सोमवार, 30 जनवरी 2012

दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार



॥ हिंसक पशु का भी अभयदान॥
"जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों"। यह वाक्य बडी सहजता से कह दिया जाता है। और ऐसा कहना इसलिए भी आसान है क्योंकि मानव व्यवहार और उसकी सम्वेदनाओं को समझ पाना बड़ा कठिन है। निश्चित ही मानव स्वभाव को एक साधारण नियम में नहीं बांधा जा सकता। यह बिलकुल जरूरी नहीं है कि सभी मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हो, पर यह भी सच्चाई है कि माँसाहारियों के साथ कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। सम्भावनाएँ देखकर यह सावधानी जरूरी है कि घटित होने के पूर्व ही सम्भावनाओं पर लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है। हिंसा के प्रति जगुप्सा के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। हमें अगर सरल और शान्तिपूर्ण जीवन शैली अपनानी है तो हमारी करूण और दयायुक्त सम्वेदनाओं का रक्षण करना ही होगा। क्योंकि यह भावनाएँ, हमें सहिष्णु और सम्वेदनशील बनाए रखती है।

बिना किसी जीव की हत्या के मांस प्राप्त करना असम्भव है, भोजन तो प्रतिदिन करना पड़ता है। प्रत्येक भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा की सम्वेदनाओं को निष्ठुरता के साथ ही नासूर भी बना देता है।

ग्वालियर के दो शोधकर्ताओं, डॉ0 जसराज सिंह और सी0 के0 डेवास ने ग्वालियर जेल के 400 बन्दियों पर शोध कर ये बताया कि 250 माँसाहारियों में से 85% चिड़चिड़े व लडाकू प्रवृति के मिले। जबकि शेष 150 शाकाहारी बन्दियों में से 90% शांत स्वभाव और खुश मिजाज थे।

पिछले दिनों अमेरिका के एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल ने इस बात को प्रमाणित किया कि माँसाहार का असर व्यक्ति की मनोदशा पर भी पड़ता है। ज्यादा मांसाहार से चिड़चिड़ेपन के साथ स्वभाव उग्र होने लगता है। शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया कि लोगों की हिंसक प्रवृत्ति का सीधा संबंध माँसाहार के सेवन से है। अध्ययन के परिणामों ने इस बात की ओर संकेत दिया कि माँसाहार के नियमित सेवन के बाद युवाओं में धैर्य की कमी, छोटी-छोटी बातों पर हिंसक होने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
दिल्ली के राकलैंड अस्पताल की मुख्य डायटीशियन सुनीता कहती हैं कि माँसाहार के लिए जब पशुओं को काटा जाता है तो उनमें कुछ हार्मोनल बदलाव होते हैं। ये हार्मोनल प्रभाव माँसाहार का सेवन करने वालों के शरीर में भी पहुँच जाते हैं।

विशिष्ट खोजों के द्वारा यह भी पता चला है कि जब किसी जानवर को मारा जाता है तब वह आतंक व संताप से भयाक्रांत हो उठता है मौत से पहले नि;सहाय पशु आत्म रक्षा के लिये पुरुषार्थ करता है, छटपटाता है। उसका शरीर मरणांतक संघर्ष करता है। पुरुषार्थ बेकार होने पर उसका डर व आवेश अपने चरम तक पहुँच जाता है। ऐसी अवस्था में उसके अन्दर एक रसायन 'एड्रीनलिन' उत्पन्न होता है जो उसके रक्तचाप को बढ़ा देता है। क्योंकि संघर्ष की उत्तेजना के लिए यह रसायन आवश्यक भी होता है। वे आवेशोत्पादक तत्व मांस के साथ ही उन व्यक्तियों के शरीर में भी पहुँचते हैं,जो मनुष्य उस माँस का सेवन करते है। एड्रीनलिन के साथ ही ऐसे अनेक उत्तेजक रसायन व हार्मोन मानव शरीर में फैल कर सक्रिय जाते हैं। ऐसे तत्वो का आधिक्य मनुष्य को घातक रोगों और मनोरोगों से ग्रसित कर देता है।

उसी तरह आहार के स्रोत (माँस पाने हेतु पशु-हत्या) का चिंतन, निर्दयता का निष्ठुर विचार, मांसाहारी के शरीर में भी उसी तरह के हार्मोन्स की सक्रियता बढ़ाएगा, परिणामस्वरूप उसकी मनोवृति में क्रूरभाव सामान्य बन जाते है।  निष्ठुर वृति उसके व्यवहार में प्रकट होने की प्रबल सम्भावनाएँ होती है। आहार का स्रोत हमारे विचारों को प्रभावित किए बिना नहीं रहता।

हिंसक दृश्य, निष्ठुर सोच और परपीड़ा को सहज मानने की मानसिकता, हमारी मनोवृति पर इसीतरह दुष्प्रभाव डालती है। हमारी सम्वेदनाएं शिथिल हो जाती है आगे जाकर हिंसा हमारे अवचेतन में, हमारी विचार-वाणी में और स्वभाव में समाहित ही हो जाती है, निर्थक-निष्प्रयोजन हिंसा-भाव मन में रूढ हो जाता है। जो अन्ततः हमारे व्यवहार व वर्तन में प्रकट होने लगता है।

कैसे भी करके पेट भरना ही मानव का उद्देश्य नहीं है। यह तो पशुओं का भी स्वभाव है। मानव सदैव 'जीवन-मूल्यों' और 'जीवन-निर्माण' को  जीवन की सभी आवश्यकताओं से सर्वोपरी स्थान देता है। हमने प्रकृति प्रदत्त बुद्धि से ही सभ्यता का आरोहण किया है। वही मानव- बुद्धि हमें यह विवेक प्रदान करती है, कि हमारे विचार और व्यवहार सौम्य व पवित्र बने रहे। जिससे कि पृथ्वी पर शान्ति और सन्तोष का वातावरण स्थापित हो।

बुधवार, 25 जनवरी 2012

माँसाहार : रोग सम्भावना

आहार ही औषध
दुनिया के आहार विशेषज्ञों ने प्रमाणित कर दिया है कि शाकाहारी मनुष्य अपेक्षाकृत दीर्घजीवी होते है। विविध शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि माँसाहार मानवीय स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। मांसाहारी लोग शाकाहारियों की तुलना में अधिक बीमार पड़ते हैं। जहाँ माँसाहार अनेक व्याधियों का जन्मदाता है वहीं शाकाहार अनेक कष्टदायक रोगों से बचाता है। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह भी स्वीकार किया है कि शाकाहारी लोगों की 'रोग प्रतिरोधक क्षमता' अधिक मजबूत होती है।



अलज़ाइमर

मांसाहार से प्राप्त प्रोटीन, कोई एक समस्या नहीं, बल्कि समस्याओं की
कतार ही खड़ी कर देता है। वस्तुतः प्राणीजन्य प्रोटीन, पूर्वसक्रिय और सेच्युरेटेड होता है, जिसके सेवन से मस्तिष्क में बीटा-अमाइलायड (Beta-Amyloid) नामक प्रोटीन संचित होता है, जो अल्जाईमर रोग के लिए जिम्मेदार माना जाता है। जबकि इसके उलट फल और सब्जियों में पॉलीफिनाल पाया जाता है, जो उस बीटा-अमाइलॉयड नामक हानिकर प्रोटीन को जमने से रोकता है। 'गॉलब्लैडर की पथरी' व 'गुर्दे की पथरी' नामक व्याधियों का प्रबल कारण यह हानिकर प्रोटीनहै,  इस प्रोटीन की विखण्ड़न प्रक्रिया में शरीर का संचित कैल्शियम कोष खाली हो जाता है, साथ ही गुर्दे (किडनी ) से अनावश्यक और अत्यधिक श्रम लेकर, उसे बुरी तरह क्षतिग्रस्त भी कर देता है।

पित्ताशय की पथरी (गॉलस्टॉन्स)
नई शोध के अनुसार शाकाहारी होना हमारे शरीर के लिए लाभदायक है। लंदन में हुई एक शोध से ज्ञात हुआ कि उन लोगों में उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) ज्यादा पाया गया जो मांस से अधिक प्रोटीन प्राप्त करते थे। उच्च रक्तदाब का होना हृदय के लिए खतरनाक स्थिति है।शाकाहार से प्राप्त प्रोटीन में भरपूर एमीनो एसिड पाए जाते है। अनुसंधान से यह निष्कर्ष भी मिला कि विभिन्न मांसाहारी स्रोतों से अतिरिक्त प्रोटीन लेने की कोई आवश्यकता नहीं , आप दिन भर के शाकाहार में अमीनो एसिड का कुछ इस प्रकार सेवन भरण करें कि शरीर में नायट्रोजन की पर्याप्त मात्रा बनी रहे। बस शरीर का मेटाबॉलिज्म शरीर के लिए जरूरी प्रोटीन की व्यवस्था कर देता है। जैसा कि हम जानते है, बलशाली शाकाहारी जानवर हाथी घोडा बैल आदि शाकाहार से ही विशाल मात्रा में प्रोटीन प्राप्त कर लेते है। आवश्यकता है तो मात्र शाकाहार से पोषण : कार्बोहाइड्रेट और एमीनो एसिड की संतुलित पूर्ति की। एक तुलनात्मक अध्ययन में शाकाहारियों को मांसाहारियों की अपेक्षा उर्ज़ावान और बेहतर मूड का पाया गया है।

