मंगलवार, 24 जनवरी 2012

शाकाहार सम्बन्धी कुछ भ्रम और उनका निवारण


भ्रम # 1- आदिमानव माँसाहारी था।
यदपि नवीनतम शोध से यह स्थापित हो चुका है कि प्रागैतिहासिक मानव शाकाहारी भी था, तथापि आदिमानव अपनी आदिम असभ्य आदतों को सुधार कर ही सभ्य अथवा सुसंस्कृत बना है। शाकाहार शैली  उसी सभ्यता का परिणाम है। आज विकास मार्ग की और गति करते हुए, परित्यक्त आदिम आहार शैली (माँसाहार) को पुनः अपनाकर जंगलीयुग में लौटना तो सभ्यता का पतन है। यदि आदिम प्रवृति को ही जीवन-आधार बनाना है तो आदिमानव अनावृत घूमता था, क्या आज हमें भी वह निर्वस्त्र दशा अपना लेनी चाहिए? आज उन प्रारम्भिक  आदतों का अनुकरण किसी भी दशा में उचित नहीं है। शिकार, पशुहिंसा और मांसाहार शैली, मानव सभ्यता के विकास के साथ ही समाप्त हो जानी चाहिए। उससे लगे रहना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।

भ्रम # 2- विश्व में अधिकतर आबादी माँसाहारी है इसलिए माँसाहार सही है
अधिसंख्य या भीड का अनुकरण सदैव हितकर नहीं होता। यह कोई भेड़चाल नहीं है, यह कोई बात हुई कि सभी कुंए में कूद रहे है तो हमें भी कूद जाना चाहिए। धरा पर हीरे और कंकर दोनो ही उपलब्ध है, कंकर अधिसंख्या में है तो हीरे बहुत ही न्यून मात्रा में ही प्राप्य है। मात्र अधिसंख्या के कारण, कंकर मूल्यवान नहीं हो जाते! संख्या भले कम हो बेशकीमती तो हीरे ही रहेंगे। महत्व हमेशा गुणवत्ता (क्वालिटी) का होता है  मात्रा (क्वांटिटी) का नहीं। इसलिए अधिकतर आबादी का अनुकरण मूर्खता है। अनुकरण तो हर हाल में विवेक-बुद्धि का ही करना उत्तम है।

भ्रम # 3- वनस्पति अभाव वाले बर्फ़ीले प्रदेश व रेगिस्तान के लोग क्या खाएंगे?
अगर वनस्पति व कृषि उपज से अभाव वाले क्षेत्रों को शाकाहार सहज उपलब्ध नहीं, तो हमें भी शाकाहार का त्याग कर माँसाहार अपनाना चाहिए!! बडा अज़ीब तर्क है? यह कोई मूर्खता भरा साम्यवादी पागलपन है कि विश्व के किसी कोने में लोग रोटी को मोहताज़ है तो पूरे संसार को भूखों मरना चाहिए। अभावग्रस्तों के आहार का अनुकरण करने से क्या वे अभावी खुश हो जाएंगे? क्या उन्हें नैतिक समर्थन मिल जाएगा? जहां भरपूर शाकाहार उपलब्ध है उसे फैक कर, एस्कीमो आदि का साथ देना तो मूढ़ता ही कहलाएगा। होना तो यह चाहिए कि उन्हें भी हम पोषक शाकाहार उपलब्ध करवाएं। आज के विकसित युग में किसी भी प्रकार का भोजन धरा के किसी भी कोने में, बल्कि अंतरिक्ष में भी पहुँचाया जा सकता है। अतः इस "क्या खायेंगे?" वाले बहाने में कोई दम नहीं है।

