सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

शाकाहार की धूम - बेल्जियम के बाद अब जर्मनी


"शाकाहारियों के लिए तो टोफू (Tofu = सोयाबीन का पनीर) प्रोटीन का भंडार है। मैंने तब पहली बार उसे चखा और बस मैं सन्डे वेगन बर्गर्स की फैन हो गई।"
~ जेनी हॉफ़ (पत्रकार, दोयेचे वेले, कोलोन)
शाकाहार अब कहीं भी दुर्लभ नहीं रहा
जर्मन खानपान की बात चलने पर लोगों का ध्यान बीयर और सॉसेज पर ही जाता है। यह सच है कि पुराने ज़माने के यूरोप मे शाकाहार की सम्भावना भारत जैसे हरीतिमा भरे देश से कहीं कम थी, मगर आज के समय में यह सब स्टीरियोटाइपिंग जैसा लगता है। आइये आपका परिचय करायें एक आधुनिक जर्मनी से जिसे पुराने रंग में रंगना आसान नहीं है। आज के जर्मनी में रहने वाले लोगों के खान पान में बड़ा परिवर्तन आ रहा है। शाकाहार का प्रयोग दिन दूना रात चौगुना बढ रहा है। जर्मनी के एक प्रमुख शाकाहारी रसोइये अटिला हिल्डमैन अब शाकाहारी भोजन विधि की पुस्तकें छापने लगे हैं और एक बड़ी एजेंसी उनका काम काज देखती है। वे कई स्थानीय टीवी कार्यक्रमों में दिखाई देने लगे हैं। जल्दी ही उनकी एक और नई किताब "वीगन फॉर फन" बाज़ार में आ रही है।

जर्मन रेडियो दोयेचे वेले (कोलोन, जर्मनी) की रिपोर्टर जेनी हॉफ़ के अनुसार कभी मांस के दीवाने रहे जर्मनी के लोग अब वोनर्स और सन्डे वेगन बर्गर्स का मजा ले रहे हैं। जेनी हॉफ़ ने स्वयं भी 11 वर्ष की उम्र में शाकाहार अपना लिया था जो कि आज तक बरकरार है।

"बर्लिन में शाकाहारी जुनून से मेरा सामना अचानक हुआ। भाषा सिखाने वाले इंस्टीट्यूट की पार्टी से वापस आकर मैं इंटरनेट पर ऑनलाइन दोस्तों की तलाश कर रही थी जब मैंने शाकाहारी खानसामा (वीगन शेफ) अटिला हिल्डमान की प्रोफाइल देखी। मैं एक वीगन शेफ को बर्लिन में देख हैरान थी।" ~ जेनी हॉफ़

जर्मनी में भोज्य सामग्री की एक विशिष्ट और प्राचीन परम्परा रमटॉफ़ (Rumtopf) है जिसमें विभिन्न प्रकार के फलों को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें विशिष्ट प्रकार के खूबसूरत मर्तबानों में गन्ने के रस से बनी मदिरा में डुबोकर रखा जाता है। समय के साथ अन्य मौसमी फल जुड़ते जाते हैं और सर्दियों में जब प्राकृतिक फलों की कमी होती है तब रमटॉफ़ खाये जाते हैं। लेकिन आजकल वहाँ शाकाहारी और वीगन भोजन का परिचय और उसके स्वास्थ्यप्रद होने के बारे में जानकारी बढ रही है। और इसके साथ ही बढ रहे हैं शाकाहारी भोजनालय।

"मुझे हर वक्त किसी न किसी का ई-मेल या फोन आता रहता है। जगह-जगह के लोग मेरे साथ शाकाहारी रेस्त्रां खोलना चाहते हैं।" ~ अटिला हिल्डमान

जर्मनी में शाकाहार के प्रति बढती रुचि का कोई एक कारण देना आसान नहीं है पर यह सच है कि वहाँ वीगन और वेजीटेरियन, इन दोनों प्रकार के शाकाहारी ढाबे और यहाँ तक कि भोजन-रेहड़ियाँ तक न केवल बढ रही हैं, बल्कि अधिकाधिक ग्राहक आकर्षित कर रही हैं। टोफू, सलाद, अंकुरित अनाज, टमाटर, तले प्याज, अचार और खीरे के साथ शाकाहारी सैंडविच जैसे भोज्य पदार्थ जर्मन नगरों में आम होते जा रहे हैं।

22 वर्षीया जर्मन युवती मैंडी क्रित्ज ने पिछले आठ सालों से मांस या मछली नहीं खाई है। क्रित्ज ने कहा कि जब उन्होंने मांसाहार त्यागा, तब उसकी मां को यह फैसला बड़ा अजीब लगा था। आज की जर्मनी में तो निरामिष भोजन का बहुत प्रसार हुआ है। तब की जर्मनी में शाकाहारी रहना उतना आसान नहीं था परन्तु कठिनाई के बावजूद उन्होंने शाकाहार को अपनाया।

