सोमवार, 31 दिसंबर 2012

निरामिष निष्कर्ष

"निरामिष"सामूहिक ब्लॉग के दो वर्ष सम्पन्न. प्रस्तुत है विभिन्न आलेखोँ के प्रकाश में निरामिष निष्कर्ष.....
"निर्जर निरामिष" - अमृत है शाकाहार
"निरोगी निरामिष" - स्वास्थ्यप्रद है शाकाहार
"निर्विकार निरामिष" - विकार रहित है शाकाहार
"निरापद निरामिष" - आपदा रहित है शाकाहार
"निसर्गमित्र निरामिष" - पर्यावरण मित्र है शाकाहार
"निर्मल निरामिष" - शुद्ध सात्विक है शाकाहार
आरोग्य वर्धक (स्वास्थ्यप्रद शाकाहार) 
  1. स्वस्थ व दीर्घ जीवन का आधार है शाकाहार। 
  2. आरोग्य संवर्धक है शाकाहार। 
  3. विश्व स्वास्थ्य शाकाहार में निहित है। 
  4. रोगप्रतिरोध शक्तिवर्धक है शाकाहार। 
सभ्य-खाद्याचार (सुसंस्कृत सभ्य आहार) 
  1. अप्राकृतिक भोज्य विकृति का सुसंस्कृत रूप है शाकाहार । 
  2. आदिमयुग से विकास और सभ्यता की धरोहर है शाकाहार। 
  3. शाकाहारी संस्कृति का संरक्षण ही हमारी सुरक्षा है। 
  4. मानवीय जीवन-मूल्यों का संरक्षक है शाकाहार। 
तर्कसंगत-विकल्प (सर्वांग न्यायसंगत) 
  1. प्रागैतिहासिक मानव, प्राकृतिक रूप से शाकाहारी ही था। 
  2. मनुष्य की सहज वृति और उसकी कायिक प्रकृति दोनो ही शाकाहारी है।
  3. मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल। 
  4. शाक से अभावग्रस्त, दुर्गम क्षेत्रवासी मानवो का अनुकरण मूर्खता!!
  5. सभ्यता व विकास मार्ग का अनुगमन या भीड़ का अंधानुकरण? 
  6. यदि अखिल विश्व भी शाकाहारी हो जाय, सुलभ होगा अनाज!!
  7. भुखमरी को बढाते ये माँसाहारी और माँस-उद्योग!!
  8. शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल !!! 
  9. प्राणी से पादप : हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है। 
  10. प्रोटीन प्रलोभन का भ्रमित दुष्प्रचार।
  11. प्रोटीन मात्रा, प्रोटीन यथार्थ
  12. विटामिन्स का दुष्प्रचार।
  13. विटामिन बी12, विटामिन डी, विटामिन 'सी'।
  14. उर्ज़ा व शक्ति का दुष्प्रचार। 

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

भ्रांति मिटाने के नाम पर मांसाहार प्रचार का भ्रमजाल

सलीम खान ने कभी अपने ब्लॉग पर यह '14 बिन्दु' मांसाहार के पक्ष में प्रस्तुत किये थे। असल में यह सभी कुतर्क ज़ाकिर नाईक के है, जो यहां वहां प्रचार माध्यमों से फैलाए जाते है। वैसे तो इन फालतू कुतर्को पर प्रतिक्रिया टाली भी जा सकती थी, किन्तु  इन्टरनेट जानकारियों का स्थायी स्रोत है यहाँ ऐसे भ्रामक कुतर्क अपना भ्रमजाल फैलाएँगे तो लोगों में संशय और भ्रम स्थापित होंगे। ये कुतर्क यदि निरूत्तर रहे तो भ्रम, सच की तरह रूढ़ हो जाएंगे, इसलिए जालस्थानों में इन कुतर्कों का यथार्थ और तथ्ययुक्त खण्ड़न  उपलब्ध होना नितांत ही आवश्यक है।

मांसाहार पर यह प्रत्युत्तर-खण्ड़न, धर्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि अहिंसा और करूणा के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किए जा रहे है। मांसाहार को भले ही कोई अपने धर्म का पर्याय या प्रतीक मानता हो, जीव-हत्या किसी भी धर्म का उपदेश या सिद्धांत नहीं हो सकता। इसलिए यह खण्ड़न अगर निंदा है तो स्पष्ट रूप से यह हिंसा, क्रूरता और निर्दयता की निंदा है। गोश्तखोरी प्रायोजित हिंसा सदैव और सर्वत्र निंदनीय ही होनी चाहिए, क्योंकि इस विकार से बनती हिंसक मनोवृति समाज के शान्त व संतुष्ट जीवन ध्येय में मुख्य बाधक है।

निश्चित ही शारीरिक उर्जा पूर्ति के लिए भोजन करना आवश्यक है। किन्तु सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने के नाते, मानव इस जगत का मुखिया है। अतः प्रत्येक जीवन के प्रति, उत्तरदायित्व पूर्वक सोचना भी मानव का कर्तव्य है। सृष्टि के सभी प्राणभूत के अस्तित्व और संरक्षण के लिए सजग रहना, मानव की जिम्मेदारी है। ऐसे में आहार से उर्जा पूर्ति का निर्वाह करते हुए भी, उसका भोजन कुछ ऐसा हो कि आहार-इच्छा से लेकर, आहार-ग्रहण करने तक वह संयम और मितव्ययता से काम ले। उसका यह ध्येय होना चाहिए कि सृष्टि की जीवराशी  कम से कम खर्च हो। साथ ही उसकी भावनाएँ सम्वेदनाएँ सुरक्षित रहे, मनोवृत्तियाँ उत्कृष्ट बनी रहे। प्रकृति-पर्यावरण और स्वभाव के प्रति यह निष्ठा, वस्तुतः उसे मिली अतिरिक्त बुद्धि के बदले, कृतज्ञता भरा अवदान है। अस्तित्व रक्षा के लिए भी अहिंसक जीवन-मूल्यों को पुनः स्थापित करना मानव का कर्तव्य है। सभ्यता और विकास को आधार प्रदान के लिए सौम्य, सात्विक और सुसंस्कृत भोजन शैली को अपनाना जरूरी है।

सलीम खान के मांसाहार भ्रमजाल का खण्ड़न।

1 - दुनिया में कोई भी मुख्य धर्म ऐसा नहीं हैं जिसमें सामान्य रूप से मांसाहार पर पाबन्दी लगाई हो या हराम (prohibited) करार दिया हो.

खण्ड़न- इस तर्क से मांसाहार ग्रहणीय नहीं हो जाता। यदि यही कारण है तो  ऐसा भी कोई प्रधान धर्म नहीं, जिस ने शाकाहार पर प्रतिबंध लगाया हो। प्रतिबंध तो मूढ़ बुद्धि के लिए होते है, विवेकवान के लिए संकेत ही पर्याप्त होते है। धर्म केवल हिंसा न करने का उपदेश करते है एवं हिंसा प्रेरक कृत्यों से दूर रहने की सलाह देते है। आगे मानव के विवेकाधीन है कि आहार व रोजमर्रा के वे कौन से कार्य है जिसमें हिंसा की सम्भावना है और उससे विरत रहकर हिंसा से बचा जा सकता है। सभी धर्मों में, प्रकट व अप्रकट रूप से सभी के प्रति अहिंसा के उद्देश्य से ही दया, करूणा, रहम आदि को उपदेशित किया गया है। पाबन्दीयां, मायवी और बचने के रास्ते निकालने वालों के लिए होती है, विवेकवान के लिए तो दया, करूणा, रहम, सदाचार, ईमान में अहिंसा ही गर्भित है।

2 - क्या आप भोजन मुहैया करा सकते थे वहाँ जहाँ एस्किमोज़ रहते हैं (आर्कटिक में) और आजकल अगर आप ऐसा करेंगे भी तो क्या यह खर्चीला नहीं होगा?

खण्ड़न- अगर एस्किमोज़ मांसाहार बिना नहीं रह सकते तो क्या आप भी शाकाहार उपलब्ध होते हुए एस्किमोज़ का बहाना आगे कर मांसाहार चालू रखेंगे? खूब!! एस्किमोज़ तो वस्त्र के स्थान पर चमड़ा पहते है, आप क्यों नही सदैव उनका वेश धारण किए रहते? अल्लाह नें आर्कटिक में मनुष्य पैदा ही नहीं किये थे,जो उनके लिये वहां पेड-पौधे भी पैदा करते, लोग पलायन कर पहुँच जाय तो क्या कीजियेगा। ईश्वर नें बंजर रेगीस्तान में भी इन्सान पैदा नहीं किए। फ़िर भी स्वार्थी मनुष्य वहाँ भी पहुँच ही गया। यह तो कोई बात नहीं हुई कि  दुर्गम क्षेत्र में रहने वालों को शाकाहार उपलब्ध नहीं, इसलिए सभी को उन्ही की आहार शैली अपना लेनी चाहिए। आपका यह एस्किमोज़ की आहारवृत्ति का बहाना निर्थक है। जिन देशों में शाकाहार उपलब्ध न था, वहां मांसाहार क्षेत्र वातावरण की अपेक्षा से मज़बूरन होगा और इसीलिए उसी वातावरण के संदेशकों-उपदेशकों नें मांसाहार पर उपेक्षा का रूख अपनाया होगा। लेकिन यदि उपलब्ध हो तो, सभ्य व सुधरे लोगों की पहली पसंद शाकाहार ही होता है। जहां सात्विक पौष्ठिक शाकाहार प्रचूरता से उपलब्ध है वहां जीवों को करूणा दान या अभयदान दे देना चाहिए। सजीव और निर्जीव एक गहन विषय है। जीवन वनस्पतियों आदि में भी है, लेकिन प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है। आप लोग दबी जुबां से कहते भी हो कि "मुसलमान, शाकाहारी होकर भी एक अच्छा मुसलमान हो सकता है" फ़िर मांसाहार की इतनी ज़िद्द ही क्यों?, और एक 'अच्छा मुसलमान' बनने से भला इतना परहेज भी क्यों ?

3 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनमें भी जीवन होता है.
4 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनको भी दर्द होता है.
5 - अगर मैं यह मान भी लूं कि उनमें जानवरों के मुक़ाबले कुछ इन्द्रियां कम होती है या दो इन्द्रियां कम होती हैं इसलिए उनको मारना और खाना जानवरों के मुक़ाबले छोटा अपराध है| मेरे हिसाब से यह तर्कहीन है.