आंत्र कैन्सर
मांसाहार का प्रायः  60 प्रतिशत हिस्सा मात्र ही शरीर के लिए उपयोगी होता है। शेष 40 प्रतिशत हिस्से में विषैले (टॉक्सिन्स) तत्व होते हैं। मांसाहार पेट के लिए भारी होता है तथा अम्लीयता (एसिडिटी) पैदा करता है। परिणाम स्वरूप उदर संबंधी कई बीमारियां उत्पन्न होती हैं। मांस में आहार-रेशा (फाइबर) बिलकुल भी नहीं होता।  जबकि आहार-रेशे (फाइबर) शरीर के लिए अत्यंत ही आवश्यक पदार्थ है। आहार से पोषक तत्वों के संश्लेषण में रेशे सहायक होते है। जो लोग रेशेयुक्त आहार करते हैं उनमें हृदय रोग, उदर कैंसर, पाइल्स, मोटापा, डायबिटीज, कब्ज, हार्निया, डायवर्टीकुलाइटिस, इरिटेबल बाउल सिन्ड्रोम, डेन्टल कैवेटिज और गॉलस्टोन्स का खतरा कम रहता है। शाकाहार में ही उपलब्ध आहार-रेशे विषावरोधक ( एंटीऑक्सीडेंट) होते हैं। रेशे आंतो की सफाई में भी सहयोगी है, मांसाहार ठोस व चिकनाई युक्त होता है, जिसके जिद्दी अंश आंतो की दीवारों पर चिपके रह जाते है और सड़न पैदा करते है। परिणाम स्वरूप आंतो के केन्सर की सम्भावनाएं प्रबल हो जाती है।


हृदय-रोग
शाकाहार में 'संतृप्त वसा' (हानिकारक कोलेस्ट्रॉल) का स्तर कम होता  है। साथ ही पोषक तत्व कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, मैग्नीशियम, पोटेशियम, विटामिन सी व ई जैसे एंटीऑक्सीडेंट तथा फाइटोकेमिकल्स आदि उच्च स्तर और बेहतर प्रमाण में होते है। जो एक शाकाहारी के लिए ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह टाइप 2, गुर्दे की बीमारी, अस्थि-सुषिरता (ऑस्टियोपोरोसिस), मनोभ्रंश (अल्जाइमर) आदि बीमारियों की सम्भावनाएँ बहुत ही कम कर देते हैं। इतना ही नहीं शाकाहारी खाद्य पदार्थों में लाभदायक उच्च-घनत्व वाले लायपोप्रोटीन (HDL, कॉलेस्ट्रॉल) की उपस्थिति होती है। जो हानिकर अल्प-घनत्व वाले लायपोप्रोटीन (LDL, कॉलेस्ट्रॉल) को धमनियों में जमने से रोकते हुए उसके निकास को भी सुनिश्चित कर देता है।  उच्च-घनत्व युक्त लायपोप्रोटीन,  रक्तप्रवाह में बाधा, उच्च रक्तचाप समस्या, दिल का दौरा और लकवा जैसे रोगों की रोकथाम करता है। यह कॉलेस्ट्रॉल को संतुलित करने की सुरक्षात्मक भूमिका निभाता है। मुख्यत: "सेचुरेटेड फैट्स" और "कोलेस्ट्रोल" मांस और डेयरी उत्पाद में ज्यादा पाया जाता है, जिसके अत्यधिक सेवन से (एन्जाईना) हृदय के बीमार होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। आहार रेशे (फाइबर) भी जो संतृप्त रक्त वसा को घटाने में सहायक होते है मात्र शाकाहार (प्लांट फ्रूड्स) में ही पाए जाते है।

गठिया/संधिवात या जोडों का दर्द
एक तथ्य के अनुसार, प्रति एक किलोग्राम मांस में लगभग 12-13 ग्रेन "यूरिक एसिड" पाया जाता है। 'यूरिक एसिड' एक विषाक्त रसायन (टॉक्सीन) है जो मानव स्वास्थ्य के लिए विष का काम करता है। रक्त में इसकी अधिक मात्रा कईं रोगो की जनक है।यूरिक एसिड दिल की बीमारी, लीवर के रोग, टी.बी., रक्ताल्पता, मांसपेशी संबंधी रोग, हिस्टीरिया, कमजोरी जैसे अनेक खतरनाक रोगों की सम्भावनाएँ प्रगाढ़ कर देता है। यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के सभी अवयव प्रभावित होते है। इसी 'यूरिक एसिड' के कण अस्थि-जोड़ों में इकट्ठा होने लगते हैं जो गठिया, संधिवात (आस्टियो आर्थराइटिस) जैसी समस्या का प्रमुख कारण है।



मधुमेह टाइप-2
माँसाहार से शरीर में एस्ट्रोजन हार्मोन की मात्रा अधिक बनती है। परिणाम स्वरूप मांसाहारी पुरुषों को हृदय रोग के अलावा "प्रोस्टेट कैंसर" तथा मांसाहारी महिलाओं को गर्भाशय, डिम्बाशय (ओवरी) और स्तन कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।
एक शोध के अनुसार मांसाहारियों की तुलना मेंशाकाहारियों को "मेटॉबौलिक सिन्ड्रोम" (बीमारी न्योतक पांच खतरे यथा-उच्च रक्तचाप, लो एच डी एल कोलेस्ट्रोल, हाइ ग्लूकोज लेवल, उच्च ट्राइग्लिसराइड्स, मोटापा)  में से तीन प्रमुख खतरे 36 प्रतिशत कम पाए जाते है। मेटॉबौलिक सिन्ड्रोम ही कार्डियोवस्क्यूलर डिज़िज, डायबिटिज एवं स्ट्रोक का प्रमुख कारक होते है।


वृक्क (गुर्दा) समस्याएँ
इंडियाना विश्वविद्यालय की शेरोन मोई और उनकी टीम द्वारा किए गए एक अध्ययन में, शाकाहार और मांसाहार के प्रभावों पर गौर करने पर पाया कि जो लोग शाकाहार पर रहे उनकी तुलना में मांसाहारी लोगों के मूत्र में फास्फोरस अधिक पाया गया। किडनी की बीमारी से परेशान लोग अगर अपने शरीर में अत्यधिक फास्फोरस जमा होने से परेशान हैं तो शाकाहार अपना लें। अधिक मात्रा में संचित फास्फोरस, गुर्दे के साथ साथ हृदय के लिए भी घातक भी हो सकता है।
एक अध्ययन से यह भी प्रकाश में आया है कि शाकाहारी जानवरों की तुलना में 10 गुना अधिक "हाइड्रोक्लोराइड एसिड" मांसाहारी जानवरों के शरीर में पाया जाता है। यह एसिड उनके माँसाहार को पचाने में योगदान करता है। जबकि मनुष्य के शरीर में भी यह रसायन, उस मात्रा में नहीं पाया जाता। अतः निश्चित है कि मांसाहार मानव पाचन संस्थान के लिए दुपाच्य है। इस भेद से भी सिद्ध होता है कि मानव शरीर  के लिए शाकाहार  ही अनुकूल है।



रोगाणु-विषाणु
माँस साधारणतया दूषित तत्वों जैसे कि अनिष्टकारी हारमोनों, वनस्पतिनाशकों, कीटनाशकों एवं प्रतिजैविकों से भरे होते हैंI चूँकि ये सभी विषाणु वसा में घुलनशील हैं, वे पशुओं के चर्बीदार मांस में संचित हो जाते हैं जो अन्ततः मांस भक्षण करने वाले व्यक्ति के शरीर में सहजता से प्रवेश कर जाते हैं। अनेकानेक बीमारियां उन जीवाणुओं के कारण होती है जो मांसाहार के माध्यम से व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करती हैं। जबकि शाकाहार इससे काफी हद तक सुरक्षित होता है। उदाहरण के तौर पर "साल्मोनेला टाइफीमूरियम" नामक जीवाणु अंडे  खाने से शरीर में पहुंचता है, जिसके कारण न्यूमोनिया और ब्रोंकाइटिस होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसा दूषित व संक्रमित माँसाहार विषाणुजनित रोगों के साथ साथ खुरपका, मुंहपका और मैडकाउ जैसी महामारियों का कारण बनता है


कुल मिलाकर सार यह है कि शाकाहार शरीर के क्रियाकलापों के बेहतर संचालन में जहाँ सहयोगी है, वहीं मांसाहार शरीर के व्यवहार और संचालन के प्रतिकूल है, जो अन्ततः बिमारियों का निमन्त्रक है। साथ ही शरीर को अनेकानेक रोगों का शरण स्थल बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है। शारिरिक अव्यवों के साथ ही हमारी इन्द्रियों के सुचारू संचालन में भी बाधक बनता है। जब निरामय पोषण उपलब्ध हो तो क्यों खतरों को उठाया जाय? अत: शाकाहारी बनें और स्वस्थ रहें।
स्पष्टीकरण : प्रस्तुत आलेख विशेषज्ञों से प्राप्त जानकारी के आधार पर तैयार किया गया है। लेखक चिकित्सा विज्ञान का विशेषज्ञ नहीं है। रोगों की  बीटा अमाइलाईड, पॉलिफिनाल, अमीनो एसिड, फुड-फाइबर, कॉलेस्ट्रॉल, यूरिक एसिड, फास्फोरस एवं हानिकर बैकटेरिया, वायरस, परजीवियों की न्यूनाधिक उपस्थिति अनुपस्थिति के आधार पर समीक्षा की गई है। और उसी आधार पर रोगों की अधिक सम्भावना व्यक्त की गई है। उपरोक्त रोगों के अन्यान्य कईं कारण भी सम्भावित है्। रुग्णता निर्णय से पूर्व चिकित्सीय परामर्श अनिवार्य है।