शाकाहार की मांग अब इतनी बढ़ गई है कि मुझे शायद एक और रेस्त्राँ खोलना पड़ेगा। फिलहाल तो अपने बढ़ते ग्राहकों के लिए मेरे पास जगह नहीं है। ~ श्रीमान रे (सन्डे वीगन बर्गर्स, मावर पार्क, बर्लिन)

बर्लिन के एक शाकाहारी भोजनालय सन्डे वीगन बर्गर्स के संस्थापक ने बताया कि जब वे पहली बार जर्मनी गये तो शाकाहारियों के लिए वहां कुछ नहीं पाया। तब उन्होंने कुछ हजार यूरो निवेश करके एक ट्रेलर और खाना पकाने के लिए कुछ बर्तन खरीदे और अपने रेस्त्रां को खूबसूरती से रंग कर हिंसारहित और क्रूरता-मुक्त सन्डे वीगन बर्गर्स बेचना शुरू कर दिया। जिसने भी चखा वह अगली बार किसी और को साथ लेकर आया और उनका नाम और काम भी बढ़ने लगा।

हम करीब १५-१६ साल से शाकाहारी हुये हैं, हम क्या हमारे साथ-साथ कई जर्मन भी शाकाहारी हुये हैं। जब हम मांसाहारी थे और फिर शाकाहारी हुये इन दोनो में हमने अपने आप में बहुत परिवर्तन देखा।   ~ वरिष्ठ हिन्दी ब्लॉगर श्री राज भाटिया (बेयर्न, जर्मनी)

कभी हर भोजनालय में केवल एक या दो शाकाहारी डिश और सलाद रखने वाले बर्लिन नगर में 50 से अधिक रेस्त्राँ इस समय शुद्ध शाकाहारी या प्रमुखतः शाकाहारी भोजन प्रस्तुत करते हैं। जर्मनी के नगर हैम्बर्ग के नाम पर आधारित मांसाहारी हैम्बर्गर बेचने वाले छोटे-मोटे ढाबे भी अब अपने यहाँ शाकाहारी बर्गर बेच रहे हैं। अगली बार आप जर्मनी जायें तो वेटर को जर्मन में गर्व से बताइये

Ich bin Vegetarier (मैं शाकाहारी हूँ)

और उससे आत्मविश्वास से पूछिये
Haben Sie etwas ohne Fleisch? (क्या आपके पास मांसरहित सामग्री है?)

यक़ीन मानिये, आपको निराश नहीं होना पड़ेगा। न केवल उसका उत्तर हाँ में होगा, एक अलग प्रकार के निरामिष भोजन का आपका अनुभव भी तृप्तिकर होगा।

Ja, wir haben Vegetarische Kost (जी हाँ, हमारे पास शाकाहारी भोजन है।)

शाकाहार अपनाइये, जीवदया का विस्तार कीजिये, पर्यावरण रक्षण कीजिये, स्वस्थ रहिये!
जानकारी: विभिन्न समाचार स्रोतों से साभार संकलित
कीवर्ड्स: शाकाहार, विदेश, पोषण, वीगन, जर्मनी

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

सामिष / निरामिष भोजन और स्वास्थ्य


[ नोट: इस लेख की इन सब बातों में जानते बूझते ही क्रूरता आदि की बात नहीं की जा रही है। यह पोस्ट सिर्फ और सिर्फ स्वास्थ्य के विभिन्न पक्षों का तुलनात्मक अध्ययन है |]

१. खालिस सामिष भोजन कई आवश्यक पोषक तत्वों से या तो सर्वथा विहीन है / या फिर अपूर्ण है - जैसे कई खनिज़, विटामिन सी, आहार-रेशे (तंतु ), स्टार्च, कार्बोहाइड्रेट (minerals, vitamin c, fibre, starch, carbohydrates) | इन सब की कमी होने परकुपोषण से होने वाली कई बीमारियाँ (malnutrition diseases) होती हैं | 

२. सामिष भोजन में हानिकारक कोलेस्ट्रोल (bad cholestrol ) का भाग बहुत अधिक है | इसे पकाने में भी निरामिष से कहीं अधिक तेल मसाले पड़ते हैं, जो कोलेस्ट्रोल को और बढाते हैं | 

३. रसायन (केमिकल्स) - क्योंकि जानवर खाद्य शृंखला ( food chain ) में ऊपर हैं - सो इस भोजन में खेती में प्रयुक्त किये जाने वाले रसायनों का प्रतिशत मात्रा अधिक है | 

४. जानवरों को जल्दी बड़ा करने के लिए, अधिक मात्रा में मांस प्राप्त करने के लिए इन्हें कई प्रकार के स्टीरोइड्स (steroids) दिए जाते हैं - और जैसा कि हम खिलाडियों के बारे में पढ़ते सुनते रहते हैं  कि   स्टीरोइड्स  एक बार शरीर में जाने पर हमेशा मौजूद रहते हैं | जानवरों के शरीर में मौजूद ये  स्टीरोइड्स उसके मांस के साथ मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होते रहते हैं | इसी तरह कई प्रतिजैविक (antibiotics) और  वृद्धि हार्मोन्स (growth hormones) भी पशुओं को दिए जाते हैं | ये भी भोजन के साथ मानव शरीर में प्रविष्ट होते हैं | 