खण्ड़न- इस विषय पर जानने के लिए शाकाहार मांसाहार की हिंसा के सुक्ष्म अन्तर  को समझना होगा। साथ ही हिंसा में विवेक  करना होगा। स्पष्ट हो जाएगा कि जीवहिंसा प्रत्येक कर्म में है, किन्तु हम विवेकशील है,  हमारा कर्तव्य बनता है, हम वह रास्ता चुनें जिसमे जीव हिंसा कम से कम हो। किन्तु आपके तर्क की सच्चाई यह है कि वनस्पति हो या पशु-पक्षी, उनमें जान साबित करके भी आपको किसी की जान बचानी नहीं है। आपको वनस्पति जीवन पर करूणा नहीं उमड़ रही, हिंसा अहिंसा आपके लिए अर्थहीन है, आपको तो मात्र सभी में जीव साबित करके फिर बडे से बडे प्राणी और बडी से बडी हिंसा का चुनाव करना है।

"एक यह भी कुतर्क दिया जाता है कि शाकाहारी सब्जीयों को पैदा करनें के लिये आठ दस प्रकार के जंतु व कीटों को मारा जाता है।"

खण्ड़न- इन्ही की तरह कुतर्क करने को दिल चाहता है………
भाई, इतनी ही अगर सभी जीवों पर करूणा आ रही है,और जब दोनो ही आहार हिंसाजनक है तो दोनो को छोड क्यों नहीं देते?  दोनो नहीं तो पूरी तरह से किसी एक की तो कुर्बानी(त्याग) करो…॥ कौन सा करोगे????


"ऐसा कोनसा आहार है,जिसमें हिंसा नहीं होती।"

खण्ड़न- यह कुतर्क ठीक ऐसा है कि 'वो कौनसा देश है जहां मानव हत्याएं नहीं होती?' इसलिए मानव हत्याओं को जायज मान लिया जाय? उसे सहज ही स्वीकार कर लिया जाय? और उसे बुरा भी न कहा जाय? आपका आशय यह है कि, जब सभी में जीवन हैं, और सभी जीवों का प्राणांत, हिंसादोष है तो सबसे उच्च्तम, क्रूर, घिघौना बडे जीव की हत्या का दुष्कर्म ही क्यों न अपनाया जाय? यह तो सरासर समझ का दिवालियापन है!!

तर्क से तो बिना जान निकले पशु शरीर मांस में परिणित हो ही नहीं सकता। तार्किक तो यह है कि किसी भी तरह का मांस हो, अंततः मुर्दे का ही मांस होगा। उपर से तुर्रा यह है कि हलाल तरीके से काटो तो वह मुर्दा नहीं । मांस के लिये जीव की जब हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मख्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मख्खियों को कैसे आभास हो जाता है। उसी क्षण से वह मांस मख्खियों के लार्वा का भोजन बनता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही लगभग 563 तरह के सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार किया जाता है वह जगह व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी जीव ही होते है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मख्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव, और हज़ारों रोगाणु होते है। कहो, किसमें जीव हिंसा ज्यादा है।, मुर्दाखोरी में या अनाज दाल फ़ल तरकारी में?

रही बात इन्द्रिय के आधार पर अपराध की तो जान लीजिए कि हिंसा तो अपराध ही है बस क्रूरता और सम्वेदनाओं के स्तर में अन्तर है। जिस प्रकार किसी कारण से गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो होने वाले दुख की मात्रा व तीव्रता बढ़ती जाती है। कम से अधिकतम दुख महसुस होता है क्योंकि इसका सम्बंध भाव से है। उसी तरह अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा पर क्रूर भाव की श्रेणी बढती जाती है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। सम्वेदना भी अधिक से अधिक कुंदओ जानी चाहिए। आप कम इन्द्रिय पर अधिक करूणा की बात करते है न, क्या विकलेन्द्रिय भाई के अपराध के लिए इन्द्रिय पूर्ण भाई को फांसी दे देना न्यायोचित होगा? यदि दोनो में से किसी एक के जीवन की कामना करनी पडे तो किसके पूर्ण जीवन की कामना करेंगे? विकलेन्द्रिय या पूर्णइन्द्रिय?

6 -इन्सान के पास उस प्रकार के दांत हैं जो शाक के साथ साथ माँस भी खा/चबा सकता है.

7 - और ऐसा पाचन तंत्र जो शाक के साथ साथ माँस भी पचा सके. मैं इस को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध भी कर सकता हूँ | मैं इसे सिद्ध कर सकता हूँ.

खण्ड़न- मानते है इन्सान कुछ भी खा/चबा सकता है, किन्तु प्राकृतिक रूप से वह शिकार करने के काबिल हर्गिज नहीं है।  वे दांत शिकार के अनुकूल नहीं है। उसके पास तेज धारदार पंजे भी नहीं है। मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल है। मानव प्रकृति से शाकाहारी ही है। खाने चबाने को तो हमने लोगों को कांच चबाते देखा है, जहर और नशीली वस्तुएँ पीते पचाते देखा है। मात्र खाने पचाने का सामर्थ्य हो जाने भर से जहर, कीचड़, कांच मिट्टी आदि उसके प्राकृतिक आहार नहीं हो जाते। ‘खाओ जो पृथ्वी पर है’ का मतलब यह नहीं कि कहीं निषेध का उल्लेख न हो तो धूल, पत्थर, जहर, एसीड आदि भी खा लिया जाय। इसलिए ऐसे किसी बेजा तर्क से मांसहार करना तर्कसंगत सिद्ध नहीं हो जाता।

8 - आदि मानव मांसाहारी थे इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि यह प्रतिबंधित है मनुष्य के लिए | मनुष्य में तो आदि मानव भी आते है ना.

खण्ड़न- हां, देखा तो नहीं, पर सुना अवश्य था कि आदि मानव मांसाहारी थे। पर नवीनतम जानकारी तो यह भी मिली कि प्रगैतिहासिक मानव शाकाहारी था। यदि फिर भी मान लें कि वे मांसाहारी थे तो बताईए शिकार कैसे करते थे? अपने उन दो छोटे भोथरे दांतो से? या कोमल नाखूनो से? मानव तो पहले से ही शाकाहारी रहा है, उसकी मां के दूध के बाद उसकी पहली पहचान फलों - सब्जियों से हुई होगी। जब कभी कहीं, शाकाहार का अभाव रहा होगा तो पहले उसने हथियार बनाए होंगे फ़िर मांसाहार किया होगा। यानि हथियारों के अविष्कार के पहले वह फ़ल फ़ूल पर ही आश्रित था।

लेकिन फिर भी इस कुतर्क की जिद्द है तो, आदि युग में तो आदिमानव नंगे घुमते थे, क्या हम आज उनका अनुकरण करें? वे अगर सभ्यता के लिए अपनी नंगई छोड़ कर परिधान धारी बन सकते है तो हम आदियुगीन मांसाहारी से सभ्ययुगीन शाकाहारी क्यों नहीं बन सकते? हमारे आदि पूर्वजों ने इसी तरह विकास साधा है हम क्या उस विकास को आगे भी नहीं बढ़ा सकते?

9 - जो आप खाते हैं उससे आपके स्वभाव पर असर पड़ता है - यह कहना 'मांसाहार आपको आक्रामक बनता है' का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है.

खण्ड़न- इसका तात्पर्य ऐसा नहीं कि हिंसक पशुओं के मांस से हिंसक,व शालिन पशुओं के मांस से शालिन बन जाओगे।

इसका तात्पर्य यह है कि जब आप बार बार बड़े पशुओं की अत्यधिक क्रूरता से हिंसा करते है तब ऐसी हिंसा, और हिंसा से उपजे आहार के कारण, हिंसा के प्रति सम्वेदनशीलता खत्म हो जाती है। क्रूर मानसिकता पनपती है और हिंसक मनोवृति बनती है। ऐसी मनोवृति के कारण आवेश आक्रोश द्वेष सामान्य सा हो जाता है। क्रोधावेश में हिंसक कृत्य भी सामान्य होता चला जाता है। इसलिए आवेश आक्रोश की जगह कोमल संवेदनाओं का संरक्षण जरूरी है। जैसे- रोज रोज कब्र खोदने वाले के चहरे का भाव कभी देखा है?,पत्थर की तरह सपाट चहरा। क्या वह मरने वाले के प्रति जरा भी संवेदना या सहानुभूति दर्शाता है? वस्तुतः उसके बार बार के यह कृत्य में सलग्न रहने से, मौत के प्रति उसकी सम्वेदनाएँ मर जाती है।

10 - यह तर्क देना कि शाकाहार भोजन आपको शक्तिशाली बनाता है, शांतिप्रिय बनाता है, बुद्धिमान बनाता है आदि मनगढ़ंत बातें है.

खण्ड़न- हाथ कंगन को आरसी क्या?, यदि शाकाहारी होने से कमजोरी आती तो मानव कब का शाकाहार और कृषी छोड चुका होता। कईं संशोधनों से यह बात उभर कर आती रही है कि शाकाहार में शक्ति के लिए जरूरी सभी पोषक पदार्थ है। बाकी शक्ति सामर्थ्य के प्रतीक खेलो के क्षेत्र में अधिकांश खिलाडी शाकाहार अपना रहे है। कटु सत्य तो यह है कि शक्तिशाली, शांतिप्रिय, बुद्धिमान बनाने के गुण मांसाहार में तो बिलकुल भी नहीं है।

11 - शाकाहार भोजन सस्ता होता है, मैं इसको अभी खारिज कर सकता हूँ, हाँ यह हो सकता है कि भारत में यह सस्ता हो. मगर पाश्चात्य देशो में यह बहुत कि खर्चीला है खासकर ताज़ा शाक.

खण्ड़न- भाड में जाय वो बंजर पाश्चात्य देश जो ताज़ा शाक पैदा नहीं कर सकते!! भारत में यह सस्ता और सहज उपलब्ध है तब यहां तो शाकाहार अपना लेना बुद्धिमानी है। सस्ते महंगे की सच्चाई तो यह है कि पशु से 1 किलो मांस प्राप्त करने के लिए उन्हें 13 किलो अनाज खिला दिया जाता है, उपर से पशु पालन उद्योग में बर्बाद होती है विशाल भू-सम्पदा, अनियंत्रित पानी का उपयोग निश्चित ही पृथ्वी पर भार है। मात्र  भूमि का अन्न उत्पादन के लिए प्रयोग हो तो निश्चित ही अन्न सभी जगह अत्यधिक सस्ता हो जाएगा। बंजर निवासियों को कुछ अतिरिक्त खर्चा करना पडे तब भी उनके लिए सस्ता सौदा होगा।

12 - अगर जानवरों को खाना छोड़ दें तो इनकी संख्या कितनी बढ़ सकती, अंदाजा है इसका आपको.

खण्ड़न- अल्लाह का काम आपने ले लिया? अल्लाह कहते है इन्हें हम पैदा करते है।

जो लोग ईश्वरवादी है, वे तो अच्छी तरह से जानते है, संख्या का बेहतर प्रबंधक ईश्वर ही है।

जो लोग प्रकृतिवादी है वे भी जानते है कि प्रकृति के पास जैव सृष्टि के संतुलन का गजब प्लान है।

करोडों साल से जंगली जानवर और आप लोग मिलकर शाकाहारी पशुओं को खाते आ रहे हो, फ़िर भी जिस प्रजाति के जानवरों को खाया जाता है, बिलकुल ही विलुप्त या कम नहीं हुए। उल्टे मांसाहारी पशु अवश्य विलुप्ति की कगार पर है। सच्चाई तो यह है कि जो जानवर खाए जाते है उनका बहुत बडे पैमाने पर उत्पादन होता है। जितनी माँग होगी उत्पादन उसी अनुपात में बढता जाएगा। अगर नही खाया गया तो उत्पादन भी नही होगा।

13 -कहीं भी किसी भी मेडिकल बुक में यह नहीं लिखा है और ना ही एक वाक्य ही जिससे यह निर्देश मिलता हो कि मांसाहार को बंद कर देना चाहिए.