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

शाकाहार सम्बन्धी कुछ भ्रम और उनका निवारण


भ्रम # 1- आदिमानव माँसाहारी था।
यदपि नवीनतम शोध से यह स्थापित हो चुका है कि प्रागैतिहासिक मानव शाकाहारी भी था, तथापि आदिमानव अपनी आदिम असभ्य आदतों को सुधार कर ही सभ्य अथवा सुसंस्कृत बना है। शाकाहार शैली  उसी सभ्यता का परिणाम है। आज विकास मार्ग की और गति करते हुए, परित्यक्त आदिम आहार शैली (माँसाहार) को पुनः अपनाकर जंगलीयुग में लौटना तो सभ्यता का पतन है। यदि आदिम प्रवृति को ही जीवन-आधार बनाना है तो आदिमानव अनावृत घूमता था, क्या आज हमें भी वह निर्वस्त्र दशा अपना लेनी चाहिए? आज उन प्रारम्भिक  आदतों का अनुकरण किसी भी दशा में उचित नहीं है। शिकार, पशुहिंसा और मांसाहार शैली, मानव सभ्यता के विकास के साथ ही समाप्त हो जानी चाहिए। उससे लगे रहना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।

भ्रम # 2- विश्व में अधिकतर आबादी माँसाहारी है इसलिए माँसाहार सही है
अधिसंख्य या भीड का अनुकरण सदैव हितकर नहीं होता। यह कोई भेड़चाल नहीं है, यह कोई बात हुई कि सभी कुंए में कूद रहे है तो हमें भी कूद जाना चाहिए। धरा पर हीरे और कंकर दोनो ही उपलब्ध है, कंकर अधिसंख्या में है तो हीरे बहुत ही न्यून मात्रा में ही प्राप्य है। मात्र अधिसंख्या के कारण, कंकर मूल्यवान नहीं हो जाते! संख्या भले कम हो बेशकीमती तो हीरे ही रहेंगे। महत्व हमेशा गुणवत्ता (क्वालिटी) का होता है  मात्रा (क्वांटिटी) का नहीं। इसलिए अधिकतर आबादी का अनुकरण मूर्खता है। अनुकरण तो हर हाल में विवेक-बुद्धि का ही करना उत्तम है।

भ्रम # 3- वनस्पति अभाव वाले बर्फ़ीले प्रदेश व रेगिस्तान के लोग क्या खाएंगे?
अगर वनस्पति व कृषि उपज से अभाव वाले क्षेत्रों को शाकाहार सहज उपलब्ध नहीं, तो हमें भी शाकाहार का त्याग कर माँसाहार अपनाना चाहिए!! बडा अज़ीब तर्क है? यह कोई मूर्खता भरा साम्यवादी पागलपन है कि विश्व के किसी कोने में लोग रोटी को मोहताज़ है तो पूरे संसार को भूखों मरना चाहिए। अभावग्रस्तों के आहार का अनुकरण करने से क्या वे अभावी खुश हो जाएंगे? क्या उन्हें नैतिक समर्थन मिल जाएगा? जहां भरपूर शाकाहार उपलब्ध है उसे फैक कर, एस्कीमो आदि का साथ देना तो मूढ़ता ही कहलाएगा। होना तो यह चाहिए कि उन्हें भी हम पोषक शाकाहार उपलब्ध करवाएं। आज के विकसित युग में किसी भी प्रकार का भोजन धरा के किसी भी कोने में, बल्कि अंतरिक्ष में भी पहुँचाया जा सकता है। अतः इस "क्या खायेंगे?" वाले बहाने में कोई दम नहीं है।

भ्रम # 4- सभी शाकाहारी हो जाय तो इतना अनाज कहां से आएगा ? पूरा विश्व  शाकाहारी हो जाय तो पूरे विश्व की जनता को खिलाने लायक अनाज का उत्पादन करने के लिए हमें ऐसी चार और पृथ्वियों की आवश्यकता होगी।
दुनिया में बढ़ती भूखमरी और कुपोषण का प्रमुख कारण माँसाहार का बढ़ता प्रचलन है। माँस पाने ले लिए जानवरों का पालन पोषण देखरेख और माँस का प्रसंस्करण करना एक लम्बी व जटिल व खर्चीली प्रक्रिया है। यह पृथ्वी-पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुचाने वाला उद्योग है। एक अनुमान के मुताबिक एक एकड़ भूमि पर जहाँ 8000 कि ग्रा हरा मटर, 24000 कि ग्रा गाजर और 32000 कि ग्रा टमाटर पैदा किए जा सकतें है वहीं उतनी ही जमीन का उपभोग करके, मात्र 200कि ग्रा. माँस पैदा ही पैदा किया जा रहा है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन प्राप्त करने में अनेकगुना जल जमीन आदि संसाधनों का अपव्यय होकिया जा रहा है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में झोक दी गई है। यदि माँस उत्पादन में व्यर्थ हो रहे अनाज, जल और भूमि आदि संसाधनो का सदुपयोग किया जाय तो इस एक ही पृथ्वी पर शाकाहार की बहुतायत हो जाएगी।

भ्रम # 5- प्रोटीन की प्रतिपूर्ति माँसाहार से ही सम्भव है:
अकसर कहा जाता हैं कि शाकाहारी लोग प्रोटीन के पोषण से वंचित रह जाते हैं।  यह बहुत बडी भ्रांती फैलाई जा रही है कि माँसाहार ही प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है। शायद आपको यह नहीं मालूम कि वनस्पतियों से प्राप्त होने वाला प्रोटीन कोलेस्ट्रॉल रहित होता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में फाइबर भी पाया जाता है, जो पाचन तंत्र और हड्डियों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद होता है। दरअसल अमिनो एसिड प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है, जो कि दालों और सब्जियों में भी पाया जाता है। शाकाहारी पशु तो बेचारे मांस नहीं खाते, फिर उनके शरीर में इतना प्रोटीन कहाँ से आता है, हाथी का विशाल शरीर, घोडे में अनवरत बल और बैल में शक्ति कहाँ से आती है। यदि वनस्पति ग्रहण करके भी शाकाहारी पशु-शरीर इतनी विशाल मात्रा में प्रोटीन बनाने में सक्षम है तो शाकाहार लेकर मानव शरीर अपना आवश्यक प्रोटीन क्यों नहीं बना सकता? सरकारी स्वास्थ्य बुलेटिन संख्या ''23'' के अनुसार सच्चाई सामने आती है कि प्रति 100 ग्रा. के अनुसार अंडों में जहाँ ''13 ग्राम.'' प्रोटीन होगा, वहीं पनीर में ''24 ग्राम.'', मूंगफली में ''31 ग्राम.'', दूध से बने कई पदार्थों में तो इससे भी अधिक एवं सोयाबीन में ''43 ग्राम.'' प्रोटीन होता है।

भ्रम # 6- संतुलित आहार के लिए, शाकाहार में मांसाहार का समन्वय जरूरी है:
बिलकुल नहीं, आहार को संतुलित करने के लिए मांसाहार को सम्मलित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। शाकाहारी पोषक पदार्थों में ही इतनी विभिन्नता है कि पोषण को शाकाहारी पदार्थों से ही पूर्ण संतुलित किया जा सकता है। संतुलित पोषण मेनू में माँसाहार की आवश्यकता रत्तीभर भी नहीं है। मांसाहार से पोषक मूल्यों को संतुलित करने की यह धारणा पूरी तरह गलत है। उलटे मांसाहार के दुष्परिणामों को सन्तुलित करने के लिए उसके साथ पर्याप्त मात्रा में शाकाहारी पदार्थ लेना नितांत आवश्यक है। मात्र माँसाहार पर मानव जी भी नहीं सकता। केवल मांसाहार पर निर्भर रहने वाले एस्कीमो की ओसत आयु केवल 30 वर्ष है। मांसाहार की तुलना में फलों, सब्जियों और दालों  आदि शाकाहारी भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा और कोशिकाओं को पोषण देने वाले आवश्यक माइक्रोन्यूट्रिएंट तत्व संतुलित मात्रा में पाए जाते हैं। निरोगी रखने वाले निरामय आहार-रेशे (फाइबर) तो मात्र शाकाहार में ही उपलब्ध है। पोषण संतुलन के लिए किंचित भी सामिष पदार्थ की आवश्यकता नहीं है।

भ्रम # 7- हिंसा तो वनस्पति आहार में भी है:
पौधों में प्राणियों जैसी सम्वेदना का प्रश्न ही नहीं उठता। उनमें सम्वेदी तंत्रिकातंत्र पूर्णतः अनुपस्थित है। न उनमें उस भांति मस्तिष्क होता है और न ही प्राणियों जैसी सम्वेदी-तंत्र संरचना। सम्वेदना तंत्र के अभाव में शाकाहार और मांसाहार के लिए पौधों और पशुओं के मध्य समान हिंसा की कल्पना पूरी तरह से असंगत है। जैसे एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक फल के जीव के जीवन-मूल्य में भी भारी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय व आतंक लगता है। क्षुद्र से क्षुद्र कीट भी मृत्यु या शरीरोच्छेद से बचना चाहता है। पशु पक्षी आदि में पाँच इन्द्रियां होती है वह जीव उन पाँचो इन्द्रियों से सुख अथवा दुख अनुभव करता है, सहता है, भोगता है। कान, आंख, नाक, जिव्हा और त्वचा तो उन इन्द्रियों के उपकरण मात्र है इन इन्द्रिय अवयवों के त्रृटिपूर्ण या निष्क्रिय होने पर भी पाँच इन्द्रिय जीव, प्राणघात और मृत्युवेदना, सभी पाँचों इन्द्रिय सम्वेदको से अनुभव करता है। यही वह संरचना है जिसके आधार पर प्राणियों का सम्वेदी तंत्रिका तंत्र काम करता है। जाहिर है, जीव जितना अधिक इन्द्रियसमर्थ होगा, उसकी मरणांतक वेदना और पीड़ा उतनी ही दारुण होगी। इसीलिए पंचेन्द्रिय (पशु-पक्षी आदि) का प्राण-घात, क्रूरतम प्रक्रिया होती है। क्रूर भावों से दूर रहने के लिए, करूणा यहां प्रासंगिक है। विवेक यहां अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है और वह निर्दोष विकल्प शतप्रतिशत शाकाहार ही है।

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शनिवार, 21 जनवरी 2012

भारत के प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट हुसैन ज़ामिन जी को नमन

यह अपडेट भारत के प्रसिद्ध कार्टून आर्टिस्ट श्रीमान हुसैन जामिन साहब का है। यह अपडेट अपने आप ही बहुत कुछ बयान कर रहा है। मुझे और कुछ लिखने या कहने की जरूरत नहीं। श्री जामिन साहब का कहना है कि यह उनका नितांत व्यक्तिगत फैसला है। इस अपडेट के माध्यम से वे न तो मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध कोई सन्देश दे रहे हैं और न ही अपने इस कृत्य के जरिये किसी भी अन्य व्यक्ति की जीवन शैली या भोजन शैली को प्रभावित करना चाहते हैं।

श्रीमान हुसैन जामिन साहब का फेसबुक अपडेट 

भारत के शिरोमणि कार्टूनिस्टों में शुमार श्री हुसैन ज़ामिन जी के इस निर्णय पर सादर नमन!