५. कई रोगजनक जीवाणु (disease causing microorganisms ) पशुओं के शरीर में होते हैं | निःसंशय ये निरामिष भोजन में भी सम्भव हैं परन्तु सामिष की तुलना में बहुत कम | mad cow disease  (http://en.wikipedia.org/wiki/Bovine_spongiform_encephalopathy ; ) , bird flu (बर्ड फ्लू http://en.wikipedia.org/wiki/Avian_influenza ) और swine flu (H1N1 स्वाइन फ्लू http://www.swinefluindia.com/ ) की शुरुआत सोचने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है | 

६. पेट के कीड़े (worms) आदि सामिष भोजन करने वालों में अधिक पाए जाते हैं | 

७. सब्जी मंडी में बिकने के लिए रखी सब्जी और कसाई की दुकान पर टंगे ताजे मांस को देखा जाए तो पता चलेगा कि जहां सब्जी जल्दी खराब नहीं होती, वहीँ मांस में से बड़ी जल्दी गंध आने लगती है | अर्थ यह कि उसमे कही अधिक जीवाणु पनप रहे हैं | जो सामिष खाते हैं और निरामिष में भी कई जीवाणुओं के मारे जाने की दलील देते नहीं थकते हैं - वे अपने टेबल पर एक किलो कच्ची सब्जी और एक किलो कच्चा मांस छोड़ कर स्वयं ही देख लें - किससे जल्दी उबकाई आती है ? 

८. ह्रदय रोग के मरीजों में सामिष भोजियों का प्रतिशत निरामिष भोजियों से कई गुना अधिक है | 

९.  केंसर से बचाव : निरामिष भोजन में कई प्रकार के विटामिन्स हैं जो कैंसर को दूर रखने में सहायक हैं | जो सामिष पदार्थों में नहीं हैं | 

१०. अन्य बीमारियाँ :  अस्थिक्षय (Osteoporosis), गठिया (Arthritis), गुर्दे व पित्ताशय की पथरी (Kidney Stones and Gallstones)  मधुमेह (Diabetes), मल्टीपल स्केलेरोसिस( Multiple Sclerosis) ,  मसूढ़ों के रोग (Gum disease) मुंहासे ( Acne.) मोटापा (Obesity ) , आंत्र विषरक्तता (Intestinal Toxemia) आदि | 

११. पाचन समय : निरामिष भोजन जल्दी पच जाता है, सामिष को अधिक समय चाहिए | सो भोजन नली में कम समय रहने से इसके सड़ने और खाद्य-विषाक्तता (food poisonong) होने की संभावनाएं कम हैं |
एक अंदाज़ - किस भोजन को उदर से आंत (stomach to intestine) में जाने के लिए कितना समय लगता है ?
- पानी - तुरंत 
- फलों / सब्जियों का रस - १५ - २० मिनट 
- सलाद २० - ३० मिनट 
- फल - २० - ४० मिनट 
- सब्जियां ३० -
 ५० मिनट
- अन्न - ९० मिनट 

"""- बीफ (गाय / बैल का मांस ) - ३ - ४ घंटे """ 

जब मनुष्य मांस खाते हैं - तो कभी भी उसे अकेला नहीं खाया जाता। मांस के साथ अन्य निरामिष पदार्थों का योग भी होता है - सब्जी के मसाले , प्याज साथ ही अन्न (रोटी-चावल) आदि आवश्यक है | शोध (studies) बताती हैं कि जब अलग अलग पाचन प्रक्रिया के खाद्य साथ खाए जाते है - तब सबसे देरी में पचने वाले भोज्य पदार्थ सबसे पहले पचने शुरू होते हैं | तो पहले मांस पचेगा (४ घंटे ) उस समय तक अन्न (रोटी में गेहूं है ) पेट में वैसा ही रहेगा | फिर अन्न का पाचन शुरू होगा | इतने समय तक अन्न पेट में वैसा ही रहेगा - और सड़ने लगेगा | इसीलिए गैस / आहार विषाक्त बनने  आदि की समस्या खडी हो जाती है | 

१२. पशुओं के शरीर के कई  हार्मोन्स  (adrenalin hormone आदि ) उनके मांस में मौजूद हैं | निरामिष भोजन में ऐसा कोई नुकसानदेह पदार्थ नहीं है | 