खण्ड़न- मेडिकल बुक किसी धार्मिक ग्रंथ की तरह 'अंतिम सत्य' नहीं है। वह इतनी इमानदार है कि कल को यदि कोई नई शोध प्रकाश मेँ आए तो वह अपनी 'बुक' में इमानदारी से परिवर्तन-परिवर्धन कर देगी। शाकाहार के श्रेष्ठ विकल्प पर अभी तक गम्भीर शोध-खोज नहीं हुई है। किन्तु सवाल जब मानव स्वास्थ्य का है तो कभी न कभी यह तथ्य अवश्य उभर कर आएगा कि मांसाहार मनुष्य के स्वास्थ्य के बिलकुल योग्य नहीं है। और फिर माँसाहार त्याग का उपाय सहज हो,अहानिकर हो तो माँसाहार से निवृति का स्वागत होना चाहिए। मेडिकल बुक में भावनाओं और सम्वेदनाओं पर कोई उल्लेख या निर्देश नहीं होता, तो क्या भावनाओं और सम्वेदनाओं की उपयोगिता महत्वहीन हो जाती है? यह भी ध्यान रहे भावोँ के कईं तथ्य और तत्व इस मेडिकल बुक में नहीं है, उस दशा में उस अन्तिम बुक को निरस्त कर देँगे जिस में किसी भी तरह का परिवर्तन ही सम्भव नहीं?

14 - और ना ही इस दुनिया के किसी भी देश की सरकार ने मांसाहार को सरकारी कानून से प्रतिबंधित किया है.

खण्ड़न- सरकारें क्यों प्रतिबंध लगायेगी? जबकि उसके निति-नियंता भी इसी समाज की देन है, यहीं से मानसिकता और मनोवृतियां प्राप्त करते है। लोगों का आहार नियत करना सरकारों का काम नहीं है।यह तो हमारा फ़र्ज़ है, हम विवेक से उचित को अपनाएं, अनुचित को दूर हटाएं। उदाहरण के लिए झुठ पर सरकारी कानून से प्रतिबंध कहीं भी नहीं लगाया गया है। फिर भी सर्वसम्मति से झूठ को बुरा माना जाता है। किसी प्रतिबंध से नहीं बल्कि नैतिक प्रतिबद्धता से हम झूठ का व्यवहार नहीं करते। कानून सच्च बोलने के लिए मजबूर नहीं कैसे कर पाएगा?  इसीलिए सच पाने के लिए अदालतों को धर्मशास्त्रों शपथ दिलवानी पडती है। ईमान वाला व्यक्ति इमान से ही सच अपनाता है और झूठ न बोलने को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर बचता है। उसी तरह अहिंसक आहार को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर अपनाना होता है।

हर प्राणी में जीवन जीने की अदम्य इच्छा होती है, यहां तक की कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के प्रतिकार की शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं से प्रतिकार शक्ति पैदा कर लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जिजीविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता।

इसलिए, 'ईमान' और 'रहम' की बात करने वाले 'शान्तिपसंद' मानव का यह फ़र्ज़ है कि वह जीए और जीने दे।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

मांसाहार प्रचारकों के कुतर्की जाल का खण्ड़न।

मांसाहारी प्रचारक:- - "हिन्दू मत अन्य धर्मों से प्रभावित"

“हालाँकि हिन्दू धर्म ग्रन्थ अपने मानने वालों को मांसाहार की अनुमति देते हैं, फिर भी बहुत से हिन्दुओं ने शाकाहारी व्यवस्था अपना ली, क्यूंकि वे जैन जैसे धर्मों से प्रभावित हो गए थे.”

प्रत्युत्तर : वैदिक मत प्रारम्भ से ही अहिंसक और शाकाहारी रहा है, यह देखिए-

य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)

-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !

अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)

-हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)

-किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)

-सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)

- मारने की अनुमति देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।

इस स्पष्ट  सच्चाई को जानने के बाद, मात्र जैन-मार्ग से प्रभावित मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। हां, अवार्चिन में, आगे चलकर बहुत बाद में प्रवर्तित, यज्ञों में पशुबलि रूप कुरीति का विरोध अवश्य जैन मत या बौद्ध मत नें किया होगा, लेकिन वह मात्र परिमार्जन था। फिर भी अगर प्रभावित भी हुआ हो तो वह अपने ही सिद्धान्तों का जीर्णोद्धार था । सुसंस्कृति अगर किसी भी संसर्ग से प्रगाढ होती है तो उसमें बुरा क्या है? क्या मात्र इसलिये कि अहिंसा आपकी अवधारणाओं से मेल नहीं खाती? धर्म का मूल अहिंसा, सर्वे भवन्तु सु्खिनः सूक्त के लिए एक आवश्यक सिद्धांत है। यह भारतीय संस्कृति का यथार्थ है।

मांसाहारी प्रचारक:- - "पेड़ पौधों में भी जीवन"

“कुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार अपना लिया क्यूंकि वे पूर्णरूप से जीव-हत्या से विरुद्ध है. अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता. आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है. अतः जीव हत्या के सम्बन्ध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता.”

प्रत्युत्तर : अतीत में ऐसे किन लोगों का मानना था कि पेड़-पौधो में जीवन नहीं है? ऐसी 'ज़ाहिल' सभ्यताएं कौन थी? आर्यावर्त में तो सभ्यता युगारम्भ में ही पुख्त बन चुकी थी, अहिंसा में आस्था रखने वाली आर्य सभ्यता न केवल वनस्पति में बल्कि पृथ्वी, वायु, जल और अग्नी में भी जीवन को प्रमाणित कर चुकी थी, जबकि विज्ञान को अभी वहां तक पहुंचना शेष है। अहिंसा की अवधारणा, हिंसा को न्यून से न्यूनत्तम करने की है और उसके लिए शाकाहार ही श्रेष्ठ माध्यम है।

मांसाहारी प्रचारक:- - "पौधों को भी पीड़ा होती है"

“वे आगे तर्क देते हैं कि पौधों को पीड़ा महसूस नहीं होती, अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है. आज विज्ञान कहता है कि पौधे भी पीड़ा महसूस करते हैं …………अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का अविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है. जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को तुंरत ज्ञान हो जाता था. वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते है कि पौधे भी पीड़ा, दुःख-सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं.”

प्रत्युत्तर : हाँ, उसके बाद भी सूक्ष्म हिंसा कम अपराध ही है, इसी में अहिंसक मूल्यों की सुरक्षा है। एक उदा्हरण से समझें- यदि प्रशासन को कोई मार्ग चौडा करना हो, उस मार्ग के एक तरफ विराट निर्माण बने हुए हो, जबकि दूसरी तरफ छोटे साधारण छप्परनुमा अवशेष हो तो प्रशासन किस तरफ के निर्माण को ढआएगा? निश्चित ही वे साधारण व कम व्यय के निर्माण को ही हटाएंगे।  जीवन के विकासक्रम की दृष्टि से अविकसित या अल्पविकसित जीवन की तुलना में अधिक विकसित जीवों को मारना बड़ा अपराध है। रही बात पीड़ा की तो, अगर जीवन है तो पीडा तो होगी ही, वनस्पति जीवन को तो छूने मात्र से उन्हे मरणान्तक पीडा होती है। पर बेहद जरूरी उनकी पीडा को सम्वेदना से महसुस करना। सवाल उनकी पीड़ा से कहीं अधिक, हमारी सम्वेदनाओं को पहुँचती चोट की पीडा का है।जैसे कि, किसी कारण से बालक की गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो, जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो। कहिए किस मृत्यु पर हमें अधिक दुख होगा? निश्चित ही अधिक विकसित होने पर दुख अधिक ही होगा। छोटे से बडे में क्रमशः  हमारे दुख व पीडा महसुस करने में अधिकता आएगी। क्योंकि इसका सम्बंध हमारे भाव से है। जितना दुख ज्यादा, उसे मारने के लिए इतने ही अधिक क्रूर भाव चाहिए। अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा करने पर क्रूर भाव की श्रेणी बढती जाती है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक असम्वेदनशीलता की आवश्यकता रहती है, अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। इसलिए प्राणहीन होते जीव की पीड़ा से कहीं अधिक, हमारी मरती सम्वेदनाओं की पीड़ा का सवाल है।

मांसाहारी प्रचारक:- - "दो इन्द्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहीं !!!"

“एक बार एक शाकाहारी ने तर्क दिया कि पौधों में दो अथवा तीन इन्द्रियाँ होती है जबकि जानवरों में पॉँच होती हैं| अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुक़ाबले छोटा अपराध है.”

"कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, दुसरे मनुष्य के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं. वह जवान होता है और कोई उसकी हत्या कर देता है तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह हत्या करने वाले (दोषी) को कम दंड दें क्यूंकि आपके भाई की दो इन्द्रियाँ कम हैं. वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे. वास्तव में आपको यह कहना चाहिए उस अपराधी ने एक निर्दोष की हत्या की है और न्यायधीश को उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिए."