इसी ब्लॉग पर उन महानुभावों के बारे में जान चुके हैं  जिन्होने गतवर्ष शाकाहार अपनाकर अहिंसा और जीवदया के सद्प्रयास को बल दिया:
* दीप पांडेय
* इम्तियाज़ हुसैन
* कुमार राधारमण
* शिल्पा मेहता

बुधवार, 18 जनवरी 2012

शाकाहार पर ‘निरामिष’ की तथ्यनिष्ठा


निरामिष सामूहिक ब्लॉग मानवीय जीवन के पोषण और स्वास्थ्य विषय की सम्वेदनशीलता के प्रति पूर्ण सचेत और निष्ठावान है। मानवीय पोषण और स्वास्थ्य मामलों पर लिखते हुए हम अति सम्वेदनशील होते है, स्थापित वैज्ञानिक तथ्यों व सन्दर्भों के साथ ही जानकारी प्रस्तुत करना हमारी निष्ठा है क्योंकि मामला जब मानव स्वास्थ्य का होता है तो इसकी गम्भीरता के प्रति अतिरिक्त सजग रहना हमारा कर्तव्य है। इसीलिए पोषण और स्वास्थ्य के प्रति फैलाई जा रही भ्रांतियों का खण्डन भी हमारे लिए परम् आवश्यक है। मानव पोषण व स्वास्थ्य के साथ किसी भी तरह की खिलवाड़ नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मात्र तर्क जीतना  हमारा लक्ष्य नहीं है,  कभी तार्किक तथ्य परास्त भी हो जाय, पर अवैज्ञानिक धारणाओ का सहारा लेकर बात बचाना हमारा ध्येय नहीं है ।

यह स्थापित सत्य  है कि शक्ति, ऊर्जा, पोषण, स्वास्थ्य और मानवता की दृष्टि से शाकाहार जीवन शैली सर्वोत्कृष्ट है।

ऐतिहासिक शोध साक्ष्यों और स्थापित विकास मॉडल के आधार पर भी शाकाहार, विकसित सभ्य खाद्याचार सिद्ध है। नवीनतम पर्यावरणीय संशोधनों के अनुसार शाकाहार निश्चित ही सर्वश्रेष्ठ पर्यावरण मित्र  है।

विभिन्न मूल धार्मिक उपदेश,  धर्मग्रंथो के सत्यनिष्ठ भावार्थ और करूणा प्रधान धर्म-सिद्धांत, शाकाहारी जीवन शैली को ही उपादेय सुनिश्चित करते है।

मानव जीवन में करूणा, अहिंसा और सम्वेदनाओं की अनिवार्यता पर कोई विशिष्ठ वैज्ञानिक शोध उपलब्ध नहीं है। किन्तु सर्वजग में शान्ति, और सहजीवन सहकारिता के लिए अहिंसा, करुणा, और सम्वेदनाओं की आवश्यकता सर्वोपरि है। सम्पूर्ण मानव सभ्यता के अनुभवजन्य ज्ञान से भी करुणा, अहिंसा और सम्वेदनाओं की पूर्णरूपेण ज्वलंत आवश्यकता निश्चित है। अतः करुणा, अहिंसा और सम्वेदनाओं में विकास के लिए शाकाहारी जीवन मूल्यों को स्थापित करना अपरिहार्य है।

आप हमारे आलेखों का सन्दर्भ निर्भयता के साथ दे सकते हैं क्योंकि प्रत्येक आलेख की प्रमाणिकता की यथासम्भव जाँच की गयी है और हमारे आलेखों में केवल विश्वसनीय जानकारी को ही लिया गया है।
सभी आलेखों का सर्वाधिकार “निरामिष” व लेखकों के पास सुरक्षित है। किसी भी रूप में पुनर्प्रकाशन से पहले अनुमति एवं प्रकाशन पर सन्दर्भ देना आवश्यक है।

शनिवार, 14 जनवरी 2012

शाकाहार पहेली 2012 के परिणाम

निरामिष शाकाहार पहेली 2012 - परिणाम निरामिष ब्लॉग की पहली वर्षगांठ के अवसर पर हमने आपका आभार व्यक्त करने के लिये एक छोटी सी शाकाहार प्रहेलिका का आयोजन किया था। आइये, आज एक नज़र डालें निरामिष पहेली के परिणामों पर।
प्रथम निरामिष शाकाहार पहेली - सवालों पर एक पुनर्दृष्टि
प्रश्न 1: निरामिष स्वर

यह किसकी आवाज़ है? भारतीय सिने जगत से जुड़ी यह अभिनेत्री जन्म से मांसाहारी थी। अपने परिवार, आस-पड़ोस में इन्होंने पशुहत्या और मांसाहार ही होते देखा था। लेकिन जैसे ही इन्हें अवसर मिला, इस हस्ती ने अहिंसा और दया के महत्व को पहचाना और शाकाहारी जीवन अपनाया।
उत्तर: पाकिस्तान में जन्मी अभिनेत्री वीना मलिक ने अपने देश में सदा जीवहत्या का वातावरण ही देखा परंतु भारत से जुड़ने के बाद उन्होंने न केवल अहिंसा और शाकाहार को अपनाया बल्कि अब वे शाकाहार जागृति अभियानों से भी जुड़ीं हैं।

प्रश्न 2: निरामिष चित्र
इस चित्र में अमेरिका में अहिंसक परिवर्तन के प्रणेता, प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता और गांधीवादी मार्टिन लूथर किंग जूनियर के आगे खड़ी ये प्रसिद्ध शाकाहारी अमेरिकी महिला कौन हैं और किस कार्य के लिये विश्वप्रसिद्ध हैं?
उत्तर: अमेरिका के अनेक नगरों की तरह मॉंटगुमरी के नियमों के अनुसार बसों की सीटें श्वेत यात्रियों के लिए आरक्षित सीटें होती थी। यदि श्वेत यात्री आये तो अश्वेत यात्रियों को सीट खाली करनी होती थी। मनुष्यों में भेदभाव करने वाले कानून को रोकने के लिये दृढप्रतिज्ञ रोज़ा पार्क्स ने 1 दिसम्बर 1955 को एक बसयात्रा में अपनी सीट एक श्वेत यात्री के लिए खाली करने से मना किया और गिरफ़्तार हुईं और उन पर 10 डॉलर का जुर्माना लगा। मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में काले कानून का अहिंसक विरोध होता रहा और 40,000 से अधिक अश्वेतों ने 381 दिनों तक बसों का अहिंसक बहिष्कार किया। 20 दिसंबर 1956 में अमरीकी सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इस भेदभाव का अंत हुआ। और उसकी नायिका बनीं, शाकाहारी सामाजिक कार्यकर्ता रोज़ा पार्क्स। सन 2005 में अपनी मृत्यु तक वे नागरिक अधिकारों के लिए काम करती रहीं।

प्रश्न 3: वैदिक यज्ञ
यज्ञ की अग्नि में अन्न व औषधियों की समिधा देने वाले हमारे ऋषि-मुनियों ने पशुबलि में लिप्त रहे समुदायों के उत्थान और समन्वयीकरण के उद्देश्य से कई निरामिष यज्ञों में अन्न का बना पशु भी प्रयोग किया। विभिन्न प्रकार के अन्न यथा जौ, चावल, तिल के साथ अन्य पदार्थ गुड़, सोमरस, घी आदि मिलाकर बने वास्तविक जैसे लगने वाले यज्ञ-पशु को क्या कहते हैं?
उत्तर: ऐतरेय ब्राह्मण की कथा में वर्णन है कि देवताओं ने मेधा को ढूंढना आरम्भ किया तो उसे पृथ्वी से अन्न के रूप में उगता पाया। उसी ग्रंथ में अग्निहोत्र के लिये अन्न से यज्ञ पशु बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन है। अन्न से बने इस यज्ञपशु को पुरोडाश कहा गया है। विभिन्न मिट्टी के कपाळ (खपटे) पर रखकर यज्ञों में देवताओं के लिये पुरोडाश पकाया जाता था। पुरोडाश के लिये पीसे गये अन्न को पिष्ट (पिट्ठी) कहने के कारण इसे पिष्ट पशु भी कहते हैं। मनु और श्रद्धा के एक सन्दर्भ में पाकयज्ञ स्थल पर मित्रावरुण देवों की उपस्थिति में ग्रीष्म ऋतु को अग्नि और शरद ऋतु को पुरोडाश माना गया है।


प्रश्न 4: पर्यावरण
मांसाहार पर्यावरण के लिये एक बड़ा खतरा बनकर सामने आया है। इसके प्रमुख दुष्प्रभाव निम्न हैं
 क) वन विनाश घ) जलवायु प्रदूषण ख) खाद्यान्न की कमी त) हिंसक प्रवृत्ति का सामान्यीकरण ग) बिजली और पानी की बर्बादी थ) मांसाहार उपरोक्त सभी हानियों का कारक है
उत्तर: मांसाहार उपरोक्त सभी हानियों का कारक है।