१३. प्रोटीन की आवश्यकता से अधिक आपूर्ति : एक मध्यम अमेरिकन व्यक्ति, RDA (recommended daily allowance ) से ४ गुना अधिक प्रोटीन लेता है (- जो सामिष भोजन की वजह से है |) इससे शरीर में नाइट्रोज़न (nitrogen) की अधिकता हो जाती है - जो अनेक बीमारियों को जन्म देती है (bone resorption , osteoporosis , kidney stones , stress on liver - http://en.wikipedia.org/wiki/Protein_(nutrient) , http://www.animalaid.org.uk/h/n/CAMPAIGNS/vegetarianism/ALL/653/)  |
 जब हम अधिक मात्र में सामिष भोजन लेते हैं, तो हमें कार्बोहाइड्रेट(carbohydrates ) उचित मात्रा में नहीं मिलते - तब शरीर प्रोटीन को ही जला कर ऊर्जा पाने का प्रयास करता है | इस प्रक्रिया के साथ कठिनाई यह है - की प्रोटीन में केलॉरिज़ (calories) होती ही कम हैं, और अमिनो अम्ल (amino acids) ज्यादा - तो इसे जलाने में अत्यधिक नाइट्रोज़न(nitrogen) बनती है, जिसे हटाने के लिए यकृत (lever) और गुर्दों ( kidney) को बहुत अधिक श्रम करना पड़ता है | दूसरा असर यह होता है कि इस प्रक्रिया में हमारी हड्डियों से कैल्शियम शोष लिया जाता है | इससे एक तो हड्डियाँ कमज़ोर होती हैं, दूसरे इस कैल्शियम के अंश निकास में  गुर्दे की पथरी की संभावनाएं बढ़ा देते है | 

१४. आयु : सामिष भोजन से कई अप्क्षयी रोग (degenerative diseases) जैसे - अल्जीमर, पार्किन्सन आदि (http://en.wikipedia.org/wiki/Degenerative_disease#cite_note-0) होते हैं - जो उन पशुओं से आते हैं, जिनका मांस प्रयुक्त किया जाता है|

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

ऋषभ कंद - ऋषभक का परिचय ।। वेद विशेष ।।

भारतीय  संस्कृति सदा से ही अहिंसा की पक्षधर रही है । अन्याय, अनाचार, हिंसा, परपीडन आदि समस्त आसुरी प्रवृतियों का निषेध सभी आर्ष ग्रंथों में किया गया है । भारत की पुण्य भूमि में उत्पन्न हर परंपरा में अहिंसा को ही परम धर्म बताते हुये "अहिंसा परमोधर्म" का पावन उद्घोष किया गया है ।  और यह उद्घोषणा सृष्टि के आदि मे प्रकाशित वेदों में सर्वप्रथम सुनाई दी थी, वेदों में सभी जीवों को अभय प्रदान करते हुये घोषित किया गया "मा हिंस्यात सर्व भूतानि "  और अहिंसा की यही धारा उपनिषदों, स्मृतियों, पुराणों, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी द्वारा संरक्षित होती हुयी आज तक अविरल बहती आ रही है ।

लेकिन निरामिष वृति का यह डिंडिम घोष कई तामस वृत्तियों के चित्त को उद्विग्न कर देता है जिससे वे अपनी प्रवृत्तियों के वशीभूत हो प्रचारित करना शुरू कर देते है कि यह पावन ध्वनि  "अहिंसा अहिंसा अहिंसा"   नहीं   "अहो हिंसा - अहो हिंसा" है ।

भारतीय संस्कृति का ही जिनको ज्ञान नहीं और जो भारत में जन्म लेकर भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये वे दुर्बुद्धिगण भारती-संस्कृत से अनभिज्ञ होते हुये भी संस्कृत में लिखित आर्ष ग्रन्थों के अर्थ का अनर्थ करने पर आमादा है । ये रक्त-पिपासु इस रक्त से ना केवल भारतीय ज्ञान-गंगा बल्कि इस गंगा के उद्गम गंगोत्री स्वरूप पावन वेदों को भी भ्रष्ट करने का प्रयास करतें  है ।

जो साधारण संस्कृत नहीं जानते वे वेदों की क्लिष्ट संस्कृत के विद्वान बनते हुये अर्थ का अनर्थ करते है । शब्द तो काम धेनु है उनके अनेक लौकिक और पारलौकिक अर्थ निकलते है । अब किस शब्द  की जहाँ संगति बैठती हैवही अर्थ ग्रहण किया जाये तो युक्तियुक्त होता है अन्यथा अनर्थकारी ।

ऐसे ही बहुत से शब्द वेदों मे प्राप्त होते है, जिनको संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति से हीन व्यक्ति अनर्गल अर्थ लेते हुये अर्थ का कुअर्थ करते हुये अहिंसा की गंगोत्री वेदों को हिंसक सिद्ध करने की भरसक कोशिश करते है ।  लेकिन ऐसे रक्त पिपासुओं के कुमत का खंडन सदा से होता आया है, और वर्तमान में  भी  अहिंसक भारतीयता  के साधकों द्वारा सभी जगह इन नर पिशाचों को सार्थक उत्तर दिया जा रहा है । इसी महान कार्य में अपनी आहुती निरामिष द्वारा भी निरंतर अर्पित की जा रही है, जहाँ शाकाहार के प्रचार के साथ आर्ष ग्रन्थों की पवित्रता को उजागर करते हुये लेख प्रकाशित किए जाते हैं । जिनके पठन और मनन से कई मांसाहारी भाई-बहन मांसाहार त्याग चुके है, जो निरामिष परिवार की महान सफलता है ।