प्रत्युत्तर : एकेन्द्रिय  और पंचेन्द्रिय को समझना आपके बूते से बाहर की बात है, क्योकि आपके उदाहरण से ही लग रहा है कि उसे समझने का न तो दृष्टिकोण आपमें है न वह सामर्थ्य। किसी भी पंचेन्द्रिय प्राणी में, एक दो या तीन इन्द्रिय कम होने से, वह चौरेन्द्रिय,तेइन्द्रिय,या बेइन्द्रिय नहीं हो जाता, रहेगा वह पंचेन्द्रिय ही। वह विकलांग (अपूर्ण इन्द्रिय) अवश्य माना जा सकता है, किन्तु पाँचो इन्द्रिय धारण करने की योग्यता के कारण वह पंचेन्द्रिय ही रहता है। उसका आन्तरिक इन्द्रिय सामर्थ्य सक्रिय रहता है। जीव के एकेन्द्रीय से पंचेन्द्रीय श्रेणी मुख्य आधार, उसके इन्द्रिय अव्यव नहीं बल्कि उसकी इन्द्रिय शक्तियाँ है। नाक कान आदि तो उपकरण है, शक्तियाँ तो आत्मिक है।और रही बात सहानुभूति की तो निश्चित ही विकलांग के प्रति सहानुभूति अधिक ही होगी। अधिक कम क्या, दया और करूणा तो प्रत्येक जीव के प्रति होनी चाहिए, किन्तु व्यवहार का यथार्थ उपर दिए गये पीड़ा व दुख के उदाहरण से स्पष्ट है। भारतीय संसकृति में अभयदान देय है, न्यायाधीश बनकर सजा देना लक्ष्य नहीं है।क्षमा को यहां वीरों का गहना कहा जाता है, भारतिय संसकृति को यूँ ही उदार व सहिष्णुता की उपमाएं नहीं मिल गई। विवेक यहाँ साफ कहता है कि अधिक इन्द्रीय समर्थ जीव की हत्या, अधिक क्रूर होगी।

आपको तो आपके ही उदाह्रण से समझ आ सकता है………

कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, आप के दूसरे भाई के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं। वह जवान होता है, और वह किसी आरोप में फांसी की सजा पाता है ।तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह उस भाई को छोड दें, क्यूंकि इसकी दो इन्द्रियाँ कम हैं, और वह सज़ा-ए-फांसी की पीड़ा को महसुस तो करेगा पर चिल्ला कर अभिव्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए यह फांसी उसके बदले, इस दूसरे भाई को दे दें जिसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं, यह मर्मान्तक जोर से चिल्लाएगा, तडपेगा, स्वयं की तड़प देख, करूण रुदन करेगा, इसे ही मृत्यु दंड़ दिया जाय। क्या आप ऐसा करेंगे? किन्तु वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे। क्योंकि आप तो समझदार(?) जो है। ठीक उसी तरह वनस्पति के होते हुए भी बड़े पशु की घात कर मांसाहार करना बड़ा अपराध है।

यह यथार्थ है कि हिंसा तो वनस्पति के आहार में भी है। पर विवेक यह कहता है कि जितना हिंसा से बचा जाये, बचना चाहिये। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही हमारे सम्वेदनशील मानवीय जीवन मूल्य है। वनस्पति आदि सुक्ष्म को आहार बनाने के लिए हमें क्रूर व निष्ठुर भाव नहीं बनाने पडते, किन्तु पंचेन्द्रिय प्राणी का वध कर अपना आहार बनाने से लेकर,आहार ग्रहण करने तक, हमें बेहद क्रूर भावों और निष्ठुर मनोवृति की आवश्यकता होती है। अपरिहार्य हिंसा में भी द्वेष व क्रूर भावों के दुष्प्रभाव से  अपने मानस को सुरक्षित रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही तो भाव अहिंसा है। अहिंसक मनोवृति के निर्माण की यह मांग है कि बुद्धि, विवेक और सजगता से हम हिंसकभाव से विरत रहें और अपरिहार्य हिंसा को भी छोटी से छोटी बनाए रखें, सुक्ष्म से सुक्ष्मतर करें, न्यून से न्यूनत्तम करें, अपने भोग को संयमित करते चले जाएं।

अब रही बात जैन मार्ग की तो, जैन गृहस्थ भी प्रायः जैसे जैसे त्याग में समर्थ होते जाते है, वैसे वैसे, योग्यतानुसार शाकाहार में भी, अधिक हिन्साजन्य पदार्थो का त्याग करते जाते है। वे शाकाहार में भी हिंसा त्याग बढ़ाने के उद्देश्य से कन्दमूल, हरी पत्तेदार सब्जीओं आदि का भी त्याग करते है।और इसी तरह स्वयं को कम से कम हिंसा की ओर बढ़ाते चले जाते है।

जबकि मांसाहार में, मांस केवल क्रूरता और प्राणांत की उपज ही नहीं, बल्कि उस उपजे मांस में सडन गलन की प्रक्रिया भी तेज गति से होती है। परिणाम स्वरूप जीवोत्पत्ति भी तीव्र व बहुसंख्य होती है।सबसे भयंकर तथ्य तो यह है कि पकने की प्रक्रिया के बाद भी उसमे जीवों की उत्पत्ति निरन्तर जारी रहती है। अधिक जीवोत्पत्ति और रोग की सम्भावना के साथ साथ यह महाहिंसा का कारण है। अपार हिंसा और हिंसक मनोवृति के साथ क्रूरता ही मांसाहार निषेध का प्रमुख कारण है।

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

फलों में पोषक तत्व

फल : आम

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)

 एक मध्यम आकार(कप परिमाण)के आम में 1.06 grams प्रोटीन, 135 केलरीज, और 3.7 grams खाद्य रेशे होते है।

खनिज राशी अन्तर्विष्ट 

Potassium - 323 mg 

Phosphorus - 23 mg 

Magnesium - 19 mg 

Calcium - 21 mg 

Sodium - 4 mg 

Iron - 0.27 mg 

Selenium 1.2 mcg 

Manganese - 0.056 mg 

Copper - 0.228 mg 

Zinc - 0.08 mg 

Also contains small amounts of other minerals. 

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 

Vitamin A - 1584 IU 

Vitamin B1 (thiamine) - 0.12 mg 

Vitamin B2 (riboflavin) - 0.118 mg 

Niacin - 1.209 mg 

Folate - 29 mcg 

Pantothenic Acid - 0.331 mg 

Vitamin B6 - 0.227 mg 

Vitamin C - 57.3 mg 

Vitamin E - 2.32 mg 

Vitamin K - 8.7 mcg 

Contains some other vitamins in small amounts.

फल : स्ट्रॉबेरी
(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)

एक कप परिमाण की स्ट्रॉबेरी में 0.96 grams प्रोटीन, 46 केलरीज, और 2.9 grams खाद्य रेशे होते है।
खनिज राशी अन्तर्विष्ट
Potassium - 220 mg
Phosphorus - 35 mg
Magnesium - 19 mg
Calcium - 23 mg
Sodium - 1 mg
Iron - 0.59 mg
Selenium 0.6 mcg
Manganese - 0.556 mg
Copper - 0.069 mg
Zinc - 0.2 mg
Also contains small amounts of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट
Vitamin A - 17 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.035 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.032 mg
Niacin - 0.556 mg
Folate - 35 mcg
Pantothenic Acid - 0.18 mg
Vitamin B6 - 0.068 mg
Vitamin C - 84.7 mg
Vitamin E - 0.42 mg
Vitamin K - 3.2 mcg
Contains some other vitamins in small amounts.

फल : संतरा

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)



एक मध्यम आकार के संतरे में 1.23 grams प्रोटीन, 62 केलरीज, और 3.1 grams खाद्य रेशे होते है। 
खनिज राशी अन्तर्विष्ट 
Potassium - 237 mg
Phosphorus - 18 mg
Magnesium - 13 mg
Calcium - 52 mg
Iron - 0.13 mg
Selenium 0.7 mcg
Manganese - 0.033 mg
Copper - 0.059 mg
Zinc - 0.09 mg
Also contains small amounts of other minerals.


विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 
Vitamin A - 295 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.114 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.052 mg
Niacin - 0.369 mg
Folate - 39 mcg
Pantothenic Acid - 0.328 mg
Vitamin B6 - 0.079 mg
Vitamin C - 69.7 mg
Vitamin E - 0.24 mg
Contains some other vitamins in small amounts.

फल : टमाटर

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)



एक मध्यम आकार के टमाटर में 1.08 grams प्रोटीन, 22 केलरीज, और 1.5 grams खाद्य रेशे होते है। 
खनिज राशी अन्तर्विष्ट 
Potassium - 292 mg
Phosphorus - 30 mg
Magnesium - 14 mg
Calcium - 12 mg
Sodium - 6 mg
Iron - 0.33 mg
Manganese - 0.14 mg
Copper - 0.073 mg
Zinc - 0.21 mg
Also contains small amounts of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 
Vitamin A - 1025 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.046 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.023 mg
Niacin - 0.731 mg
Folate - 18 mcg
Pantothenic Acid - 0.109 mg
Vitamin B6 - 0.098 mg
Vitamin C - 15.6 mg
Vitamin E - 0.66 mg
Vitamin K - 9.7 mcg
Contains some other vitamins in small
फल : स्ट्रॉबेरी
(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)

एक कप परिमाण की स्ट्रॉबेरी में 0.96 grams प्रोटीन, 46 केलरीज, और 2.9 grams खाद्य रेशे होते है।
खनिज राशी अन्तर्विष्ट
Potassium - 220 mg
Phosphorus - 35 mg
Magnesium - 19 mg
Calcium - 23 mg
Sodium - 1 mg
Iron - 0.59 mg
Selenium 0.6 mcg
Manganese - 0.556 mg
Copper - 0.069 mg
Zinc - 0.2 mg
Also contains small amounts of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट
Vitamin A - 17 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.035 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.032 mg
Niacin - 0.556 mg
Folate - 35 mcg
Pantothenic Acid - 0.18 mg
Vitamin B6 - 0.068 mg
Vitamin C - 84.7 mg
Vitamin E - 0.42 mg
Vitamin K - 3.2 mcg
Contains some other vitamins in small amounts.

फल :खरबूजा

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)

एक मध्यम आकार खरबूजे की चीरी में 0.58 grams प्रोटीन, 23 केलरीज, और 0.6 grams खाद्य रेशे होते है।

खनिज राशी अन्तर्विष्ट
Potassium - 184 mg
Phosphorus - 10 mg
Magnesium - 8 mg
Calcium - 6 mg
Sodium - 11 mg
Iron - 0.14 mg
Selenium 0.3 mcg Manganese - 0.028 mg
Copper - 0.028 mg
Zinc - 0.12 mg
Also contains small amounts of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट
Vitamin A - 2334 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.028 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.013 mg
Niacin - 0.506 mg
Folate - 14 mcg
Pantothenic Acid - 0.072 mg
Vitamin B6 - 0.05 mg
Vitamin C - 25.3 mg
Vitamin E - 0.03 mg
Vitamin K - 1.7 mcg
Contains some other vitamins in small amounts.

फल : अंगूर 

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)




कप परिमाण के अंगूरों में 1.09 grams प्रोटीन, 104 केलरीज, और 1.4 grams खाद्य रेशे होते है।

खनिज राशी अन्तर्विष्ट
Potassium - 288 mg
Phosphorus - 30 mg
Magnesium - 11 mg
Calcium - 15 mg
Sodium - 3 mg
Iron - 0.54 mg
Selenium 0.2 mcg
Manganese - 0.107 mg
Copper - 0.192 mg
Zinc - 0.11 mg
Also contains small amounts of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट
Vitamin A - 100 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.104 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.106 mg
Niacin - 0.284 mg
Folate - 3 mcg
Pantothenic Acid - 0.076 mg
Vitamin B6 - 0.13 mg
Vcg 
Contains some other vitamins in small amounts. 