प्रश्न 5: स्वास्थ्य
शरीर में, प्रयोगशाला में और मृदा में पाये जाने वाले बैक्टीरिया द्वारा संश्लेषित विटामिन बी12 के प्रमुख ज्ञात शाकाहारी स्रोत निम्न हैं:
क) पनीर घ) मट्ठा ख) दूध त) T-6635+ खमीर ग) दही थ) उपरोक्त सभी
उत्तर:विटामिन बी12 बैक्टीरिया द्वारा संश्लेषित होता है और प्राणियों के पाचन तंत्र के अतिरिक्त उपरोक्त सभी शाकाहारी तत्व भी विटामिन बी12 के ज्ञात स्रोत हैं।

प्रश्न 6: क्रीड़ा, स्पोर्ट्स
1 अप्रैल 1911 को जलन्धर, भारत में जन्मे शतायु मैराथन धावक सन् 1992 से लंडन में रहते हैं। उनकी जीवनी का शीर्षक "द टर्बन्ड टॉर्नेडो" है। अंतर्राष्ट्रीय खेल जगत का यह शाकाहारी नायक दाल, सब्ज़ी, और फुल्कों के अतिरिक्त दूध, दही और सोंठ का मुरीद हैं। 5 फ़ुट 11 इंच ऊंचाई और 52 किलो भार वाले इस शाकाहारी शतायु युवा धावक का नाम क्या है?
उत्तर: विश्व के सबसे उम्रदराज़ मैराथन धावक फ़ौजा सिंह शुद्ध शाकाहारी हैं। उनके बारे में विस्तृत जानकारी निरामिष के आलेख "चैम्पियन शतायु धावक" में उपलब्ध है।
प्रथम शाकाहार प्रहेलिका 2012 के पुरस्कार
प्रथम पुरस्कार: 2,500 रुपये की पुस्तकें और प्रमाणपत्र
द्वितीय पुरस्कार: 1,500 रुपये की पुस्तकें और प्रमाणपत्र
तृतीय पुरस्कार: 500 रुपये की पुस्तकें और प्रमाणपत्र
लगता है कि हमारी पहली पहेली कुछ ज़्यादा ही कठिन हो गयी थी। किसी भी पाठक ने सभी छः प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दिया, इसलिये इस बार का प्रथम पुरस्कार अनक्लेम्ड रहा है। फिर भी हमें दो विजेता मिले हैं। शिल्पा मेहता ने चार सही उत्तर देकर तृतीय पुरस्कार और अभिषेक ओझा ने पाँच सही उत्तर देकर द्वितीय पुरस्कार प्राप्त किया है। निरामिष सम्पादक मंडल की ओर से इन दोनों को हार्दिक बधाई और धन्यवाद!
प्रथम शाकाहार प्रहेलिका 2012 के विजेता
तृतीय विजेता: शिल्पा मेहता
(500 रुपये की पुस्तकें, प्रमाणपत्र और निरामिष ब्लॉग पर लेखन का आमंत्रण)
द्वितीय विजेता: अभिषेक ओझा
(1,500 रुपये की पुस्तकें, प्रमाणपत्र और निरामिष ब्लॉग पर लेखन का आमंत्रण)
प्रथम पुरस्कार: कोई विजेता नहीं
हमारे पाठक ही हमारे लिये असली विजेता हैं। आप सभी पाठकों का हार्दिक धन्यवाद! मकर संक्रांति, भोगाली बिहू, भोगी, सुग्गी, बोर नहान, तिलगुल, लोहड़ी, पोंगल, उत्तरायणी पर्व की हार्दिक बधाइयाँ!
(निवेदक: निरामिष सम्पादक मंडल)

रविवार, 8 जनवरी 2012

शाकाहार क्यों? कुछ विचार

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक जब मानव का विकास हुआ (एक कोशिकीय जीव, बहु कोशिकीय जीव और इसी तरह आगे) तब वह सभ्यता-संस्कृति विहीन जीव था। मतलब अन्य प्राणियों की तरह, उसका एक मात्र ध्येय था अपने जीवन की, अपने प्राण की रक्षा। एक ऐसे प्राणी से, जिसके मस्तिष्क में केवल अपने जीवन-यापन हेतु खाने और रहने की समझ है, क्या अपेक्षा की जा सकती है? स्पष्ट है कि जब मानव प्रागैतिहासिक युग में था तो उसके पास खाने को लेकर सीमित विकल्प थे। कालांतर में जैसे जैसे मानव सभ्यता की तरफ बढा, उसने पत्थर से धातु की तरफ कदम रखा, जब उसने आग की खोज की, पहिये का अविष्कार किया और खेती का, तो फिर उसके तौर तरीके भी बदल गए। जहाँ पहले वह प्रकृति के अन्य जीवों की देखादेखी मांस और प्रकृति दत्त कंद मूल पर निर्भर रहता था, अब वह अन्न उपजाने लगा। मतलब यह कि जैसे जैसे मानवीय सभ्यता आगे की तरफ बढ़ी, शाकाहार का प्रचलन बढ़ने लगा।

शिल्पा मेहता जी ने पिछले आलेख में शाकाहार और मांसाहार से जुड़ी तमाम भ्रांतियों पर ज्ञानवर्धक जानकारी दी है। माँसाहार के समर्थन में कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि इन जानवरों को काटा न जाए तो ये पूरी जमीन पर काबिज हों जायेंगे। क्या ऐसा ही कुछ मनुष्यों के बारे में भी कहा जा सकता है? शेर को तो नहीं काटा जाता (यद्यपि शिकार काफी हुआ है) लेकिन फिर भी शेरों की संख्या इतनी नहीं बढ़ गयी कि पूरी पृथ्वी को घेर लेते। भारत के संदर्भ में यही बात मक्खी - मच्छरों के सन्दर्भ में कही जा सकती है। खूब होते हैं लेकिन फिर भी पृथ्वी को इतना न घेर सके कि मानव को रहने के लिए ही जगह न बचे। कुछ दिनों पहले एक चैनल पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिसमें भ्रूण (जानवरों के) को भोजन के बतौर प्रयोग के बारे में दिखाया जा रहा था। एक देश के बारे में समाचारपत्र में पढ़ा था कि वहाँ मानव भ्रूण भी बिकते हैं। क्या माँसाहारी व्यक्ति भी अपने साथ ऐसा व्यवहार  स्वीकार कर सकते हैं? कदापि नहीं।

क्या ऐसा भी हो सकता है कि हम अपने ही किसी अंग का प्रयोग आहार हेतु कर लें? नहीं। आपातकाल में भी व्यक्ति क्षुधा से तड़प कर मर तो जाता है लेकिन अपने किसी अंग का प्रयोग आहार बतौर नहीं करता। क्यों? यहाँ तक कि जो नरभक्षी जातियों के बारे में पढ़ रखा है वह यह कि वे भी बाहरी लोगों को ही अपना शिकार बनाती हैं न कि अपने ही लोगों को। तर्क और कुतर्क के बीच में एक बड़ी मामूली सी रेखा होती है और यह मानना पड़ेगा कि कुतर्क करने वाला व्यक्ति हमेशा अधिक तैयारी से आता है.(गो का अर्थ हमेशा गाय नहीं होता, जैसे कि मन का अर्थ मस्तिष्क, और तोलने की इकाई होता है, कर का अर्थ करना, टैक्स और हाथ भी होता है)। जितना विविधता पूर्ण आहार शाक-सब्जियों से प्राप्त होता है उतना माँस से नहीं। पोषक तत्वों की विविधता के बारे में भी निरामिष के पिछले लेखों में बताया ही जा चुका है और फिर इस सब के बाद भी मांसाहारी व्यक्ति को भी अन्न की भी आवश्यकता पड़ती है और अन्य शाक-सब्जियों की भी।

सबसे बड़ी बात है हिंसा की - हत्या की। जो व्यवहार हम एक निरीह पशु-पक्षी के साथ करते हैं, क्या उस व्यवहार की कल्पना भी हम अपने बारे में, अपने प्रिय जनों के बारे में कर सकते हैं। क्या हम सोच सकते हैं कि हम खुद या फिर हमारा कोई प्रिय जन किसी नरभक्षी के हाथों उस का ग्रास बने। नहीं, ऐसा हम सोचना भी पसंद नहीं करते। फिर। जरूरत है एक सेकेण्ड थॉट की, स्वयं  को दूसरे की जगह रखकर सोचने की।

शनिवार, 7 जनवरी 2012

अन्न / फल / फूल / कंद / मूल आदि पर आधारित आहार , और चल प्राणियों से प्राप्त आहारों में मूल फर्क क्या है ?

