मंगलवार, 30 अगस्त 2011

मानव के भोजन का उद्देश्य




भोजन का उद्देश्य मात्र उदरपूर्ति या स्वादतृप्ति ही नहीं है। हम भोजन के लिए नहीं जीते, बल्कि जीवित रहने के लिए हमें भोजन करना पडता है। भोजन का उद्देश्य, शरीर सौष्ठव बनाना मात्र नहीं है। आहार से तो बस हमें जीवन उर्ज़ा मात्र चाहिए। आहार से उर्ज़ा प्राप्त कर, उस शक्ति को मानसिक और चारित्रिक विकास में लगाना हमारा ध्येय है। 

सुविधायुक्त जीना हमारा भ्रांत लक्ष्य है, सुखरूप जीना ही वास्तविक लक्ष्य है। दूसरों को सुखरूप जीने देना हमारे ही सुखों का अर्जन है। सुखरूप जीनें के लिए आचार-विचार उत्तम होने चाहिए। दया, करूणा और सम्वेदनाओं से हृदय भरा होना चाहिए । हमारी सम्वेदनाएं आहार से प्रभावित होती है। मन की सोच पर आहार का स्रोत हावी ही रहता है,यदि वह स्रोत क्रूरता प्रेरित है तो हमारी कोमल भावनाओं को निष्ठुर बना देता है। 

आहार का आचार विचार व व्यवहार से गहरा सम्बंध है। हमारा सम्वेदनशील मन किसी के प्रति, प्रिय अप्रिय भावनाएं पैदा करता है। जिस प्रकार बार बार क्रूर दृश्य देखने मात्र से हमारे करूण भावों में कमी आती है, ठीक उसी प्रकार आहार स्रोत के चिंतन का प्रभाव हमारी सम्वेदनाओं का क्षय कर देता है। अतः भोजन का उद्देश्य, भौतिक ही नहीं मानसिक विकास भी होता है।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

शाकाहार के प्रति वैश्विक आकर्षण

आहार सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व है, जिसका व्यक्तित्व निर्माण से घनिष्ठ सम्बन्ध है. आहार दो प्रकार के है- शाकाहार और मांसाहार. फल, सब्जी, अनाज, बादाम आदि, बीज सहित वनस्पति-आधारित भोजन के प्रयोग को शाकाहार कहते हैं. आजकल शाकाहार का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है, यह परिवर्तन जागरुकता के कारण हो रहे हैं. जैसा आहार लिया जाता है, वैसे ही भाव-विचार और आचार होते हैं.

हमारी पश्चिमी दुनिया के अनुसार मुख्य रूप से चार प्रकार के शाकाहारी होते हैं. एक लैक्टो-शाकाहारी जिनके आहार में दुग्ध उत्पाद शामिल हैं लेकिन मीट, मछली और अंडे नहीं. एक ओवो शाकाहारी जिनके आहार में अंडे शामिल होते हैं लेकिन मगर मीट, मच्छी और दूग्ध-उत्पाद नहीं खाते. और एक ओवो-लैक्टो-शाकाहारी जिनके आहार में अंडे और दुग्ध उत्पाद दोनों शामिल हैं. एक वेगन अर्थात अतिशुद्ध शाकाहारी जो दूध तो क्या शहद भी नहीं खाते. इस के अनुसार भारत में हम हिन्दू जो शाकाहार में विश्वास रखते हैं लैक्टो-शाकाहारी के अन्तरगत आते हैं. क्योंकि हम शहद, दूध और दूध से बने पदार्थों का सेवन करते हैं.

पश्चिमी दुनिया में, 20वीं सदी के दौरान पोषण, नैतिक, और अभी हाल ही में, पर्यावरण और आर्थिक चिंताओं के परिणामस्वरुप शाकाहार की लोकप्रियता बढ़ी. अमेरिकन डाएटिक एसोसिएशन और कनाडा के आहारविदों का कहना है कि जीवन के सभी चरणों में अच्छी तरह से योजनाबद्ध शाकाहारी आहार “स्वास्थ्यप्रद, पर्याप्त पोषक है और कुछ बीमारियों की रोकथाम और इलाज के लिए स्वास्थ्य के फायदे प्रदान करता है”.