लेकिन फिर भी कई  रक्त मांस लोलुप आसुरी वृतियों के स्वामी अपने  जड़-विहीन आग्रहों से ग्रसित हो मांसाहार का पक्ष लेने के लिए बालू की भींत सरीखे तर्क-वितर्क करते फिरते है । इसी क्रम में निरामिष के एक लेख जिसमें यज्ञ के वैदिक शब्दों के संगत अर्थ बताते हुये इनके प्रचार का भंडाफोड़ किया गया था ।  वहाँ इसी दुराग्रह का परिचय देते हुये ऋग्वेद का यह मंत्र ----------

अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति 
सोमान् पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां 

पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः ॥
         -ऋग्वेद, 10, 28, 3

लिखते हुये इसमें प्रयुक्त "वृषभां"  का अर्थ बैल करते हुये कुअर्थी कहते हैं  की इसमें बैल पकाने की बात कही गयी है ।  जिसका उचित निराकरण करते हुये बताया गया की नहीं ये बैल नहीं है ; इसका अर्थ है ------
 
-हे इंद्रदेव! आपके लिये जब यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के टुकड़ों पर आनन्दप्रद सोमरस तैयार करते हैं तब आप उसे पीते हैं। हे ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव! जब यजमान हविष्य के अन्न से यज्ञ करते हुए शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं तब आप उसका सेवन करते हैं।

इसमे शक्तिसंपन्न हव्य को स्पष्ट करते हुये बताया गया की वह शक्तिसम्पन्न हव्य "वृषभां" - "बैल" नहीं बल्कि बलकारक  "ऋषभक" (ऋषभ कंद) नामक औषधि है ।

लेकिन दुर्बुद्धियों को यहाँ भी संतुष्टि नहीं और अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हुये पूछते है की ऋषभ कंद का "मार्केट रेट" क्या चल रहा है आजकल ?????

अब दुर्भावना प्रेरित कुप्रश्नों के उत्तर उनको तो क्या दिये जाये, लेकिन भारतीय संस्कृति में आस्था व  निरामिष के मत को पुष्ठ करने के लिए ऋषभ कंद -ऋषभक का थोड़ा सा प्राथमिक परिचय यहाँ दिया जा रहा है ----

आयुर्वेद में बल-पुष्टि कारक, काया कल्प करने की अद्भुत क्षमता रखने वाली  आठ महान औषधियों का वर्णन किया गया है, इन्हे संयुक्त रूप से "अष्टवर्ग" के नाम से भी जाना जाता है ।
अष्ट वर्ग में सम्मिलित आठ पौधों के नाम इस प्रकार हैं-
 
१॰   ऋद्धि
२॰   वृद्धि
३॰   जीवक
४॰   ऋषभक 
५॰   काकोली
६॰   क्षीरकाकोली
७॰   मेदा
८॰   महामेदा

ये सभी आर्किड फैमिली के पादप होते हैं, जिन्हें दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी में रखा जाता है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता व दमखम बढ़ाने में काम आने वाली ये औषधिया सिर्फ अत्यधिक ठंडे इलाकों में पैदा होती हैं। इनके पौधे वातावरण में बदलाव सहन नहीं कर सकते ।

वन अनुसंधान संस्थान [एफआरआइ] और वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक अष्ट वर्ग औषधियां बहुत कम बची हैं।  जीवक, ऋषभ व क्षीर कोकली औषधियां नाममात्र की बची हैं। अन्य औषध पौधे भी विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।

जिस औषधि की यहाँ चर्चा कर रहे है वह  ऋषभक नामक औषधी इस अष्ट वर्ग का महत्वपूर्ण घटक है । वैधकीय ग्रंथों में इसे - "बन्धुर , धीरा , दुर्धरा , गोपती .इंद्रक्सा , काकुदा , मातृका , विशानी , वृषा  और  वृषभाके नाम से भी पुकारा जाता है । आधुनिक वनस्पति शास्त्र में इसे Microstylis muscifera Ridley के नाम से जाना जाता है ।




ऋषभक और अष्ठवर्ग की अन्य औषधियों के विषय में विस्तृत जानकारी अगले लेख में दी जाएगी।
जारी ...................

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

ऑमेगा 3 व ओमेगा 6 वसीय अम्ल

ऑमेगा 3 (ω−3) व ओमेगा 6 (ω−6) नामक दो वसीय अम्ल (polyunsaturated fatty acid) समूह आजकल काफ़ी चर्चा में हैं। ये दोनों ही हमारे पोषण, विकास और चयापचय (metabolism) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हमारा शरीर बहुत से रसायनों का निर्माण आवश्यकतानुसार कर लेता है परंतु कई रसायन हमें भोजन द्वारा ही प्राप्त होते हैं। यह दोनों ओमेगा अम्ल भी हमें भोजन द्वारा ही प्राप्त होते हैं।