भ्रम # 4- सभी शाकाहारी हो जाय तो इतना अनाज कहां से आएगा ? पूरा विश्व  शाकाहारी हो जाय तो पूरे विश्व की जनता को खिलाने लायक अनाज का उत्पादन करने के लिए हमें ऐसी चार और पृथ्वियों की आवश्यकता होगी।
दुनिया में बढ़ती भूखमरी और कुपोषण का प्रमुख कारण माँसाहार का बढ़ता प्रचलन है। माँस पाने ले लिए जानवरों का पालन पोषण देखरेख और माँस का प्रसंस्करण करना एक लम्बी व जटिल व खर्चीली प्रक्रिया है। यह पृथ्वी-पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुचाने वाला उद्योग है। एक अनुमान के मुताबिक एक एकड़ भूमि पर जहाँ 8000 कि ग्रा हरा मटर, 24000 कि ग्रा गाजर और 32000 कि ग्रा टमाटर पैदा किए जा सकतें है वहीं उतनी ही जमीन का उपभोग करके, मात्र 200कि ग्रा. माँस पैदा ही पैदा किया जा रहा है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन प्राप्त करने में अनेकगुना जल जमीन आदि संसाधनों का अपव्यय होकिया जा रहा है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में झोक दी गई है। यदि माँस उत्पादन में व्यर्थ हो रहे अनाज, जल और भूमि आदि संसाधनो का सदुपयोग किया जाय तो इस एक ही पृथ्वी पर शाकाहार की बहुतायत हो जाएगी।

भ्रम # 5- प्रोटीन की प्रतिपूर्ति माँसाहार से ही सम्भव है:
अकसर कहा जाता हैं कि शाकाहारी लोग प्रोटीन के पोषण से वंचित रह जाते हैं।  यह बहुत बडी भ्रांती फैलाई जा रही है कि माँसाहार ही प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है। शायद आपको यह नहीं मालूम कि वनस्पतियों से प्राप्त होने वाला प्रोटीन कोलेस्ट्रॉल रहित होता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में फाइबर भी पाया जाता है, जो पाचन तंत्र और हड्डियों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद होता है। दरअसल अमिनो एसिड प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है, जो कि दालों और सब्जियों में भी पाया जाता है। शाकाहारी पशु तो बेचारे मांस नहीं खाते, फिर उनके शरीर में इतना प्रोटीन कहाँ से आता है, हाथी का विशाल शरीर, घोडे में अनवरत बल और बैल में शक्ति कहाँ से आती है। यदि वनस्पति ग्रहण करके भी शाकाहारी पशु-शरीर इतनी विशाल मात्रा में प्रोटीन बनाने में सक्षम है तो शाकाहार लेकर मानव शरीर अपना आवश्यक प्रोटीन क्यों नहीं बना सकता? सरकारी स्वास्थ्य बुलेटिन संख्या ''23'' के अनुसार सच्चाई सामने आती है कि प्रति 100 ग्रा. के अनुसार अंडों में जहाँ ''13 ग्राम.'' प्रोटीन होगा, वहीं पनीर में ''24 ग्राम.'', मूंगफली में ''31 ग्राम.'', दूध से बने कई पदार्थों में तो इससे भी अधिक एवं सोयाबीन में ''43 ग्राम.'' प्रोटीन होता है।

भ्रम # 6- संतुलित आहार के लिए, शाकाहार में मांसाहार का समन्वय जरूरी है:
बिलकुल नहीं, आहार को संतुलित करने के लिए मांसाहार को सम्मलित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। शाकाहारी पोषक पदार्थों में ही इतनी विभिन्नता है कि पोषण को शाकाहारी पदार्थों से ही पूर्ण संतुलित किया जा सकता है। संतुलित पोषण मेनू में माँसाहार की आवश्यकता रत्तीभर भी नहीं है। मांसाहार से पोषक मूल्यों को संतुलित करने की यह धारणा पूरी तरह गलत है। उलटे मांसाहार के दुष्परिणामों को सन्तुलित करने के लिए उसके साथ पर्याप्त मात्रा में शाकाहारी पदार्थ लेना नितांत आवश्यक है। मात्र माँसाहार पर मानव जी भी नहीं सकता। केवल मांसाहार पर निर्भर रहने वाले एस्कीमो की ओसत आयु केवल 30 वर्ष है। मांसाहार की तुलना में फलों, सब्जियों और दालों  आदि शाकाहारी भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा और कोशिकाओं को पोषण देने वाले आवश्यक माइक्रोन्यूट्रिएंट तत्व संतुलित मात्रा में पाए जाते हैं। निरोगी रखने वाले निरामय आहार-रेशे (फाइबर) तो मात्र शाकाहार में ही उपलब्ध है। पोषण संतुलन के लिए किंचित भी सामिष पदार्थ की आवश्यकता नहीं है।