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

फलों में पोषक तत्व : अनार

 

फल : अनार

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)




एक कप परिमाण अनार में 4.21 grams प्रोटीन, 112 केलरीज, और 8.9 grams खाद्य रेशे होते है। 
खनिज राशी अन्तर्विष्ट 
Potassium - 666 mg
Phosphorus - 102 mg
Magnesium - 34 mg 
Calcium - 28 mg 
Sodium - 8 mg 
Iron - 0.85 mg 
Selenium 1.4 mcg 
Manganese - 0.336 mg 
Copper - 0.446 mg 
Zinc - 0.99 mg
Also contains small amounts of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 
Vitamin B1 (thiamine) - 0.189 mg 
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.149 mg 
Niacin - 0.826 mg Folate - 107 mcg 
Pantothenic Acid - 1.063 mg 
Vitamin B6 - 0.211 mg 
Vitamin C - 28.8 mg 
Vitamin E - 1.69 mg 
Vitamin K - 46.2 mcg
Contains some other vitamins in small amounts.

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

फलों में पोषक तत्व : पपैया

 

फल : पपैया

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)





एक कप परिमाण ताज़ा पपैया में 0.85 grams प्रोटीन,55 केलरीज, और 2.5 grams खाद्य रेशे होते है।

खनिज राशी अन्तर्विष्ट 
Potassium - 360 mg
Phosphorus - 7 mg
Magnesium - 14 mg
Calcium - 34 mg
Sodium - 4 mg
Iron - 0.14 mg
Selenium 0.8 mcg
Zinc - 0.1 mg
Manganese - 0.015 mg
Copper - 0.022 mg
Also contains small amounts of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 
Vitamin A - 1532 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.038 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.045 mg
Niacin - 0.473 mg
Folate - 53 mcg
Pantothenic Acid - 0.305 mg
Vitamin B6 - 0.027 mg
Vitamin C - 86.5 mg
Vitamin E - 1.02 mg
Vitamin K - 3.6 mcg
Contains some other vitamins in small amounts.

सूची साभार : United States Department of Agriculture (USDA) Food & Nutrition Center.

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

फलों में पोषक तत्व : केला

फल : 'केला' 

 (इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)


एक मध्यम आकार के केले में 1.29 grams प्रोटीन, 105 केलरीज, और 3.1 grams खाद्य रेशे होते है। 

खनिज राशी अन्तर्विष्ट 
Potassium - 422 mg 
Phosphorus - 26 mg 
Magnesium - 32 mg 
Calcium - 6 mg 
Sodium - 1 mg Iron - 0.31 mg 
Selenium 1.2 mcg 
Manganese - 0.319 mg 
Copper - 0.092 mg 
Zinc - 0.18 mg 
Also contains small amounts of other minerals. 

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 
Vitamin A - 76 IU 
Vitamin B1 (thiamine) - 0.037 mg 
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.086 mg 
Niacin - 0.785 mg 
Folate - 24 mcg 
Pantothenic Acid - 0.394 mg 
Vitamin B6 - 0.433 mg 
Vitamin C - 10.3 mg 
Vitamin E - 0.12 mg 
Vitamin K - 0.6 mcg 
Contains some other vitamins in small amounts.

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

फलों में पोषक तत्व : अमरूद

 

फल : अमरूद 

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)



एक मध्यम आकार(कप परिमाण)के अमरूद में 4.21 grams प्रोटीन, 112 केलरीज, और 8.9 grams खाद्य रेशे होते है। 
खनिज राशी अन्तर्विष्ट 
Potassium - 688 mg 
Phosphorus - 66 mg 
Magnesium - 36 mg 
Calcium - 30 mg 
Sodium - 3 mg
Iron - 0.43 mg 
Selenium 1 mcg 
Manganese - 0.247 mg 
Copper - 0.38 mg 
Zinc - 0.38 mg 
Also contains small amounts of other minerals. 

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 
Vitamin A - 1030 IU 
Vitamin B1 (thiamine) - 0.111 mg 
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.066 mg 
Niacin - 1.789 mg 
Folate - 81 mcg 
Pantothenic Acid - 0.744 mg 
Vitamin B6 - 0.181 mg 
Vitamin C - 376.7 mg 
Vitamin E - 1.2 mg 
Vitamin K - 4.3 mcg 
Contains some other vitamins in small amounts.

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

फलों में पोषक तत्व : सेब

फल : 'सेब'

(इनमें केवल वे पोषक तत्व सूचीबद्ध है जो उल्लेखनीय मात्रा में उपस्थित होते हैं।)


एक मध्यम आकार की छिलके सहित सेब में  0.47 grams प्रोटीन, 95  केलरीज, और  4.4 grams खाद्य रेशे होते है।

खनिज राशी अन्तर्विष्ट
Potassium - 195 mg
Calcium - 11 mg
Phosphorus - 20 mg
Magnesium - 9 mg
Manganese - 0.064 mg
Iron - 0.22 mg
Sodium - 2 mg
Copper - 0.049 mg
Zinc - 0.07 mg
Also contains a trace amount of other minerals.

विटामिन राशी अन्तर्विष्ट 
Vitamin A - 98 IU
Vitamin B1 (thiamine) - 0.031 mg
Vitamin B2 (riboflavin) - 0.047 mg
Niacin - 0.166 mg
Folate - 5 mcg
Pantothenic Acid - 0.111 mg
Vitamin B6 - 0.075 mg
Vitamin C - 8.4 mg
Vitamin E - 0.33 mg
Vitamin K - 4 mcg
Contains some other vitamins in small amounts.

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

क्या मांसाहार से मनोवृति पर कोई प्रभाव नहीं पडता?

यह सत्य है कि इंसान का अच्छा या बुरा, हिंसक अहिंसक होना उसकी अपनी प्रवृत्ति है। कोई जरूरी नहीं आहार के कारण ही एक समान प्रवृति दिखे। किन्तु यह प्रवृत्तियाँ भी उसकी क्रूर-अक्रूर वृत्तियोँ के कारण ही बनती है. दृश्यमान प्रतिशत भले ही कम हो फिर भी वृत्तियों का असर मनोवृति पर पडना अवश्यंभावी है। भाव के शुभ अशुभ चिंतन से ही व्यवहार और वर्तन का निर्माण होता है.व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके व्यवहार और व्यक्तित्व में आए बिना नहीं रहता। यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि मन की भावनाओं के अनुरूप मानव-शरीर में हार्मोन्स स्राव होता है और उन हार्मोन्स का प्रभाव, मन की भावनाओं और प्रवृतियों को बदलने में समर्थ होता है।

मांस प्राप्त करने के लिए जब प्राणी की हिंसा की जाती है। निसहाय होते हुए भी मरणांतक संघर्ष करता है। जैसे भय विवशता दुख हर्ष विषाद तनाव के समय प्रत्येक जीव के शरीर में उन भावनाओं को सहने योग्य अथवा प्रतिकार योग्य रसायनों का स्राव होता है। उसी प्रकार प्राणी मरने से पहले भयक्रांत होता है, जीवन बचाने की जिजीविषा में संघर्ष करता है। तड़पता है। उसके शरीर में भी तदनुकूल हार्मोन्स का स्राव होता है वे हार्मोन्स क्षण मात्र में रक्तप्रवाह के माध्यम से मांस-मज्जा तक पहुँच कर संग्रहित हो जाते है। इन हार्मोन्स का प्रभाव भय, आवेश, क्रोध, दुस्साहस आदि पैदा करना होता है। ऐसे संघर्षशील प्राणी के मरने के उपरान्त भी ये हार्मोन उसके मांस-मज्जा में सक्रीय रहते है। ऐसा मृत प्राणी-मांस जब मनुष्य आहार द्वारा अपने शरीर में ग्रहण करता है, वे हार्मोन्स मानव शरीर में प्रवेश कर सक्रिय होते है। परिणाम स्वरूप मांसाहारी भिन्न- भिन्न आवेशों को महसुस करता है।(शायद, अपराधी अपराध के समय अक्सर मांस शराब आदि का सेवन इन्ही दुस्साहस युक्त आवेशों को पाने के लिए करता होगा) वे आवेग कुछ पल के लिए नशे की तरह आवेश आक्रोश उत्पन्न करते है जो प्रथमतः स्फूर्तिवर्धक प्रतीत हो सकते है। हमें भ्रम होता है कि शरीर में अतिरिक्त उर्जा का संचार हुआ है जबकि वह आवेग मात्र होता है।

ग्वालियर के दो शोधकर्ताओं, डॉ0 जसराज सिंह और सी0 के0 डेवास ने ग्वालियर जेल के 400 बन्दियों पर शोध कर ये बताया कि 250 माँसाहारियों में से 85% चिड़चिड़े व लडाकू प्रवृति के मिले। जबकि शेष 150 शाकाहारी बन्दियों में से 90% शांत स्वभाव और खुश मिजाज थे।

पिछले दिनों अमेरिका के एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल ने इस बात को प्रमाणित किया कि माँसाहार का असर व्यक्ति की मनोदशा पर भी पड़ता है। ज्यादा मांसाहार से चिड़चिड़ेपन के साथ स्वभाव उग्र होने लगता है। शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया कि लोगों की हिंसक प्रवृत्ति का सीधा संबंध माँसाहार के सेवन से है।

सोमवार, 5 नवंबर 2012

क्या मांसाहार में कोई शक्ति है?

माँसाहार से आने वाले क्षणिक आवेश और उत्तेजना को उत्साह और शक्ति मान लिया जाता है। जबकि वह आवेग मात्र होता है विशिष्ट खोजों के द्वारा यह भी पता चला है कि जब किसी जानवर को मारा जाता है तब वह आतंक व वेदना से भयभीत हो जाता है उसका शरीर मरणांतक संघर्ष करता है परिणामस्वरूप उत्तेजक रसायन व हार्मोन उसके सारे शरीर में फैल जाते हैं और वे आवेशोत्पादक तत्व मांस के साथ उन व्यक्तियों के शरीर में पहुँचते हैं, जो उन्हें खाते हैं।

दिल्ली के राकलैंड अस्पताल की मुख्य डायटीशियन सुनीता कहती हैं कि माँसाहार के लिए जब पशुओं को काटा जाता है तो उनमें कुछ हार्मोनल बदलाव होते हैं। ये हार्मोनल प्रभाव माँसाहार का सेवन करने वालों के शरीर में भी पहुँच जाते हैं।

जीव या पशु संरचना पर ध्यान देने पर हम देखते हैं कि सर्वाधिक शक्तिशाली, परिश्रमी, व अधिक सहनशीलता वाले पशु जो लगातार कई दिन तक काम कर सकते हैं, जैसे हाथी, घोडा, बैल, ऊँट, आदि सब शाकाहारी होते हैं। इग्लेंड में परीक्षण करके देखा गया है कि स्वाभाविक माँसाहारी शिकारी कुत्तों को भी जब शाकाहार पर रखा गया तो उनकी बर्दाश्त शक्ति व क्षमता में वृद्धि हुई।
मांसाहार में कोई शक्ति नहीं, वह अल्पकालिक आवेश मात्र है।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

कुर्बानी ? यह कुर्बानी कैसे कहलाएगी ?