मेडिकल साईंस व बडे-बडे डॉक्टर एवं आहार विज्ञानी आज यह मानते हैं कि शाकाहारी आहार में हर प्रकार के तत्व जैसे प्रोटीन, विटामिन, खनिज लवण आदि पायें जाते हैं. शाकाहार में संतृप्त वसा, कोलेस्ट्रॉल और प्राणी प्रोटीन का स्तर कम होता है, और कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, मैग्नीशियम, पोटेशियम और विटामिन सी व ई जैसे एंटीऑक्सीडेंट तथा फाइटोकेमिकल्स का स्तर उच्चतर होता है. एक शाकाहारी को ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह टाइप 2, गुर्दे की बीमारी, अस्थि-सुषिरता (ऑस्टियोपोरोसिस), अल्जाइमर जैसे मनोभ्रंश और अन्य बीमारियां कम हुआ करती हैं. शाकाहारियों को मांसाहारियों कि तुलना में बेहतर मूड का पाया गया और शाकाहार जीवन को दीर्धायु, शुद्ध, बलवान एवं स्वस्थ बनाता है.

मांसाहार का उपभोग पशुओं से मनुष्यों में अनेक रोगों के संक्रमण का कारण हो सकता है. साल्मोनेला के मामले में संक्रमित जानवर और मानव बीमारी के बीच संबंध की जानकारी अच्छी तरह स्थापित हो चुकी है. 1975 में, एक अध्ययन में सुपर मार्केट के गाय के दूध के नमूनों में 75 फीसदी और अंडों के नमूनों में 75 फीसदी ल्यूकेमिया (कैंसर) के वायरस पाए गये. 1985 तक, जांच किये गये अंडों का लगभग 100 फीसदी, या जिन मुर्गियों से वे निकले हैं, में कैंसर के वायरस मिले. मुर्गे-मुर्गियों में बीमारी की दर इतनी अधिक है कि श्रम विभाग ने पोल्ट्री उद्योग को सबसे अधिक खतरनाक व्यवसायों में एक घोषित कर दिया. आज भी समय समय पर ऐसे रोगों की पुष्टि होती है जिनकी वजह मांसाहार को माना जाता है.

हिन्दू धर्म के अधिकांश बड़े पंथों ने शाकाहार को एक आदर्श के रूप में संभाले रखा है. इसके मुख्यतः तीन कारण हैं: पशु-प्राणी के साथ अहिंसा का सिद्धांत; आराध्य देव को केवल “शुद्ध” (शाकाहारी) खाद्य प्रस्तुत करने की नीयत और फिर प्रसाद के रूप में उसे वापस प्राप्त करना; और यह विश्वास कि मांसाहारी भोजन मस्तिष्क तथा आध्यात्मिक विकास के लिए हानिकारक है.

अपनी रुचि और आर्थिक स्थिति के अनुसार पदार्थों का चयन कर शाकाहारी भोजन तैयार किया जा सकता है. मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार सस्ता होने के साथ-साथ स्वादिस्ट, रोगप्रतिरोधक तथा शक्तिप्रद भी होता है. फल सब्जियों तथा कुछ विशेष प्रकार के फाइबर अनेक रोगों को दूर करने में अचूक औषधि का काम करते हैं. जब सभी प्रकार के विटामिन्स तथा पौष्टिक तत्त्व शाकाहार से पूर्ण हो सकती है तो क्यों जीवित प्राणियों की हत्या करके मांसाहार की क्या जरूरत है ? प्रकृति ने कितनी चीजें दी हैं जिन्हें खाकर हम स्वस्थ रह सकते है फिर मांस ही क्यों ? अब तय आपको करना है कि शाकाहार बेहतर है या मांसाहार.