निरामिष शाकाहार प्रहेलिका 2012 पर अपने उत्तर लिख भेजिए
* तुलना *

१. त्या है या नहीं है इस आधार पर
- शाकाहार में हत्या नहीं है (न फल लेने में / न फूल / न सब्जी - क्योंकि ये वस्तुएं पौधे की हत्या किये बिना ही मिलती हैं | इसी तरह न ही अन्न लेने में भी नहीं - क्योंकि अन्न मिलने के लिए काटे जाने से पहले ही वह पौधा अपना जीवन पूरा कर के सूख चूका होता है )
- मांसाहार में हत्या निश्चित है।

२. जो भाग भोजन के लिए मानव लेता है
- वह दोबारा उग सकता है ?
- शाकाहार में - हाँ |
- मांसाहार में - नहीं |

३. यदि मानव उस भाग को मूल जीव (पौधे या चल प्राणी से ) विलग न करे - तो क्या वह स्वयमेव विलग हो जाने वाला है ही समयक्रम में बिना उस प्राणी की मृत्यु के ? 
 - शाकाहार में (फल / फूल / पत्ते ) - हाँ   (श्री गीता जी में कृष्ण कहते हैं - पत्रं /पुष्पं / फलं / तोयं )
- मांसाहार में - नहीं।

४. क्या उस भाग को विलग किया जाना उस जीव को दर्द की और भय की अनुभूति देगा ?
ध्यान दीजिये - दर्द / भय की अनुभूति के लिए यह तर्क दिया जाता है कि पौधों में भी ठीक वैसा ही तंत्रिका तंत्र (neural system)  है - जिससे वे अनुभूति कर पाते हैं -| यह बात सच नहीं है | पेड़ों की तंत्रिका प्रणाली (nerves) एक रोबोट के संवेदक (sensors) की तरह हैं - उनको दर्द / भय / आदि की अनुभूति (feelings) इसलिये नहीं हो सकतीं - क्योंकि उनमे मस्तिष्क (brain) नहीं है्। हम जो भी महसूस करते हैं - वह सिर्फ इन्दिय अवयव (sense organs) और तंत्रिका (nerves) से नहीं | कान सुनते हैं, तंत्रिका (nerves) उस ध्वनि को दिमाग तक ले जाती हैं, किन्तु शब्द को मस्तिष्क (brain) पहचानता है | इसी तरह आँखों का देखना देखना नहीं है - वे सिर्फ दृश्य को रेटिना पर चिन्हित करती हैं - फिर ऑप्टिक नर्व (optic nerve) इस चिन्हित छवि को दिमाग तक ले जाती है - जहां छवि (image) पहचानी जाती है। यह बात सभी इन्द्रियों पर लागू है।| (sight hearing touch taste smell ) | तो दर्द और भय की अनुभूति सिर्फ तंत्रिका तंतु या nerves द्वारा नहीं हो सकती - इसलिए वे जीव जिनमे मस्तिष्क (brain) न हो - वे पीड़ा और भय आदि महसूस नहीं करते। और मस्तिष्क नन्हे से नन्हे चल प्राणी (जैसे कॉकरोच ) में भी होता है , जबकि विशाल से विशाल अचल प्राणी (जैसे बरगद के पेड़ ) में भी नहीं होता।

५. क्या ईश्वर के सृष्टि नियमो के अनुसार वह जीव ईश्वर के प्रदत्त  सौर उर्ज़ा स्रोत (Solar energy source) से सीधा भोजन तैयार कर रहा है - अपनी निजी आवश्यकता से अधिक मात्रा में - जिससे दूसरे जीवों की आहार आवश्यकता पूरी हो सके ?
- पौधे - हाँ  (क्लोरोफिल संश्लेषण- chlorophyll - photosynthesis )
- चल जीव ( बकरे, मुर्गे आदि ) में - नहीं |
{ इस सिद्धांत का मात्र एक अपवाद (exception) है - गौ माता की पीठ में एक "सूर्य केतु नाडी" है , जो गाय के दूध को अमृत जैसे गुण प्रदान करती है }

६. क्या उस जीव द्वारा दिया गया भोजन एक बार लेने के बाद पुनः बन सकता है ?
-- फल फूल पत्तियां - हाँ ,
-- अन्न, कंद, मूल, मांसाहार - नहीं |

किन्तु - ध्यान दिया जाए कि
अन्न - 
(क) आप न भी लें - तो भी वह पौधा उस समय अपना जीवन काल पूर्ण कर के सूख ही चुका है - आपके अन्न लेने या न लेने से उसके जीवनकाल में कोई बदलाव नहीं आएगा , वह फिर से नहीं जियेगा |

(ख) अन्न देने वाले पौधे - जो मूलतः (basically) घास परिवार के हैं - गेंहू, चावल आदि - ये अपने बीज के रूप में अन्न बनाते हैं |

(ग) किन्तु, ये बीज न तो फल में हैं (आम की तरह ) जो इन्हें खाने वाले प्राणी इनके बीजों को कही और पहुंचा सकें, न इनमे उड़ने की शक्ति है कि ये हवा से फैलें , न ही किसी और तरह की फैलने की क्षमता | पौधों के प्रजनन में बीज के होने का जितना महत्व है, उतना ही उसके फैलने का जिससे वह कही और उग सके, या फिर रोपण का - जिससे वह वहीँ उग सके | ( क्योंकि पौधे अचल हैं, वे स्वयं तो कहीं जा कर अपने बीज रोप ही नहीं सकते ) तो - अन्न के जिस पौधे का जो स्थान है - वहीँ उसके बीज गिरेंगे - यदि मनुष्य न ले तो | तो वहीँ एक पौधे के सिर्फ एक ही बीज के पनपने की संभावना है | बाकी बीज वैसे भी - प्राकृतिक रूप से ही - नहीं पनपेंगे | ये पौधे सिर्फ पुनरुत्पत्ति (reproduction) के ही लिए बीज नहीं बनाते हैं - ये प्रजनन संभावना (reproductive possibility) से कई कई गुणा अधिक बीज बनाते हैं | वह इसलिए - कि ईश्वर ने इन्हें दूसरे प्राणियों को ( जो chlorophyll न होने से स्वयं सूर्य किरणों से भोजन नहीं बना सकते ) भोजन मुहैया कराने को ही ऐसा बनाया है कि ये अपनी प्रजनन (reproductive) ज़रुरत से कई गुणा अधिक बीज बनाएं |

(घ) जब उतनी ही जमीन पर उतने ही पौधे उगने हैं, यदि बीज को इंसान ले / या न ले - तो वह तो बीज अन्न रूप में लेकर भी इंसान कर ही रहा है | उतने बीज तो किसान अगले वर्ष की फसल को उतनी जमीन में फिर से बोयेगा ही - और नयी संतति उन पौधों की उतनी जमीन में उतनी ही संख्या में फिर भी उगेगी - जितनी मनुष्य के न लेने पर उगती |

(च) तथाकथित मांसाहार के समर्थक - जो इस आधार (basis) पर तुलना (comparison) करते हैं, वे भी मांसाहार को अन्न के पूरक की तरह नहीं, बल्कि शाक सब्जी के पूरक की तरह इस्तेमाल करते हैं - वे शाक सब्जियां - जो पौधों में पुनः पुनः फलती ही जाती हैं , और पौधे से बिना हत्या / बिना भय / बिना पीड़ा के प्राप्त होती हैं |

७. वह भोजन प्राप्त करने के लिए क्या किसी न किसी मनुष्य को किसी भी रूप में "हत्या / क्रूरता" ( एक चीखते/ रोते / जीवित रहने का प्रयास करते / तड़पते जीव का सर या गला काटना आदि ) करना पड़ा ?
- पौधों में - नहीं (अन्न के पौधे भी काटे जाते हैं - किन्तु तब जब वे पहले ही निर्जीव हो चुके होते हैं )
- चल प्राणियों में - हाँ |

८. कंद मूल आदि - प्याज / आलू / गाजर आदि तो पौधे को जड़ से उखाड़ कर पाए जाते हैं न ?
हाँ - ये सब इसीलिए शुद्ध सात्विक शाकाहार की श्रेणी में नहीं माने जाते | अनेक परम्परागत भारतीय रसोइयों में लहसुन, प्याज आदि कभी घुस नहीं सके है।

९. क्या किसी एक आहार विकल्प (केवल शाकाहार या केवल मांसाहार) पर निर्भर रहते हुए मनुष्य जीवित रह सकता है ?
- शाकाहार - हाँ
- मांसाहार - नहीं।

१०. क्या यह पूर्ण सन्तुलित आहार (complete balanced diet) है - अर्थात - मोटे तौर पर कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज, विटामिन, रेशे और जल (carbohydrates , fats , proteins , minerals , vitamins , fibre , water) सभी इससे मानव जीवन के लिए पर्याप्त मात्रा में मिल सकते हैं ?
- शाकाहार - सभी पोषक-तत्व संतुलित (nutrients balanced) रूप में मिलते है।|
- मांसाहार - केवल वसा और प्रोटीन (fats and proteins) | अन्य के लिए आपको मांसाहार  के साथ ही शाकाहार लेना ही पड़ेगा | क्योंकि मात्र मांसाहार पर कोई मनुष्य जीवित नहीं रह सकेगा।
ऐसे आहार पर सिर्फ मांसाहारी प्राणी (carnivorous animals) शेर /चीते आदि ही जी सकते हैं , मनुष्य नहीं।

११. क्या इसे पचाने के लिए हमारे पाचन तंत्र (liver / digestive system) पर जोर पड़ता है ? या अन्य प्रणाली - हमारी रक्त धमनियों पर, ह्रदय पर , गुर्दों आदि पर ?
- शाकाहार - नहीं, ये हमारे शारीरिक सिस्टम्स पर बिलकुल अतिरिक्त बोझ नहीं डालता, यह हल्का और सुपाच्य है |
- मांसाहार - हाँ - यह शरीर की हर प्रणाली (system) के लिए भारी है।|
शरीर में कोई भी छोटी बड़ी व्याधि आने पर डॉक्टर्स, खिचड़ी / फलों का रस / नारियल पानी (शाकाहारी पदार्थ) लेने को कहेंगे , उसे भी - जो आमतौर पर ये चीज़ें न खाता हो - क्योंकि ये चीज़ें शरीर की पाचन प्रणाली पर भारी नहीं पड़तीं | इससे उलट देखिये - अंडा / मांस / मछली (मांसाहारी चीज़ें ) यदि साधारण तौर पर व्यक्ति खाता भी हो - तो भी बीमारी ( छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बीमारी ) में बंद करने को कहा जायेगा - भले ही कुछ ही दिनों को सही - क्योंकि ये चीज़ें हमारे हर प्रणाली (system) पर भारी पड़ती हैं।

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इन सब के अलावा भी - सात्विकता और तामसिकता का फर्क तो है ही।