कुर्बानी शब्द के सही मायने क्या हैं ? हमने बचपन से विद्यालयों में जो शब्दार्थ पढ़ा - उसके अनुसार तो "कुर्बानी" का अर्थ "त्याग" होता है | किसी के लिए / धर्म के लिए अपने निजी दुःख / नुकसान / जान की भी कीमत पर कुछ त्याग करना क़ुरबानी होती है | यही पढ़ा है, यही सुना है |

कुछ सवाल हैं, जो पूछना चाहूंगी
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यदि कोई कार्य करना मेरा कर्त्तव्य/ धर्म है - तो भले ही उससे मुझे कितनी ही निजी क्षति हो, भले ही मुझे उस काम को करने से कितनी ही निजी तकलीफ हो, भले ही मेरे अपनों का कितना ही नुक्सान हो - फिर भी - असह्य निजी दुःख/ क्षति की कीमत पर भी मैं वह करूँ - क्योंकि यह कर्त्तव्य कर्म करना किसी उच्च उद्देश्य के लिए आवश्यक है - तो यह कुर्बानी कहलाएगी |

कुर्बानी के कुछ उदाहरण
१) भगतसिंह / चंद्रशेखर आज़ाद/ लक्ष्मीबाई देश के प्रति अपने कर्त्तव्य के लिए प्राण दे देते हैं | यह कुर्बानी है |
२) सैनिक देश के लिए कट जाते हैं - यह क़ुरबानी है |
३) एक दोस्त ( माँ / पत्नी) अपने दोस्त (बच्चे / पति ) की छाती पर लगने वाली गोली अपने ह्रदय पर ले और अपनी जान दे कर उस की जान बचाए - यह कुर्बानी है |
४) अपनी kidney किसी की जान बचाने को दे देना - यह कुर्बानी है |

इन सभी उदाहरणों में एक चीज़ common है - निजी तकलीफ / नुक्सान उस कार्य के कर्ता के लिए कर्त्तव्य पथ का रोड़ा नहीं बन पाता कभी भी | यदि उसके निश्चित धर्म के पथ में कुछ भी त्याग / कुर्बान करना पड़े - वह नहीं हिचकता |

अब मैं यह पूछना चाहूंगी - कि यह एक निरीह बकरे को बाज़ार से खरीद लाना - और उसे कसाई से कटवा कर खा लेना, - कुर्बानी कैसे है ? इसमें यह "कुर्बानी" देने वाले ने क्या दुःख उठाया ? इससे किस उच्च उद्देश्य की पूर्ती हुई ? 

"कुर्बानी" देने के लिए आज क्या किया जा रहा है ? अधिकांशतः बाज़ार से दो दिन पहले मोटा सा बकरा खरीद लाया जाता है | यह बकरा खरीदा ही जा रहा है काटने और खाने के लिए - न कोई प्रेम है, न इसके मारने पर कोई दुःख होने वाला है | फिर उसे (अधिकतर) खुद नहीं काटा जाता, कसाई से कटवाया जाता है | और इसमें कोई दुःख या तकलीफ नहीं उठाना है  | इसमें उस व्यक्ति को तकलीफ क्या हुई ? उसने क्या कुर्बानी दी ?  दुःख क्या उठाया ? त्याग क्या किया ? कौनसे उच्च उद्देश्य की प्राप्ति हुई ?

गरीबों में बांटने की बात - अधिकतर बकरे के अच्छे भाग फ्रीज़र में रख लिए जाते हैं - और ख़राब / बेकार भाग (थोडा सा ही ) बाँट दिए जाते हैं | कई दिनों तक इसे खाया जाता है |

यह तो सुख दे रहा है न - फिर कुर्बानी कैसी ? खरीदने में पैसे ज़रूर खर्च हुए - पर वह तो वैसे भी होते ही हैं न ? उसी पैसे से सामूहिक भोज भी कराये जा सकते हैं गरीबों को यदि इसे ही कुर्बानी कहा जा रहा है । उतने ही पैसे से कई गुणा अधिक लोग खा सकेंगे, क्योंकि मांस शाकाहार से कहीं अधिक महंगा है । और महंगा हो भी क्यों न ? एक किलो अन्न की अपेक्षा एक किलो मांस को तैयार करने में धरा के कई गुणा अधिक संसाधन व्यर्थ होते हैं ।
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अब कुछ प्रश्न इसे "वैज्ञानिक" कह कर हम शाकाहार की बात करने वालों को "ढोंगी और पाखंडी" कहते हुए लेख लिखने वालों से (देखिये लिंक ) :

१. आप यदि हिंसा / अहिंसा को विज्ञान के अनुसार देखना चाहते हैं - तो विज्ञान तो सिरे से इश्वर / अल्लाह के अस्तित्व को ही नकारता है - क्या आप इस बात को भी "विज्ञान के अनुसार" कह कर स्वीकार कर लेते हैं ? क्योंकि जिस "विज्ञान" का आप हवाला दे रहे हैं - वही विज्ञान तो यह भी कहता है न, कि दुनिया किसी ने बनाई ही नहीं है - यह अपने आप बिग बैंग / गॉड पार्टिकल आदि आदि से बनी ? फिर क्या विज्ञान के कहने से आप यह मान लीजियेगा ? विज्ञानं तो यह कहता है कि इश्वर / अल्लाह है ही नहीं क्योंकि उसे किसी ने देखा नहीं, नापा नहीं - और विज्ञान अनदेखे अनजाने पर विश्वास नहीं करता ।या तो आप इस बारे में भी विज्ञान की सुनिए या फिर चर्चा में अपने पक्ष को आगे करने को विज्ञान की बैसाखी मत पकड़िए।

२. विज्ञान के अनुसार तो मानव और बकरे का शरीर एक ही है ( vertebral mammals ) - सिर्फ बुद्धि भर का फर्क है | तो क्या आप मानव मांस को भी / मानव बलि को भी स्वीकारते हैं ? क्योंकि जिन पैगम्बर के नाम पर आप यह "कुर्बानी की प्रतीकात्मक परम्परा" बनाये हुए हैं [quote from the article " हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) है।" - वे तो अपने स्वयं के "बेटे" को कुर्बान करने गए थे | क्या आपने भी ऐसा करने के बारे में सोचा है ?

३. आपके आदरणीय पैगम्बर मुहम्मद जी ने प्रतीकों को पकड़ने के लिए अल्लाह का साफ़ इनकार बताया है - तब यह प्रतीक क्यों ? मूर्ती पूजा बंद कराने के पीछे भी यही कारण था न ? कि मूर्ती "प्रतीक" भर है, इश्वर नहीं है ? क्या पवित्र कुरआन में बताया नहीं गया है कि "आखरी पैगम्बर" की बताई बातें सही हैं और जो भी पुरानी मान्यताएं इनसे टकराती हों , वे रद्द कर दी जानी चाहिए ? मान्यता तो यह भी है / थी कि "जीज़स खुदा के बेटे हैं" यह मान्यता रद्द की गयी न  ? फिर यह "प्रतीकात्मक" मान्यता क्यों ?

४. क्या आपको अपने धर्म के आदेशों के सही होने के बारे में शक शुबहा है ? कि आपको विज्ञान की बैसाखी पकडनी पड़ रही है ? विज्ञान के अनुसार तो बकरे के मांस और सूअर के मांस में बराबर प्रोटीन हैं - लेकिन वहां तो आप विज्ञान की दुहाई देते नहीं दिखते ? धर्म के मसलों के बीच विज्ञानं को खींचेंगे तो फिर हर वैज्ञानिक सवाल का वैज्ञानिक उत्तर देना होगा न?

५. आप दिए गए लिंक पर लिखते है की "ये लोग दूध, दही और शहद भी बेहिचक खाते हैं और मक्खी मच्छर भी मारते रहते हैं और ये सब " कुकर्म " करने के बाद भी " - अर्थात - आप भी यह मानते हैं कि ये सब "कुकर्म" हैं ? तो फिर एक चीखते तड़पते बकरे को मारना कैसे "कुकर्म" नहीं बल्कि "सुकर्म" हो सकता है ? और, क्या आप स्वयं यह "कुकर्म " त्याग चुके हैं - अर्थात आप बकरे को तो "कुर्बान" करते हैं, किन्तु मच्छर को नहीं मारते ?

६. वहां आपने हम मांसाहार विरोधियों को "ढोंगी और पाखंडी" कहा है । मच्छर-मक्खी को मारने को तो "कुकर्म" कहते हुए , उसी सांस में बकरे को मारने का कर्म "सत्कर्म / सुकर्म" बल्कि "कुर्बानी" कहना - क्या यह आप के अनुसार "ढोंग और पाखण्ड" की परिभाषा में आएगा या नहीं आयेगा ?

7. आप कहते हैं की मानव मात्र जीवित ही नहीं रह सकता बिना जीवहत्या के । तो इसलिए, छोटी जीवहत्या   "हो रही है" के बहाने से ह्त्या की राह पर चल दिया जाए ? अपराध जैविक प्रक्रिया में अनजाने ही "हो जाना" और जानते बूझते "करना" में कोई फर्क नहीं है ? क़ानून में भी manslaughter / accidental death  और cold blooded मर्डर अलग अलग अपराध हैं, इनकी अलग अलग सजायें हैं । क्या आपकी धार्मिक किताब में यह लिखा है या नहीं कि अनजाने में हो जाने वाले अपराध और जानते बूझते किये जाने वाले अपराध की सजाएं बराबर नहीं होती हैं ?

फिर पूछती हूँ - "कुर्बानी" क्या होती है ?
सम्पादकीय टिप्पणी (28 अक्टूबर 2012) - हम क्षमाप्रार्थी हैं कि किसी त्रुटि के कारण सभी कमेँट हट गए हैं, उन्हेँ वापस पाने का प्रयास किया जा रहा है. आशा है आप इसे अन्यथा न लेंगे और आपका सहयोग बना रहेगा।

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों


मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान साहब का एक लेख है विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों? । आपने विभिन्न तर्क लगाके पशुबलि को वैज्ञानिक तथ्य प्रतिपादित करने का प्रयास किया है।

वस्तुत: हिंसा या हत्या को व्यवहार स्थापित करना विज्ञान के क्षेत्र का नहीं है और न हिंसा में कोई वैज्ञानिक तथ्य हो सकता है। भला विज्ञान कैसे 'प्रतीक' को  'यथार्थ' के समकक्ष खडा कर सकता है? किन्तु प्रस्तुत लेख में इस प्रतिकात्मक रूढ़ि से पडने वाली प्रभावशीलता को वैज्ञानिक सत्य के नाम पर अनुकरणीय प्रतिपादित किया जा रहा है। आईए, इन तथ्यों की समीक्षा करते है। विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ? में वे लिखते है-

Killing a sensation is sin and vice versa .

"यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।"

सच्चाई तो यह है कि मात्र इन दो अख्तियार (Option) तक सीमित होने की सोच ही  बेबुनियाद है। मात्र दो विकल्प पेश करते हुए, तीसरे सुगम विकल्प का सर्वथा गोपन किया जा रहा है। जबकि वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक व्यवहार्य है। वह विकल्प है- जहाँ तक सम्भव हो अनावश्यक हिंसा से बचना। सम्भावित पाप-कर्म को भरसक परिहार्य समझना। जहाँ तक बस में हो, ऐसे  गैरजरूरी पाप/हिंसा से इंसानी रुह को पूर्णतया महरूम रखा जाय। अपनी आत्मा को मजबूरन अनर्थदँड (गैरजरूरी सजा न्योतने) का भागी न बनाया जाय।

इस तरह जिस सहज विकल्प का उल्लेख ही नहीं किया जा रहा, वस्तुतः वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक सहज, सरल और व्यवहारिक विकल्प है। साधारण सी बात है, क्यों अनावश्यक जीवहिंसा में फंसना चाहिए। व्यवहार अधिक से अधिक पाप से सुरक्षित रहने में है। यही विवेक है और विवेकपूर्वक कर्म करना ही सद्कर्म है। "मरूँ या मारूँ" ऐसे दो  विकल्प तो सरासर आदिम जँगली और मूर्खता भरे है। मौजूदा दुनिया तो सभ्य है, सुसंस्कृत है। आधुनिक विकास मॉडल तो  विकृति से विकास की ओर सुचारू सुधार गति का  है। यह पूर्णत: वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें  मानव ने जंगली नियमो के विकारों को दूर कर सभ्य नई दुनिया बनाई ही है। इसलिए चाहे सूक्ष्म जीव, कीट आदि का गैरजरूरी विनाश करने से आज का मानव बचता ही है, जितना भी और जिस किसी उपाय से, अनावश्यक हिंसा से बचा जा सकता है, हिंसा से बचने की मनोवृति होनी चाहिए।


It is an external manifestation of internal spirit .

"आदमी के अंदर पांच क़िस्म की इंद्रियां ; (senses) पाई जाती हैं। मनोवैज्ञानिक अनुसंधान से पता चला है कि जब कोई ऐसा मामला पेश आये जिसमें इनसान की तमाम इंद्रियां शामिल हों तो वह बात इनसान के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा गहराई के साथ बैठ जाती है। कुरबानी की स्पिरिट को अगर आदमी सिर्फ़ अमूर्त रूप में सोचे तो वह आदमी के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा नक्श नहीं होगी। कुरबानी इसी कमी को पूरा करती है। जब आदमी अपने आपको वक्फ़ करने के तहत जानवर की कुरबानी करता है तो उसमें अमली तौर पर उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह दिमाग़ से सोचता है, वह आंख से देखता है, वह कान से सुनता है, वह हाथ से छूता है, वह कुरबानी के बाद उसके ज़ायक़े का तजर्बा भी करता है। इस तरह इस मामले में उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह ज़्यादा गहराई के साथ कुरबानी की भावना को महसूस करता है। वह इस क़ाबिल हो जाता है कि कुरबानी की स्पिरिट उसके अन्दर भरपूर तौर पर दाखि़ल हो जाए। वह उसके गोश्त का और उसके खून का हिस्सा बन जाए।"

बिलकुल मनुष्य के सोचने, समझने, धारणा बनाने व संकल्प करने में इन पांचो इन्द्रियों का योगदान होता है। क्योंकि  मन पांचों ज्ञानेंद्रियों अथवा पांचों ही विषय के अधीन है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मन पांचों ज्ञानेंद्रियों से प्रभावित और पोषित होता है। यह यथार्थ है पांचो इन्द्रिय विषयों के कारण मन उसी दिशा में सक्रिय रहता है। इसलिए कृत्य अगर क्रूरता भरा है तो सभी इन्द्रियों के वशीभूत मानस  भी क्रूरता भरा ही बनेगा। जब मानसिकता और वर्तन  क्रूर होगा तो मनोवृति भी निश्चित ही क्रूर ही होगी। निसंदेह हिंसा के कृत्य से क्रूर भाव ही दृढ होंगे, समर्पण के भाव नहीं। इन्ही कृत्यों में अन्न की लाक्षणिकता देकर  कहा जाता है- “जैसा अन्न वैसा मन”। ‘जैसा अन्न’ में उसके उपादान, उत्पादन सहित कृत्य विधि भी समाहित होती है।

किन्तु, जो कोई भी, पशु को बंधनो से जकड़कर, उसकी हत्या करते हुए, उसके अंगभंग करते हुए, टुकड़े टुकडे करके फिर उसे आहार बनाते हुए, भला त्याग और समर्पण का चिंतन कर भी कैसे सकता है? ऐसी क्रूर क्रिया में गहराई से 'कुरबानी'(समर्पण) की भावना कैसे महसूस करेगा? कानों से वह पशु का मरणांतक आक्रन्द सुनेगा, आंखों से वह भयंकर और जीवंत प्राणांत होते देखेगा,  मरण क्रिया की तड़प व रक्तमांस के लोथडे देखेगा। नाक से वह रक्त-मांस, मल-मूत्र की दुर्गन्ध पाएगा। स्वाद लेते हुए भी उसे तड़पता पशु ही याद आएगा। स्पर्श से भी जिजीविषा के लिए आर्तनाद भरी धड़कन महसुस करेगा। उसमें 'कुरबानी'(समर्पण) की स्पिरिट कहाँ से आएगी? उलट हत्या करने से पहले, उसे अपनी संवेदनाओं की ही हत्या करनी पडेगी। क्रूर मनस्थिति पैदा किए बिना वह इस हिंसक कृत्य में प्रवृत ही नहीं हो सकता। और यह सब कुछ करते हुए उसमें कसाई भाव स्थापित होंगे, करूण भाव नहीं। इस क्रिया से दूसरे जीव की तड़प के प्रति निष्ठुर तो बना जा सकता है किन्तु अपने मन-मस्तिष्क में बलिदान और समर्पण के भाव तो कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि वह अपने स्वयं के साथ ऐसी ही क़ुरबानी की कल्पना करे तब भी समर्पण की जगह भयक्रांत हो दहल उठेगा। इस पूरी हिंसा कार्यविधि में त्याग नहीं, हिंसा की भावनाएं ही प्रबल बनती है।

मात्र प्रतीक से आचरण के समान निष्ठापूर्ण समर्पण सम्भव नहीं है। जब बलिदान में त्याग का यथार्थ आचरण ही नदारद हो तो कैसा त्याग? प्रतीक मायावी मूर्त छाया है, दिखावे से कहीं कर्तत्व निभता है। त्याग आचरण की वस्तु है जानवर की जान त्याग को अपना त्याग बताना तो छल है, यह अपनी जान के बदले निरीह पशु की जान आगे करना तो यकिनन छलपूर्ण प्रदर्शन है। प्रतिकात्मकता में ये कैसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता?

यह सच है कि प्रत्येक कर्म का भावनात्मक प्रभाव (मनो)वैज्ञानिक कारण है। प्रभाव का होना विज्ञान सिद्ध है किन्तु  प्रभाव भी तो वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक रीति-नीति से पडेगा। यह तथ्य विज्ञान सम्मत है कि नकारात्मक कृत्य का प्रभाव  नकारात्मक परिणामी ही होता है। अब  इस में कोई शक नहीं कि हत्या व हिंसा से त्याग बलिदान या समर्पण की भावनाएँ उत्पन्न नहीं होती। इस सत्य की अवैज्ञानिकता से उपेक्षा की जा रही है। यथार्थ तो यह है कि हत्या व हिंसा से क्रोध, अहंकार व द्वेष की ही भावनाएँ पैदा होती है।

सच्चा बलिदान अथवा कुरबानी, विषय वासनाओं, इच्छाओं और मोह के त्याग में है। महज मनुष्य होने के कारण पैदा हुए इस दर्प में नहीं कि जानवर पर मेरा मालिकाना हक है, मै चाहुं वैसे उसका उपयोग कर सकता हूँ।  और अपने बलिदान के एवज में उसकी जान धर सकने का अधिकार रखता हूँ। यह त्याग नहीं उलट अहंकार है। द्वेष, क्रोध, अहंकार, कपट ,लोभ आदि तो दुर्गुण है। हिंसाचार, दिखावा, धोखेबाज़ी को ही हमने हमारा प्रिय आचरण बना रखा है। यह सभी कषाय, तृष्णाएं और इन्द्रिय वासनाएं ही हमारी आसक्ति है। जो हमें सर्वाधिक प्रिय लगती है। इन्ही प्रिय तृष्णाओं का त्याग, सच्चे अर्थों में कुरबानी है। प्राथमिकता से यही दुर्गुण त्यागने योग्य है। बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए, निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।

विज्ञान नें शताब्दियों संघर्ष के बाद सभ्यता युक्त  सुख-सुविधा के उपाय जुटाए है और यह समस्त शोध- उपक्रम मानवजीवन में शान्ति और संतुष्टि लाने के महान उद्देश्य से हुआ है। यह बात अलग है कि इस बीच हिंसक मानसिकता द्वारा शस्त्रों के आविष्कार भी हुए, किन्तु कुल मिलाकर अधिकांश खोज शान्तियुक्त जीवन के प्रयोजन से ही हुई है। ऐसे विज्ञान-युग में जंगली, अशान्त और हिंसक अवधारणा की पुनः स्थापना रूप  मंशा पर क्यों न एतराज़ किया जाय?

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

जीवों की हत्या करना ही अधर्म है।


  • जीवो जीवितुमिच्छति। (योग-शास्त्र)

  ===  प्राणी मात्र जीने की इच्छा करते है।

 

  • सर्वो जीवितुमिच्छति। (योग-वशिष्ठ)

  ===   सभी जीना चाहते है।

 

  • अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता। (अनुशासन पर्व, महाभारत)

  ===   सभी प्राणियों की इस प्रकार रक्षा करें जैसे माता पिता की करते हैं।

 

  • जीवितं जीवरक्षात्। (बृहस्पति स्मृति)

  ===   जीवरक्षा से जीवन बढ़ता है।

 

  • धर्मस्य दया मूलम्। (प्रशम रति)

  ===   दया ही धर्म की जड़ है।

 

  • न दया सदृशं ज्ञानम्। (प्रशम रति)

  ===   दया सदृश कोई ज्ञान नहीं।

 

  • दया दानाद्विशिष्यते। (वशिष्ठ-स्मृति)

  ===   दान की अपेक्षा दया महिमावान है।

 

  • सर्वभूतदया तीर्थम्। (महाभारत)

  ===   प्राणी मात्र पर दया ही सर्वोत्तम तीर्थ है।

 

  • न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्। (मनु स्मृति)

  ===   प्राणिवध किसी भी दशा में स्वर्ग नहीं दिला सकता अतः उसकी वर्जना करनी चाहिए।

 

  • घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोराम् ते यान्ति दुर्गतिम्। (योग शास्त्र, द्वितीय प्रकाश)

  ===   जो घृणा व खिन्नता रहित होकर जीव घात करते है वे निश्चय ही दुर्गति में जाते है।

 

  • दया च भूतेषु दिवं नयन्ति। (पद्म-पुराण)

  ===   जीवों पर की जाने वाली दया स्वर्ग ले जाती है।

 

  • वधको नैव शुद्धयति। (देवी भागवत)

  ===   प्राणी-वध करने वाले कभी पवित्र नहीं हो सकते।

 

  • शोधकौ तु दयादमौ। (शुभचन्द्राचार्य)

  ===   जीवदया व इन्द्रिय दमन से आत्म शुद्ध-पवित्र बनता है।

 

  • क्षीणा नरा निष्करूणा भवन्ति। (काव्य –रवि मंड़ल)

  ===   शक्तिहीन पुरूष दया-हीन होते है।

 

  • यस्य जीवदया नास्ति सर्वमेतन्निरर्थकम्। (शान्तिपर्व,महाभारत)

  ===   जिनके कार्य में जीवदया नहीं है उनकी सारी क्रियाएँ ही निर्थक है।

 

  • दया मांसाशिनः कुतः? (काव्य –रवि मंड़ल)

  ===   मांसभक्षी को दया कैसे उत्पन्न हो सकती है?