ऎसे युवाओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो मांसाहार को किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. शाकाहार एक सर्वोत्तम आहार है जो मानव के अन्दर संतोष, सादगी, सदाचार, स्नेह, सहानुभूति और समरसता जैसे चारित्रिक गुणों का विकास कर सकता है. भरपूर पौष्टिक खाना शरीर को ऊर्जा देता है जो मांस से नहीं मिल सकता. शाकाहारी का मन जितना संवेदनशील होता है. एक संतुलित सामाजिक प्रगति के लिये शाकाहार की अनिवार्यता अपरिहार्य है.

सोमवार, 22 अगस्त 2011

हमारे खान-पान का हमारी संवेदना पर असर होता है

क्या किसी सार्वजनिक यज्ञ में भागीदारों की मनोवृत्ति का यज्ञ के परिणामों पर प्रभाव पड़ता है? यहाँ यज्ञ से मेरा तात्पर्य 'कार्यक्रम' [प्रोग्राम] से है. 

एक सामाजिक संस्था ने पूंजीवादी मानसिकता से शोषित एक बस्ती में 'भय-उन्मूलन' कार्यक्रम किया. बहुत लोग सम्मिलित हुए अर्थात शाकाहारी, मांसाहारी, अल्पाहारी, अत्याहारी, वृतधारी, योगी, भोगी, खाऊ, पेटू, आदि सभी तरह के लोग थे. 

— क्या भरे पेट वाले और और खाली पेट वाले 'भूख' के प्रति एक समान भाव धारण कर सकते हैं? 
— कार्यक्रम के मूल-उद्देश्य के प्रति क्या शाकारियों और मांसाहारियों की संवेदना एक-सी होगी?  
— व्रतधारी, योगी और भोगी व्यक्तियों का प्रयास पूरी ईमानदारी से एक-सा कहा जा सकता है? 
— क्या बस्ती के लोगों के मन में संस्था के प्रत्येक सदस्य के प्रति अलग-अलग भाव बनेंगे? 

.......... मैंने भी देखा है कि एक ही संस्था में दो तरह के व्यक्ति होते हैं. एक अपने स्वभाव से संस्था की छवि बेहतर बनाते हैं  और दूसरे अपने स्वभाव से संस्था के प्रति खिन्नता के भाव जागृत करते हैं.
कार्यक्रम कोई भी हो... चाहे 'मौलिक अधिकारों के लिए जन-जागृति का हो' अथवा 'राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति सजग करने का' उसमें जब तक कार्यकर्ताओं का आहार शुद्ध नहीं होगा तब तक उनके विचार जन-कल्याण के कार्यक्रमों के प्रति गंभीर नहीं होंगे. 

— क्या दिनभर हँसाने वाला जोकर [कोमेडियन] दूसरे की पीड़ा के भाव को पूरी गंभीरता से आत्मसात कर सकता है? 
— क्या कोई 'कसाई' समाज में हुए किसी के क़त्ल पर उतनी संवेदना से जुड़ सकता है जितनी संवेदना से कोई 'पानवाला'?
— क्या चिड़ियों को पिजरों में पालने का शौक़ीन स्वतंत्रता की सही-सही व्याख्या कर सकता है? 

प्रश्न इस तरह के अनेक हो सकते हैं... मुख्य बात है कि हमारे आहार-विहार से ही हमारा स्वभाव बनता है और हमारे तरह-तरह के शौकों का निर्माण होता है. 