यह स्थापित सत्य हैं कि जीव हत्या / जीव पीड़ा / जीव उत्पीडन / जीव क्रूरता के बिना मांसाहारी खाद्य पदार्थ प्राप्त किये ही नहीं जा सकते | मांस हर जीव का शरीर अपनी निजी जीवन यापन की आवश्यकता के लिए और उतनी मात्रा में ही बनाता है - दूसरे प्राणियों के लिए अतिरिक्त मात्रा में नहीं बनाता, मांस ले लिए जाने पर भी अपना जीवन निर्बाध रूप से जी ही नहीं सकता | ......... जबकि पौधे सूर्य की किरणों से - अपनी निजी आवश्यकता से कहीं अधिक मात्रा में, पुनः पुनः भोजन बना सकते हैं, और बिना स्वयं के (उस पौधे के) प्रति किसी भी प्रकार की जैविक नकारात्मक साइड इफेक्ट( negative side effects) के वह सूर्य किरणों से बनाया गया भोजन देने के में सक्षम हैं। उनका बनाया भोजन मनुष्य ले या न ले - इससे न उन पौधों के जीवन की अवधि पर असर पड़ता है, और न ही उन्हें किसी प्रकार की कोई पीड़ा महसूस होती है।


लेखक - शिल्पा मेहता 

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

निरामिष शाकाहार प्रहेलिका 2012

निरामिष के सभी पाठकों व हितैषियों को नववर्ष 2012 की शुभकामनायें! पता ही नहीं चला कि आपसे बात करते-करते कब एक वर्ष बीत गया। शाकाहार, करुणा, और जीवदया मे आपकी रुचि के कारण ही इस अल्पकाल में निरामिष ब्लॉग ने इतनी प्रगति की। एक वर्ष के अंतराल में ही हमारे नियमित पाठकों की संख्या हमारे अनुमान से कहीं अधिक हो गयी है और लगातार बढती जा रही है। इस ब्लॉग पर हम शाकाहार के सभी पक्षों को वैज्ञानिक, स्वास्थ सम्बन्धी, धार्मिक, मानवीय विश्लेषण करके तथ्यों के प्रकाश में सामने रखते हैं ताकि ज्ञानी पाठक अपने विवेक का प्रयोग करके शाकाहार का निष्पाप मार्ग चुनकर संतुष्ट हों।

हमारे पाठक ब्लॉगर श्री सतीश सक्सेना जी, डॉ रूपचन्द शास्त्री जी, राकेश कुमार जी, रेखा जी, वाणी गीत जी, मदन शर्मा जी, तरूण भारतीय जी, सवाईसिंह जी, पटाली द विलेज, संदीप पंवार जी, कुमार राधारमण जी का प्रोत्साहन के लिए आभार व्यक्त करते है।

हमारे सुदृढ़ स्तम्भ, विशेषकर सर्वश्री विरेन्द्र सिंह चौहान, गौरव अग्रवाल, डॉ मोनिका शर्मा, शिल्पा मेहता, आलोक मोहन, प्रश्नवादी  जैसे समर्थकों का विशेषरूप से आभार व्यक्त करना चाहते हैं जिन्होंने लेखकमण्डल से बाहर रहते हुए भी हमें भरपूर समर्थन दिया है। हमारे एक जोशीले पाठक ने निरामिष ब्लॉग के सामने शाकाहार के विरोध में कई भ्रांतियाँ और चुनौतियाँ रखीं। डॉ. अनवर जमाल द्वारा पोषण, शाकाहार, और भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के सम्बन्ध में प्रस्तुत प्रश्नों ने हमें प्रचलित बहुत सी भ्रांतियों को दूर करने का अवसर प्रदान किया। मांसाहार की बुराइयों को उद्घाटित करने और उनके मन में पल रहे भ्रम के बारे में जानने के कारण हमें शाकाहार सम्बन्धी विषयों की वैज्ञानिक और तथ्यात्मक जानकारी प्रस्तुत करने में अपनी प्राथमिकतायें चुनने में आसानी हुई। आशा है कि वे हमें भविष्य में भी झूठे प्रचार की कलई खोलने के अवसर इसी प्रकार प्रदान करते रहेंगे।

पहेली की ओर आगे बढने से पहले हम अभिनन्दन करना चाहते हैं उन सभी महानुभावों का जिन्होने गतवर्ष शाकाहार अपनाकर हमारे प्रयास को बल दिया:
* दीप पांडेय
* इम्तियाज़ हुसैन
* कुमार राधारमण
* शिल्पा मेहता


अपनी पहली वर्षगांठ के अवसर पर आज हम आपका आभार व्यक्त करना चाहते हैं, एक छोटे से आयोजन के साथ। आइये, हल करते हैं आज की निरामिष पहेली अपने निराले शाकाहारी, सात्विक अन्दाज़ में। केवल कुछ सरल प्रश्न और बहुत से पुरस्कार। हमारा प्रयास है कि इस प्रतियोगिता में सम्मिलित प्रश्नों के उत्तर या उनके संकेत आपको निरामिष ब्लॉग की पिछली प्रविष्टियों व टिप्पणियों में मिल जायें।
प्रथम निरामिष शाकाहार पहेली
प्रश्न 1: निरामिष स्वर

ज़रा ध्यान से सुनिये यह आवाज़। भारतीय सिने जगत से जुड़ी यह अभिनेत्री जन्म से मांसाहारी थी। अपने परिवार, आस-पड़ोस में इन्होंने पशुहत्या और मांसाहार ही होते देखा था। लेकिन जैसे ही इन्हें अवसर मिला, इस हस्ती ने अहिंसा और दया के महत्व को पहचाना और शाकाहारी जीवन अपनाया, ज़रा पहचानिए तो इस आवाज़ को, और लिख दीजिये इनका नाम - टिप्पणी बक्से में:


प्रश्न 2: निरामिष चित्र
इस श्वेत-श्याम चित्र को ध्यान से देखिए। इसमें अमेरिका में अहिंसक परिवर्तन के प्रणेता, प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता और गान्धीवादी मार्टिन लूथर किंग जूनियर को तो आपने ज़रूर ही पहचान लिया होगा। हमारा प्रश्न है कि उनके आगे खड़ी ये प्रसिद्ध शाकाहारी अमेरिकी महिला कौन हैं और किस कार्य के लिये विश्वप्रसिद्ध हैं? संकेत यह है कि यह शाकाहारी महिला अमेरिका में एक क्रांति की सूत्रधार बनीं। यद्यपि अपने उद्देश्य पर अड़े रहने के लिये आरम्भ में उन्हें काफ़ी कष्ट सहने पड़े, पर समय बीतने के साथ संसार ने मानवता के प्रति इनके आग्रह को समझा और इन्हें बहुत सम्मान मिला। आज यह महान हस्ती इस संसार में नहीं हैं परंतु आप इनसे न्यूयॉर्क के मैडम तुसाद वैक्स म्यूज़ियम में आज भी मिल सकते हैं। इनका नाम और इनकी प्रसिद्धि का कारण हमारे टिप्पणी बक्से में लिख दीजिये और इस प्रतियोगिता का विजेता बनने की ओर अपना दावा सशक्त कीजिये।

सभ्यता के प्रसार से पहले की कबीलाई संस्कृतियों में न केवल पशु, बल्कि मानव भी सुरक्षित नहीं थे। नरभक्षी कबीले तो इंसान को भी खा जाते थे, बहुत से कबीले बलि के नाम पर पशु हत्या को धर्म का नाम देते थे। जब ऋषियों ने देवपूजा का नया मार्ग प्रस्तुत किया जिसमें यज्ञ की अग्नि में अन्न व औषधियों की समिधा दी जाने लगी, तब आसुरी व राक्षसी शक्तियों ने पशुमांस व अस्थियाँ डाल-डालकर ऐसे यज्ञों का ध्वंस आरम्भ किया और विरोध करने वाले ऋषियों का अपमान, त्रास व हत्या करने लगे। पहले से पशुबलि में लिप्त रहे समुदायों के उत्थान और समन्वयीकरण के उद्देश्य से हमारे ऋषियों द्वारा किये जाने वाले कई निरामिष यज्ञों में अन्न का बना पशु भी प्रयोग किया जाता था।

प्रश्न 3: वैदिक यज्ञ
क्या आप बता सकते हैं कि विभिन्न प्रकार के अन्न यथा जौ, चावल, तिल के साथ अन्य पदार्थ गुड़, सोमरस, घी आदि मिलाकर बने इस वास्तविक जैसे लगने वाले यज्ञ-पशु को क्या कहते हैं?

