बाद स्वयं निर्णय लीजिये कि क्या मांसाहार वाकई उचित है.

जगुप्सा पैदा करने वाले दृश्य है लेकिन विवशता है कि  क्रूरता की हद जाने बिना हम सहजता से अहिंसा के महत्व को भी नहीं जान पाते। आहत-मन से इस वास्तविकता को प्रस्तुत किया जा रहा है।
-निरामिष