ओमेगा-द्वय कोशिका भित्ति के निर्माण और संरचना के साथ-साथ मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के सुचारु संचालन में भूमिका निभाते हैं। ऑमेगा 3 जहाँ सामान्य विकास का सहयोगी है वहीँ ऑमेगा 6 त्वचा और अंतः भित्तियों के संरक्षण के लिये ज़रूरी है। पहले कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत मिले थे कि भोजन में ओमेगा 3 और ओमेगा 6 के बीच एक निश्चित अनुपात होना चाहिये मगर ताज़े अध्ययनों में ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है और दोनों को ही समान रूप से उपयोगी पाया गया है। कुछ अध्ययनों से यह भी सिद्ध हुआ है कि ओमेगा 3 मानवों को हृदय रोगों से बचाते हैं। ये घाव जल्दी भरने में और सूजन हरने में भी सहायक होते हैं।

जहाँ इनके लाभ हैं वहीं अति किसी भी चीज़ की हानिप्रद होती है। इनकी अधिकता अधिक रक्तस्राव का कारण बनती है, बुरा कॉलेस्ट्रॉल (LDL = low-density lipoproteins) अधिक बनता है और मधुमेह (diabetes) में शर्करा नियंत्रण (glycemic control) में बाधा उत्पन्न होती है।

मांस उद्योग द्वारा कम समय में अधिक मात्रा के लालच में वध्य पशुओं व मछलियों को क्रमशः घास व प्राकृतिक जलीय शैवाल के बजाय अनाज, मांस, कीड़ों का बुरादा व अनेक प्रकार का प्रसंस्कृत भोजन और ऐंटिबायटिक आदि खिलाये जाते हैं जिससे वे खुद ही अक्सर मोटापे जैसी बीमारियों और ओमेगा 3 की कमी से ग्रसित होते हैं और अपने खाने वालों की समस्याओं को बढाते हैं।

ओमेगा 3 बहुत से बीजों, मेवों और वनस्पति तेलों में पाये जाते हैं। अलसी, मींगें, अखरोट आदि इसके समृद्ध स्रोत हैं। मांसाहार और प्रसंस्कृत (प्रोसेस्ड/रिफ़ाइंड) भोज्य पदार्थों का प्रचलन बढने के कारण आम मानव के भोजन में ओमेगा 3 की मात्रा कम होती जा रही है। जहाँ मांसाहारियों को विशेषकर ओमेगा-3 की कमी का सामना करना पड़ता है, वहीं कुछ विशेष मछलियाँ खाने वालों को ओमेगा-3 मिल तो जाता है पर उसके साथ पारा, सीसा, कैडमियम आदि ज़हरीली धातुयें व अन्य विष भी शरीर में जाते हैं। ओमेगा-6 अलसी, अखरोट, कनोला, सूरजमुखी, मूंगफली, सोयाबीन, सेफ्लावर, मकई ऐवम् अन्य वनस्पति तेलों में प्रचुर मात्रा में होता है।

शाकाहारी भारतीय भोजन में आम तौर पर खाये जाने वाले बीज, मींगें, मेवे, तेल आदि इन वसीय अम्लों के समृद्ध स्रोत हैं।  जहां ओमेगा ६ लगभग सभी वनस्पति तेलों में पाया जाता है, वहीं ओमेगा ३ तुलानात्माक रूप से कम होता है। विभिन्न स्रोतों से ली गयी निम्न सारणी ओमेगा-3 अम्ल के विविध स्रोतों की एक झलक भर दिखाने के उद्देश्य से यहाँ रखी गयी है। शाकाहारी बनें, स्वस्थ रहें!

सारणी 1. 
सामान्य नाम अन्य नाम वैज्ञानिक नाम
अखरोट Walnuts Juglans regia
हेज़लनट Hazel nuts Corylus avellana
सफ़ेद अखरोट Butternuts Juglans cinerea
भिदुरकाष्ठ, पीकन Pecan nuts Carya illinoinensis
पैरीला तेल Perilla, shiso Perilla frutescens
सोयाबीन Soybean Apios americana
अलसी Flax, linseed Linum usitatissimum
गरने, छोटे लाल बेर Cowberry, Lingonberry Vaccinium vitis-idaea
चिया बीज Chia seed, Chia sage Salvia hispanica
कैमेलीना Camelina, Gold-of-pleasure Camelina sativa
घोल, पर्सलेन  Purslane, Portulaca Portulaca oleracea
काली रसभरी Black raspberry Rubus occidentalis
गेहूं का चोकर, तेल Wheat germ oil
तिल Sesame
कपास का तेल Cottonsead oil
अंगूर तेल Grapeseed oil
जैतून Olive oil
पाम आयल Palm oil
सरसों Mustard
धान की भूसी Rice bran
एवोकाडो Avocado
पटसन के बीज Hemp seeds

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

भ्रम फैलाने के कार्य और 'निरामिष' पर निराकरण

भ्रम फैलाने के कार्य और 'निरामिष' पर निराकरण

भोजन एक सम्वेदनशील विषय है। लोग अक्सर अपने भोजन के बारे में टीका-टिप्पणी पसन्द नहीं करते। दुर्भाग्य से वही लोग अपने भोजन को सर्वश्रेष्ठ ठहराने का कोई अवसर नहीं चूकते भले ही उसमें कितनी भी क्रूरता और हिंसा मौजूद हो। इंटरनैट पर जहाँ सूचनाओं का भन्डार है वहीं अनर्गल प्रचार के ढेर के बीच से विश्वसनीय और प्रमाणिक जानकारी चुनना एक कठिन काम है। शाकाहार और मांसाहार के विषय में अंतर्जाल पर उपस्थित जानकारियों के प्रति इस कठिनाई को आपके लिये सरल बनाने के उद्देश्य से कुछ ब्लॉगरों द्वारा आहार सम्बन्धी भ्रामक आलेखों के बारे में विस्तृत तथ्यात्मक जानकारी प्रस्तुत करते कुछ ऐसे आलेखों की सूची जिन्हें निरामिष पर पढा जा सकता है।