भ्रम # 7- हिंसा तो वनस्पति आहार में भी है:
पौधों में प्राणियों जैसी सम्वेदना का प्रश्न ही नहीं उठता। उनमें सम्वेदी तंत्रिकातंत्र पूर्णतः अनुपस्थित है। न उनमें उस भांति मस्तिष्क होता है और न ही प्राणियों जैसी सम्वेदी-तंत्र संरचना। सम्वेदना तंत्र के अभाव में शाकाहार और मांसाहार के लिए पौधों और पशुओं के मध्य समान हिंसा की कल्पना पूरी तरह से असंगत है। जैसे एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक फल के जीव के जीवन-मूल्य में भी भारी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय व आतंक लगता है। क्षुद्र से क्षुद्र कीट भी मृत्यु या शरीरोच्छेद से बचना चाहता है। पशु पक्षी आदि में पाँच इन्द्रियां होती है वह जीव उन पाँचो इन्द्रियों से सुख अथवा दुख अनुभव करता है, सहता है, भोगता है। कान, आंख, नाक, जिव्हा और त्वचा तो उन इन्द्रियों के उपकरण मात्र है इन इन्द्रिय अवयवों के त्रृटिपूर्ण या निष्क्रिय होने पर भी पाँच इन्द्रिय जीव, प्राणघात और मृत्युवेदना, सभी पाँचों इन्द्रिय सम्वेदको से अनुभव करता है। यही वह संरचना है जिसके आधार पर प्राणियों का सम्वेदी तंत्रिका तंत्र काम करता है। जाहिर है, जीव जितना अधिक इन्द्रियसमर्थ होगा, उसकी मरणांतक वेदना और पीड़ा उतनी ही दारुण होगी। इसीलिए पंचेन्द्रिय (पशु-पक्षी आदि) का प्राण-घात, क्रूरतम प्रक्रिया होती है। क्रूर भावों से दूर रहने के लिए, करूणा यहां प्रासंगिक है। विवेक यहां अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है और वह निर्दोष विकल्प शतप्रतिशत शाकाहार ही है।

* विषय सम्बन्धित कुछ अन्य कड़ियाँ * 
शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल !!!(पूर्वार्ध)
शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!!! (उतरार्ध)

12 टिप्‍पणियां:

  1. उम्मीद है कि इस पोस्ट से सारे भ्रमों का निवारण हो गया होगा.

    जवाब देंहटाएं
  2. एक ज़रूरी पोस्ट.... सधी हुई जानकारी के साथ

    जवाब देंहटाएं
  3. शाकाहार सम्बन्धी प्रमुख भ्रमों का निवारण इतनी स्पष्ट भाषा मेंकरने का आभार!

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सही तरीके से अपनी बात समझाई है आपने ...आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. सार्थक आलेख के लिए आपका हृदय से आभार! ईश्वर सबको सदबुद्धि दे।
    आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

    जवाब देंहटाएं
  6. सुज्ञ जी ,
    ऐसी ही पोस्ट की लम्बे समय से मुझे प्रतीक्षा थी......... जिसमें पिछली पोस्ट्स के लिंक भी हों .. ऐसे विचारणीय लेख जितनी बार भी पढ़ें जाएँ बेहतर हैं
    आपने इस पोस्ट के जरिये सारे अनमोल मोतियों (लेखों)को एक सुन्दर माला(पोस्ट)का रूप दे दिया है .. बेहद सुन्दर ......जितनी तारीफ़ की जाए कम है

    जवाब देंहटाएं