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

शान्ति और तृप्ति का आधार शाकाहार



निरामिष आहार से हमारे विचार प्रभावित होते हैं। यदि हम मन, वचन और कर्म से पवित्र होना चाहते हैं, तो इसके लिए हमें शाकाहार, यानी साग-सब्जी से पूर्ण आहार ही लेना चाहिए। कहते है, हर इंसान के मन के एक कोने में पशु सम व्यवहार छुपा होता है। इसलिए यदि हमें उस पशुता के उभार से मुक्त होना है, तो मांसाहार का त्याग करना ही होगा।


हमें न केवल अपनी जीभ के स्वाद के लिए दूसरे जीवों को हानि पहुंचाने से बचना होगा, बल्कि उनकी रक्षा के लिए लगातार प्रयास भी करते रहना होगा। इसलिए ऐसा भोजन ही करना चाहिए, जो न केवल पौष्टिक हो, बल्कि उसे खाने से किसी जीव की हानि भी न हो। निरामिष आहार किसी भी व्यक्ति के जीने की शैली भी निर्धारित करता है। ऐसे आहार न केवल दिल, बल्कि शरीर को भी मजबूत करते हैं। देखा गया है कि शाकाहार से न केवल हमारे विचार अच्छे होते हैं, बल्कि दया, करूणा क्षमा आदि भावों का भी विकास होता है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम लोग जीने के लिए भोजन करते हैं, न कि भोजन के लिए जीते हैं। स्मरण रहे कि आहार जीवन के लिए मात्र एक साधन है, साध्य नहीं।

प्राणिविज्ञान के अनुसार, मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है, लेकिन उसकी बुद्धि और संवेदनाएं ही उसे पशुओं से अलग करती हैं। यह करुणा का ही भाव है, जो उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का प्राण नहीं लेने की प्रेरणा देता है। यदि हम गहराई से विचार करें, तो पाएंगे कि हमारी तरह ही दूसरे प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार प्राप्त है।

यदि जीवन प्रकृति है, तो जीवन का नाश विकृति है। हम अपनी भूख को मिटाने के लिए भोजन तो करते हैं, लेकिन सच तो यह है कि इससे हमारी आत्मा भी प्रभावित होती है। यदि हम मांसाहारी हैं, तो इसके लिए पहले हमें मूक एवं निर्बल पशुओं की हत्या से जुड़ना पडता है और हत्या-हिंसा के कारण ही सभी अशांतियों का जन्म होता है। दूसरी ओर, शाकाहार के लिए हमें हिंसा की जरूरत नहीं पडती है, इसलिए आत्मा को शांति और तृप्ति मिलती है।

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

शाकाहार में है ज्यादा शक्ति


शाकाहार में है ज्यादा शक्ति  गुरूवार, 23 जून 2011( 12:32 IST )ND

संतुलित शाकाहारी भोजन शरीर को सभी पोषक तत्व प्रदान करता है। यही नहीं,वह हृदय रोग, कैंसर,उच्च रक्तचाप,मधुमेह,जोड़ों का दर्द व अन्य कई बीमारियों से हमें बचाता भी है।

उन लोगों में हाई ब्लड प्रेशर ज्यादा पाया गया जो मांस से अधिक प्रोटीन प्राप्त करते थे। शाकाहारी प्रोटीन में एमीनो एसिड पाया जाता है। यह शरीर में जाकर ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करता है।

सब्जियों में एमीनो एसिड के साथ-साथ मैग्नेशियम भी पाया जाता है। यह हमारे रक्तचाप को नियंत्रित रखता है।

अधिक मांसाहार करने वाले लोगों में फाइबर की भी कमी पाई गई है। फाइबर हमें अनाज से मिलता है। दाल,फलों का रस और सलाद से कई पोषक तत्व मिलते हैं। ये हमारे शरीर के वजन को भी संतुलित रखते हैं।

ज्यादा मांसाहार मोटापा भी बढ़ा देता है। मांस में वसा की मात्रा बहुत होती है। हमारे शरीर को सबसे ज्यादा जरूरत होती है कार्बोहाड्रेट की।

अगर आप सोचते हैं कि यह मांस में मिलेगा तो आप गलत हैं,क्योंकि मांस में कार्बोहाइड्रेट बिलकुल नहीं होता। यह ब्रेड, रोटी, केले और आलू वगैरह में पाया जाता है।