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सेना में मांसभक्षण अनिवार्य है - डॉ अनवर जमाल

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अँडा खाओ देश बचाओ - डॉ अयाज़ अहमद

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बकरा-ईद में मुसलमान करोड़ों निर्दोष जानवरों की हत्या क्यूँ करते है? -सलीम खान

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मांसाहार क्यूँ जायज़ है? आलोचकों को मेरा जवाब! -सलीम खान

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बेज़ुबान पेड़ों के मासूम भ्रूण को खाने वालो को दयालू कहा जाएगा या निर्दयी ? --डॉ अयाज़ अहमद

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आहार विज्ञानी एक मत से यह मानते हैं कि आदर्श संतुलित आहार में शाकाहार व मांसाहार दोनों का समावेश होना चाहिये(और 11 सवाल) -प्रवीण शाह

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शाकाहार में विटामिन बी-12 आदि पोषण नहीं है – डॉ अनवर जमाल
शाकाहार से विटामिन डी प्राप्त नहीं होता – डॉ जाक़िर अली ‘रजनीश’

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शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

भोजन का चुनाव व्यक्तिगत मामला मात्र नहीं है।



अकसर कहा जाता है कि आहार व्यक्ति की व्यक्तिगत रुचि (चॉइस) की बात है। जिसका जो दिल करे खाए। हमारा आहार कोई अन्य उपदेशित या प्रबन्धित क्यों करे? क्या खाना क्या नहीं खाना यह हमारा अपना स्वतंत्र निर्णय है।

किन्तु यह सरासर एक संकुचित और स्वार्थी सोच है, विशेषकर तब जब उसके साथ हिंसा सलग्न हो। प्रथम दृष्टि में व्यक्तिगत सा लगने वाला यह आहार निर्णय, समग्र दृष्टि से पूरे विश्व के जन-जीवन को प्रभावित कर सकता है। मात्र आहार ही नहीं हमारा कोई भी कर्म यदि किसी दूसरे के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा हो, उस दशा में तो और भी धीर-गम्भीर चिंतन और विवेकयुक्त निर्णय हमारा उत्तरदायित्व बन जाता है। यदि आपके किसी भी कृत्य से कोई दूसरा  (मनुष्य या प्राणी जो भी) प्रभावित होता है, समाज प्रभावित होता है, देश प्रभावित होता है विश्व प्रभावित होता है उस स्थिति में आपके आहार-निर्णय की एकांगी सोच या स्वछंद विचारधारा, कैसे मात्र व्यक्तिगत रह सकती है।

अन्य जीवन का सवाल :-

यह तो साफ है कि माँस किसी प्राणी का जीवन समाप्त करके ही प्राप्त किया जा सकता है। जो आहार किसी दूसरे प्राणी का जीवन ही हर ले, जिसमें किसी अन्य प्राणी को अपनी मूल्यवान जान देनी पडे, कैसे मात्र आपका व्यक्तिगत मसला हो सकता है।

भावनायें आहत होती हैं :-

माँसाहारियो के लिये यह मात्र आहार की बहस है। पर शाकाहारियों के लिये निश्चित ही किसी जीवन के प्रति उत्तरदायित्व का प्रश्न है। पशुओं को कटते हुए न देख पाना, खून से लथपथ माँस, यत्र-तत्र बिखरे उनके व्यर्थ अवयव, पकने पर फैलती इन पदार्थों की दुर्गन्ध, खाते देखकर पैदा होती जगुप्सा। दूसरो की भावनाओं को आहत करने के लिए पर्याप्त है। जो आहार दूसरों की भावनाओं को आहत करे, कैसे यह  मुद्दा व्यक्तिगत पसंद तक सीमित हो सकता है?

हिंसा को प्रोत्साहन :-

जब आप माँसाहार करते है तो समाज में यह संदेश जाता है कि माँसाहार में छुपी पशुहिंसा सहज सामान्य है यह आहार शैली एक तरह से हिंसा को अप्रत्यक्ष समर्थन है। यह प्रकृति में उपस्थित जीवन का अनादर है। यह सोच समाज में शनैः शनैः निष्ठुरता का प्रसार करती है। यदि आहार इस तरह समाज के मानवीय जीवनमूल्यों को क्षतिग्रस्त करे तो वह कैसे मात्र व्यक्तिगत मामला हो सकता है।