 

  • को धर्मः कृपया विना? (धर्म-बिन्दु)

  ===   जीवदया बिना कैसा धर्म? 

 

  • अधर्मश्च प्राणिनाम् वधः (शन्ति-पर्व महाभारत) 

  ===   जीवों की हत्या करना ही अधर्म है।

 

  • हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति। (पूर्व मीमांसा) 

  ===  “हिंसा को धर्म कहें?” ऐसा न कभी भूतकाल मेँ था न कभी भविष्य मेँ होगा।


मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

विश्व अहिंसा दिवस 2012

विश्वं समित्रिणं दह
(ऋग्वेद 1/36/2/14)
सर्वभक्षी रोगाग्नि में जलते हैं
"जिसकी लाठी उसकी भैंस" का मुहावरा जंगल राज में सही साबित होता है। किसी कानूनी व्यवस्था के अभाव में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। लेकिन सभ्यता और संस्कृति की बात ही कुछ और है। समाज जितना अधिक सभ्य होता जाता है असहायों को अपनी रक्षा की निरंतर चिंता करने की आवश्यकता उतनी ही कम होती जाती है। सभ्यता के विस्तार के साथ ही समाज में अहिंसा भी व्यापक होती जाती है। आज यदि हम विश्व पर एक नज़र दौड़ायें तो स्पष्ट हो जायेगा कि अविकसित समाजों में आज भी हिंसा का बोलबाला है जबकि विकास और अहिंसा हाथ में हाथ डाले नज़र आते हैं।

क्यूबैक का एक परिवार गांधी जी के साथ 
सभी जानते हैं कि भारतीय सभ्यता उन प्रारम्भिक सभ्यताओं में से एक है जिन्होंने अहिंसा को सर्वोपरि सद्गुणों में स्थान दिया। योग, साँख्य, जैन, बौद्ध, सिख आदि सभी भारतीय दर्शनों में अहिंसा का एक विशिष्ट स्थान है। हमारे इसी विचार को आज सम्पूर्ण संसार की स्वीकृति प्राप्त हो रही है। अहिंसा के वैश्विक अध्याय में एक नया पृष्ठ 15 जून 2007 को तब लिखा गया था जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस (International Day of Non-Violence) की मान्यता दी थी।

अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, और भूटान ने इस प्रस्ताव को अपनी सम्मति देकर अहिंसा के महत्व को स्वीकारा ही, भारत उपमहाद्वीप से बाहर के प्रमुख राष्ट्रों जैसे रूस, चीन, ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी आदि ने भी इस प्रस्ताव का दिल खोलकर स्वागत किया था। कुल 120 राष्ट्रों की सहमति से पारित हुआ "वैश्विक अहिंसा" का यह प्रस्ताव पिछले पाँच वर्षों से लगातार दुनिया भर के लोगों को अहिंसा और प्रेम का सन्देश दे रहा है।

आइये आज 2 अक्टूबर को एक बार फिर प्रण करें कि अपने जीवन से क्रूरता को बाहर करके मन वचन कर्म से अहिंसा, भूतदया और प्रेम का मार्ग अपनायेंगे, न हिंसा करेंगे और न ही उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करेंगे।

अहिंसा परमो धर्मः!

रविवार, 16 सितंबर 2012

हिंसा माँगे दुष्कर्म अधिकार !!




प्रगति………

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/delhi/4_3_9671004.html

गोमांस पार्टी पर पुलिस व जेएनयू प्रशासन सख्त, नोटिस जारी

Sep 16, 10:25 pm


जागरण संवाददाता, नई दिल्ली :
दिल्ली पुलिस और जेएनयू प्रशासन ने संयुक्त रूप से रविवार को सभी छात्रावासों और सीनियर वार्डन को गोमांस पार्टी के आयोजन पर रोक लगाने संबंधी नोटिस जारी किया है। नोटिस में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि गोमांस पार्टी का आयोजन कानूनी तौर पर जुर्म है। अगर कोई छात्र ऐसा करता है तो उसके विरुद्ध 'दी दिल्ली एग्रीकल्चर कैटल प्रिजर्वेशन एक्ट-1994' की धारा 2'ए' के तहत कार्रवाई होगी, जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा गाय का मांस रखना, खाना और उसका पाया जाना वर्जित है।
इस बारे में जेएनयू के कुलपति प्रो. एसके सोपोरी ने कहा है कि वे छात्रसंघ चुनाव शांति से संपन्न कराना चाहते थे। इसलिए अब पुलिस के साथ मिलकर रजिस्ट्रार की ओर से नोटिस जारी किया गया है। गोमांस पार्टी की चर्चा करने और आयोजन की तैयारी को लेकर जल्द ही सख्त कदम उठाए जाएंगे। वहीं वसंत कुंज क्षेत्र के सहायक पुलिस आयुक्त की ओर से नोटिस में बताया गया है कि गोमांस संबंधी अपराध पर पांच वर्ष की कैद और आर्थिक दंड का प्रावधान है। साथ ही गोमांस कानून उल्लंघन गैर जमानती अपराध है। बता दें कि जेएनयू में 'द न्यू मैटेरियलिस्ट संगठन' गुपचुप तरीके से गोमांस पार्टी के आयोजन की तैयारी में लगा है। कैंपस में चर्चा है कि संगठन की ओर से 28 सितंबर को पार्टी होगी।

गोमांस पार्टी की तैयारी पर छात्र निलंबित

Sep 19, 10:48 pm




जागरण संवाददाता, नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में गोमांस पार्टी आयोजन की तैयारी में लगे 'द न्यू मैटेरियलिस्ट संगठन' और उसके सदस्यों में से एक को निलंबित और तीन को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। यह नोटिस जेएनयू के चीफ प्रॉक्टर एच.बी.बोहिद्दार की ओर से जारी किया गया।
नोटिस में अनुशासनात्मक कार्रवाई का हवाला देते हुए उल्लेख है कि गोमांस पार्टी आयोजन पर जेएनयू प्रशासन ने प्रोक्टोरियल जांच गठित करने के साथ ही सेंटर फॉर अफ्रिकन स्टडीज से पीएचडी के छात्र अनूप को 'द न्यू मैटेरियलिस्ट संगठन' के कार्यकर्ता के तौर पर जांच चलने तक निलंबित किया है। अनूप जेएनयू कैंपस में पार्टी का आयोजन करने जा रही कमेटी (फॉर्मेशन कमेटी फॉर बीफ एंड पॉर्क फेस्टिवल) का सक्रिय सदस्य भी है, जिसने 'द दिल्ली एग्रीकल्चर कैटल प्रिजर्वेशन एक्ट-1994' की जानकारी होने के बाद भी इस तरह के आयोजन की तैयारी में सक्रिय भागीदारी निभाई है।
इसके अलावा पार्टी आयोजन कमेटी से जुडे़ छात्र आनंधा कृष्णराज, अभय कुमार और छात्रा कुसुम लता को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। उन्हें 24 सितंबर शाम पांच बजे तक नोटिस का जवाब दाखिल करने को कहा गया है। साथ ही पूछा गया है कि जब आप लोगों को यह पता है कि 'द दिल्ली एग्रीकल्चर कैटल प्रिजर्वेशन एक्ट-1994' की धारा 2 'ए' के तहत गोमांस पार्टी करना गैर कानूनी है और इसके आयोजन पर पांच साल की कैद व दस हजार रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है तो, आपने ऐसा करने की चेष्टा क्यों की? क्यों न आपके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए?



यह हिंदू धर्म का अपमान है ……आज तक पर

अपने को बुद्धिजीवी बताने वाले कुछ लोगों ने बीफ और पोर्क फेस्टिवल के आयोजन के लिए एक समिति बनाई है. इस आयोजन समिति ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के छात्रों और शिक्षकों को इस माह के अंत में जेएनयू परिसर में ही आयोजित होने वाले बीफ डिश समारोह में शामिल होने का खुला निमंत्रण दिया है.
आयोजकों ने इस समारोह में सूअर के मांस के डिश भी उपलब्ध कराने का वायदा किया है, शायद यह दिखाने के लिए कि वे हिंदू और मुसलमानों के प्रति धार्मिक रूप से तटस्थ हैं. मुसलमान सूअर के मांस से नफरत करते हैं क्योंकि उसे गंदा माना जाता है, इसलिए नहीं कि इस्लाम में सूअर को कोई पवित्र दर्जा प्राप्त है. लेकिन गोवध कर हासिल किया गया गाय का मांस तो हिंदू धर्म का घोर अपमान है क्योंकि हिंदू लोग गाय को पवित्र मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं.
गोमांस का पकवान तैयार करना भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों, 1958 के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए कई निर्णयों के भी खिलाफ है. इन निर्णयों से गोहत्या को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया गया है. जेएनयू की इस गतिविधि पर आइपीसी की धारा 295 और 295ए के तहत कार्रवाई की जा सकती है.
मैं नहीं समझ पा रहा कि छात्रों और शिक्षकों को बीफ और पोर्क के लिए आयोजन समिति गठित करने या कैंपस में इस तरह के गोश्त परोसने वाले समारोह आयोजित करने की क्या जरूरत थीक्या जेएनयू के छात्र यह सीख रहे हैं कि किस तरह से कुक बना जाए और ऐसे देशों के फाइव स्टार होटलों में जाकर काम किया जाए जहां गोमांस लोगों की खुराक में शामिल है?
मैंने इस मामले की जानकारी मंत्री कपिल सिब्बल तक पहुंचा दी है. यदि उदारवाद के नाम पर उकसाने की इस कार्रवाई से संवैधानिक रूप से सशक्त संस्थानों के माध्यम नहीं निबटा गया तो प्राकृतिक न्याय के तहत लोग सीधे कार्रवाई पर उतर सकते हैं.
डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं