रविवार, 8 जनवरी 2012

शाकाहार क्यों? कुछ विचार

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक जब मानव का विकास हुआ (एक कोशिकीय जीव, बहु कोशिकीय जीव और इसी तरह आगे) तब वह सभ्यता-संस्कृति विहीन जीव था। मतलब अन्य प्राणियों की तरह, उसका एक मात्र ध्येय था अपने जीवन की, अपने प्राण की रक्षा। एक ऐसे प्राणी से, जिसके मस्तिष्क में केवल अपने जीवन-यापन हेतु खाने और रहने की समझ है, क्या अपेक्षा की जा सकती है? स्पष्ट है कि जब मानव प्रागैतिहासिक युग में था तो उसके पास खाने को लेकर सीमित विकल्प थे। कालांतर में जैसे जैसे मानव सभ्यता की तरफ बढा, उसने पत्थर से धातु की तरफ कदम रखा, जब उसने आग की खोज की, पहिये का अविष्कार किया और खेती का, तो फिर उसके तौर तरीके भी बदल गए। जहाँ पहले वह प्रकृति के अन्य जीवों की देखादेखी मांस और प्रकृति दत्त कंद मूल पर निर्भर रहता था, अब वह अन्न उपजाने लगा। मतलब यह कि जैसे जैसे मानवीय सभ्यता आगे की तरफ बढ़ी, शाकाहार का प्रचलन बढ़ने लगा।

शिल्पा मेहता जी ने पिछले आलेख में शाकाहार और मांसाहार से जुड़ी तमाम भ्रांतियों पर ज्ञानवर्धक जानकारी दी है। माँसाहार के समर्थन में कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि इन जानवरों को काटा न जाए तो ये पूरी जमीन पर काबिज हों जायेंगे। क्या ऐसा ही कुछ मनुष्यों के बारे में भी कहा जा सकता है? शेर को तो नहीं काटा जाता (यद्यपि शिकार काफी हुआ है) लेकिन फिर भी शेरों की संख्या इतनी नहीं बढ़ गयी कि पूरी पृथ्वी को घेर लेते। भारत के संदर्भ में यही बात मक्खी - मच्छरों के सन्दर्भ में कही जा सकती है। खूब होते हैं लेकिन फिर भी पृथ्वी को इतना न घेर सके कि मानव को रहने के लिए ही जगह न बचे। कुछ दिनों पहले एक चैनल पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिसमें भ्रूण (जानवरों के) को भोजन के बतौर प्रयोग के बारे में दिखाया जा रहा था। एक देश के बारे में समाचारपत्र में पढ़ा था कि वहाँ मानव भ्रूण भी बिकते हैं। क्या माँसाहारी व्यक्ति भी अपने साथ ऐसा व्यवहार  स्वीकार कर सकते हैं? कदापि नहीं।

क्या ऐसा भी हो सकता है कि हम अपने ही किसी अंग का प्रयोग आहार हेतु कर लें? नहीं। आपातकाल में भी व्यक्ति क्षुधा से तड़प कर मर तो जाता है लेकिन अपने किसी अंग का प्रयोग आहार बतौर नहीं करता। क्यों? यहाँ तक कि जो नरभक्षी जातियों के बारे में पढ़ रखा है वह यह कि वे भी बाहरी लोगों को ही अपना शिकार बनाती हैं न कि अपने ही लोगों को। तर्क और कुतर्क के बीच में एक बड़ी मामूली सी रेखा होती है और यह मानना पड़ेगा कि कुतर्क करने वाला व्यक्ति हमेशा अधिक तैयारी से आता है.(गो का अर्थ हमेशा गाय नहीं होता, जैसे कि मन का अर्थ मस्तिष्क, और तोलने की इकाई होता है, कर का अर्थ करना, टैक्स और हाथ भी होता है)। जितना विविधता पूर्ण आहार शाक-सब्जियों से प्राप्त होता है उतना माँस से नहीं। पोषक तत्वों की विविधता के बारे में भी निरामिष के पिछले लेखों में बताया ही जा चुका है और फिर इस सब के बाद भी मांसाहारी व्यक्ति को भी अन्न की भी आवश्यकता पड़ती है और अन्य शाक-सब्जियों की भी।

सबसे बड़ी बात है हिंसा की - हत्या की। जो व्यवहार हम एक निरीह पशु-पक्षी के साथ करते हैं, क्या उस व्यवहार की कल्पना भी हम अपने बारे में, अपने प्रिय जनों के बारे में कर सकते हैं। क्या हम सोच सकते हैं कि हम खुद या फिर हमारा कोई प्रिय जन किसी नरभक्षी के हाथों उस का ग्रास बने। नहीं, ऐसा हम सोचना भी पसंद नहीं करते। फिर। जरूरत है एक सेकेण्ड थॉट की, स्वयं  को दूसरे की जगह रखकर सोचने की।

6 टिप्‍पणियां:

  1. दयानिधि जी,

    स्वागत है आपका इस प्रथम आलेख के साथ!! बहुत ही तार्कित प्रस्तुति है।

    जिन्हें हम जीवन नहीं दे सकते उन्हें खत्म करने का हमें क्या अधिकार है।
    जो व्यवहार हम अपने साथ अच्छा नहीं समझते, वह दूसरे प्राणी के साथ कैसे उचित हो सकता है।

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  2. बहुत ही तर्कसंगत आलेख!! दयानिधि जी का आभार!!

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  3. दयानिधि जी,

    शाकाहार पर इस तर्कसंगत प्रस्तुति के लिये धन्यवाद। आपके आने से निरामिष परिवार समृद्ध हुआ है। आलेख के हर बिन्दु से सहमत हूँ।

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  4. समझदार को इशारा चाहिए
    बाकी को दवा!

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  5. निरामिष होने के कारणों की गहन पड़ताल !
    आभार!

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