वैश्विक मानव पोषण और स्वास्थ्य :-

पोषण के भी असंयमी स्वछंद उपभोग से न केवल प्राकृतिक-वितरण में असन्तुलन पैदा होता है बल्कि आप अतिरिक्त माल को व्यर्थ मिट्टी बना रहे होते है। अतिरिक्त उर्ज़ायोग्य तत्वों को अनावश्यक अपशिष्ट बना कर व्यर्थ कर देते है। यह दुरपयोग, किसी कुपोषण के शिकार के मुंह का निवाला छीन लेने की धृष्टता है। इस प्रकार व्यर्थ गई उर्ज़ा को पुनः रिसायकल करने में प्रकृति का  बेशकीमती समय तो बर्बाद होता ही है, प्रकृति के संसाधन भी अनावश्यक ही खर्च होते है।  तब बात और भी गम्भीर हो जाती है जब आप जो उर्ज़ा सीधे वनस्पति से प्राप्त कर सकते थे, बीच में एक जानवर और उसकी बेशकीमती जान का भोग ले लेते है। और मांसाहार से द्वितीय श्रेणी की उर्ज़ा पाने का निर्थक और जटिल उद्यम करते है। माँसाहार, कुपाच्य और रेशे रहित होता है परिणाम स्वरूप कईं रोगों का निमंत्रक बनता है, इसे अगर व्यक्तिगत आरोग्य-हानि भी मान लें पर सामुहिक रूप से यह विश्व स्वास्थ्य के प्रति उत्तरदायी है। माँसाहार पर सवार होकर प्रसार पाती महामारियों से आज कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। इस तरह मांसाहार जब वैश्विक पोषण और स्वास्थ्य को प्रभावित करता है तो कैसे मात्र व्यक्तिगत चुनाव का प्रश्न कहकर पल्ला झाडा जा सकता है?

विश्व खाद्यसंकट-

भोजन का सम्मान होना चाहिए, उसका दुरपयोग या अपव्यय दूसरे प्राणी के मुँह के कौर को धूल में मिलाने के समान है। जब हम अपना भोजन बनाने की विधि में भी अनावश्यक व्यर्थ करते है या हमारी थाली में भी जूठा छोड कर फैक देते है तो यह भी एक अपराध है। यह दूसरे लोगों को भूखमरी के हवाले करने का अपराध है। जब भोजन के साथ सहज ही हो जानेवाला यह मामूली सा अविवेक भी अपराध की श्रेणी में आता है तो 13 किलो शाकाहार को व्यर्थ कर के आहार के लिए मात्र 1 किलो माँस पाने की क्रिया कैसे निर्दोष हो सकती है? और पशु की आधे से भी अधिक मात्रा वेस्टेज कर दी जाती है। विश्व की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि पशुपालन में झोंक दी गई है। यह खाद्य अपव्यय, संसाधनो का दुरपयोग, प्रकृति के विनाश का अक्षम्य अपराध है। ऐसी मांसाहार भोजन-शैली, वैश्विक भूखमरी का कारण हो, जो हमारे समस्त जीवनोपयोगी संसाधनो की बरबादी का कारण हो, कैसे एक व्यक्तिगत मामले में खपा दी जा सकती है।

विश्व पर्यावरण :-

नवीनतम शोध के अनुसार लगभग सभी वैज्ञानिक इस बात से सहमत है कि माँसाहार का प्रयोग ग्लोबल वॉर्मिंग का एक प्रमुख कारक है। मांस-उद्योग सर्वाधिक ग्रीनहाउस गैसेज का स्रोत बनकर मुँह चि्ढ़ा रहा है। पर्यावरण दूषण आज मानव अस्तित्व के लिए ही चुनौति बनकर खड़ा है। क्योंकि अनियंत्रित भोग और मनमौज ही प्राकृतिक संसाधनों का शोषण है। पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी अर्थात् मानव अस्तित्व के लिए विकराल खतरा। जिस निर्णय से मानव अस्तित्व ही खतरे में पड जाय तो कैसे उस चुनाव को मात्र व्यक्तिगत कह कर किनारा किया जा सकता है?

नशा, ड्र्ग्स, धूम्रपान, गुटका आदि व्यक्तिगत खुराक होते हुए भी व्यक्तिगत इच्छाओं के अधीन स्वछंद छोडी नहीं जा सकती। यह समस्त विश्व के स्वास्थ्य कल्याण का गम्भीर प्रश्न बनती है। उसी तरह आहार भी यदि वैश्विक समस्याएँ खडी करता है तो मसला किसी भी दृष्टि से व्यक्तिगत चुनाव तक संकीर्ण नहीं रह जाता।

इस तरह 'आहार का चुनाव' केवल आहारी व्यक्ति के व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का विषय नहीं है। आपका आहार समाज से लेकर वैश्विक पर्यावरण तक को प्रभावित करता है। वह सीधे सीधे वैश्विक संसाधनो को प्रभावित करता है। अप्रत्यक्ष रूप से विश्व शान्ति को प्रभावित करता है।जीव-जगत के रहन-सहन-व्यवहार ही नहीं उनके जीने के अधिकार को प्रभावित करता है। फिर भला आहार, मात्र व्यक्तिगत मुद्दा कैसे हो सकता है!!॥