धरती की बढती पर्यावरण समस्या ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि में 18 प्रतिशत का योगदान मांस उद्योग के लिये किये जा रहे पशुपालन का है जो कि परिवहन क्षेत्र से भी अधिक है। वध किये जाने वाले पशुओं के चरागाह और पशु आहार की खेती के लिए दुनिया भर में वनों को काटा जा रहा है। केवल लैटिन अमेरिका में ही बूचड़खनों द्वारा 70% वन भूमि को चरागाह में बदल दिया गया है। वृक्ष कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषक होते हैं। उनकी कमी से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है और तापमान में बढ़ोतरी होती है। बूचड़खानों द्वारा छोड़े पशु-अवशेष से नाइट्रस ऑक्साइड नामक ग्रीनहाउस गैस निकलती है जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 296 गुना जहरीली है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शाकाहारी भोजन प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा के लिये भी आवश्यक है। हमारी एक पुरानी पोस्ट से लिया गया आज का चौथा सवाल पर्यावरण से सम्बन्धित है।

प्रश्न 4: पर्यावरण
मांसाहार पर्यावरण के लिये एक बड़ा खतरा बनकर सामने आया है। इसके प्रमुख दुष्प्रभाव निम्न हैं
क) वन विनाशघ) जलवायु प्रदूषण
ख) खाद्यान्न की कमीत) हिंसक प्रवृत्ति का सामान्यीकरण
ग) बिजली और पानी की बर्बादीथ) मांसाहार उपरोक्त सभी हानियों का कारक है

ब्रिटेन में कई दशकों तक 11,207 व्यक्तियों पर किये गये अध्ययन से ज्ञात हुआ कि सर्वोच्च बुद्धि अंक (आइक्यू, IQ) वाले बच्चे 30 वर्ष की आयु से पहले ही शाकाहारी हो गये। इसके अतिरिक्त शाकाहारियों के दीर्घायु होने की बात भी अनेक अध्ययनों द्वारा स्थापित हुई है। सर्वज्ञात है कि भारत में हृदय से जुड़ी बीमारियाँ, मधुमेह और कैंसर के मामले बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं और इसका सीधा संबंध अंडों, मांस आदि की बढ़ती खपत से है। भारत में तेजी से बढ़ रहे मधुमेह टाइप 2 से पीड़ित लोग शाकाहार अपना कर इस बीमारी पर नियंत्रण पा सकते हैं और अपना मोटापा भी घटा सकते हैं। शाकाहारी खाने में कोलेस्ट्राल बिल्कुल नहीं होता, वसा कम होती है, और यह कैंसर के खतरे को 40% कम करता है। स्वास्थ्य और शाकाहार के सम्बन्ध में अब प्रस्तुत है हमारा पाँचवाँ प्रश्न:

प्रश्न 5: स्वास्थ्य
शरीर में, प्रयोगशाला में और मृदा में पाये जाने वाले बैक्टीरिया दारा संश्लेषित विटामिन बी12 के प्रमुख ज्ञात शाकाहारी स्रोत निम्न हैं:
क) पनीरघ) मट्ठा
ख) दूधत) T-6635+ खमीर
ग) दहीथ) उपरोक्त सभी

आधुनिक खेल जगत स्वास्थ्य, पोषण व चिकित्सा के क्षेत्र में नवीनतम जानकारियों और सर्वश्रेष्ठ तकनीक का प्रयोग करने में सर्वप्रथम रहा है। टेनिस सितारा मार्टिना नवरातिलोवा, विश्व हैंगग्लाइडिंग चैम्पियन जूडी लेडेन, विंडसर्फ़िंग के विश्व चैम्पियन जटा म्युलर, कुश्ती के विश्व चैम्पियन क्रिस कैम्पबेल तथा 9 ओलम्पिक स्वर्ण विजेता व 8 विश्व-चैम्पियनशिप विजेता एथलीट कार्ल लुइस जैसे अग्रणी महा-खिलाड़ियों ने भारत के बाहर भी सम्पूर्ण विश्व में शाकाहार का लोहा मनवाया है। आज का अंतिम प्रश्न खेल जगत से सम्बन्धित है।

प्रश्न 6: क्रीड़ा, स्पोर्ट्स
खेल सामग्री निर्माता ऐडीडाज़ के विज्ञापनों में फ़ुटबाल खिलाड़ी डेविड बैकहम को हटाकर नये पोस्टर बॉय बनने वाले शतायु मैराथन धावक 1 अप्रैल 1911 को जलन्धर, भारत में जन्मे थे और सन् 1992 से लंडन में रहते हैं। उनकी जीवनी का शीर्षक "द टर्बन्ड टॉर्नेडो" अर्थात "पगड़ी वाला चक्रवात" है। अंतर्राष्ट्रीय खेल जगत का यह शाकाहारी नायक दाल, सब्ज़ी, और फुल्कों के अतिरिक्त दूध, दही और सोंठ का मुरीद हैं। क्या आप 5 फ़ुट 11 इंच ऊंचाई और 52 किलो भार वाले इस शाकाहारी शतायु युवा धावक का नाम बता सकते हैं?

प्रतियोगिता में भाग लेने के नियम....

1. आपको जितने प्रश्नों के उत्तर पता हैं, उन्हें टिप्पणी बॉक्स में लिखकर प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं।
2. प्रतियोगिता पूरी होने तक मॉडरेशन ऑन है ताकि आपके सही/ग़लत उत्तर किसी अन्य व्यक्ति को दिखाई न दें।
तो अब ध्यान लगाइए और जल्दी से हमारे टिप्पणी बॉक्स में अपने उत्तर लिख दीजिए।

(निवेदक: निरामिष सम्पादक मंडल)
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* शाकाहार पहेली 2012 के परिणाम

सोमवार, 2 जनवरी 2012

शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!! (उतरार्ध)

हिंसा की तुलना, माँसाहार बनाम शाकाहार
इस लेख के पूर्वार्ध "शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल" में आपने पढा- माँसाहार समर्थकों का यह कुतर्क,कि वनस्पति में भी जीवन होता है, उन्हें आहार बनाने पर हिंसा होती है। यह तर्क उनके दिलों में सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह तो क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है। फिर भी सच्चाई तो यह है कि पौधे मृत्यु पूर्व आतंक महसुस नहीं करते, न ही उनमें मरणांतक दारूण वेदना महसुस करने लायक, सम्वेदी तंत्रिका तंत्र होता है। ऐसे में विचारणीय प्रश्न, उस हत्या से भी कहीं अधिक हमारे करूण भावों के संरक्षण का  होता है। क्रूर निष्ठुर भावों से दूरी आवश्यक है। हमारा मानवीय विवेक, हमें अहिंसक या अल्पहिंसक आहार विकल्प का ही आग्रह करता है।
उसी परिपेक्ष्य में अब देखते है पशु एवं पौधों में तुलनात्मक भिन्नता……
पेड-पौधों से फल पक कर स्वतः ही अलग होकर गिर पडते है। वृक्षों की टहनियां पत्ते आदि कटने पर पुनः उग आते है। कईं पौधों की कलमें लगाई जा सकती है। एक जगह से पूरा वृक्ष ही उखाड़ कर पुनः रोपा जा सकता है। किन्तु पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई भी अंग भंग कर दिया जाय तो वे सदैव के लिए विकलांग, मरणासन्न या मर भी जाते हैं। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है और स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये प्रकृति या दूसरे जीवों पर आश्रित रहना पड़ता है। पेड-पौधो के किसी भी अंग को विलग किया जाय तो वह पुनः पनप जाता है। एक नया अंग विकसित हो जाता है। यहां तक कि पतझड में उजड कर ठूँठ बना वृक्ष फिर से हरा-भरा हो जाता है। उनके अंग नैसर्गिक/स्वाभाविक रूप से पुनर्विकास में सक्षम होते है। वनस्पति के विपरीत पशुओं में कोई ऐसा अंग नही है जो उसे पुनः समर्थ बना सके, जैसे आंख चली जाय तो पुनः नहीं आती वह देख नहीं सकता, कान नाक या मुंह चला जाय तो वह अपना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता। पर पेड की कोई शाखा टहनी अलग भी हो जाय पुनः विकसित हो जाती है। वृक्ष को इससे अंतर नहीं पड़ता और न उन्हें पीड़ा होती है। इसीलिए कहा गया है कि पशु–पक्षियों का जीवन अमूल्य है, वह इसी अर्थ में कि मनुष्य इन्हें  पौधों की भांति धरती से उत्पन्न नहीं कर सकता।

भोजन के लिए अनाज की प्रायः उपज ली जाती है , फसल काटकर अनाज तब प्राप्त किया जाता है, जब पौधा सूख जाता है। इस उपक्रम में वह अपना जीवन चक्र पूर्ण कर चुका होता है, और स्वयं निर्जीव हो जाता है। ऐसे में उसके साथ हिंसा या अत्याचार जैसे अन्याय का प्रश्न ही नहीं होता, इसलिए सूखे अनाज का आहार सर्वोत्कृष्ट आहार है।

कहते है बीज में नवजीवन पाने की क्षमता होती है, यदि इस कारण से बीज को एकेन्द्रीय जीव मान भी लिया जाय, तब भी वह सुषुप्त अवस्था में होता है। जब तक उस बीज को अनुकूल मिट्टी हवा पानी का संयोग न हो, वह अंकुरित ही नहीं होता। हम जानते है, प्रायः बीज सैकडों वर्ष तक सुरक्षित रह सकते है। ऐसे में शीघ्र सड़न-गलन को प्राप्त होने जैसे मुर्दा लक्षण वाले, अण्डे व मांस, जो अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति के गढ़ समान है। उर्वरशक्ति धारी, एक स्पर्शेन्द्रिय, नवजीवन सम्भाव्य बीज से उनकी कोई तुलना नहीं है।

यदि उत्कृष्ट आहार के बारे में सोचा जाय तो वे फल जो स्वयं पककर पेड़ पर से गिर जाते हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में पेड़ के जीवन को कोई खतरा नहीं है न ही किसी प्रकार की वेदना की सम्भावना बनती है। साथ ही फल व सब्जियां जिनके उत्पादन के लिए पेड़ पौधे लगाए जाते हें और उनके फल तोड़कर भोजन के काम में लिए जाते हें, इसमें भी कच्चे और अविकसित फलों की अपेक्षा, विकसित परिपक्व फलों के सेवन को उचित मानना चाहिए। इस प्रक्रिया में एक एक वृक्ष अनेकों, सैकड़ों, हजारों या लाखों प्राणियों का पोषण करता है। और काल क्रम से अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वयंमेव मृत्यु को प्राप्त होता है। पेड प्राकृतिक रूप से फल आदि में मधुर स्वादिष्ट गूदा इसीलिए पैदा करते है ताकि उसे खाकर कोई प्राणी, नवपौध रूपी बीज को अन्यत्र प्रसार प्रदान करे। विवेकवान को ऐसे बीज उपजाऊ धरती को सुरक्षित अर्पण करने ही चाहिए। यह उत्कृष्ट सदाचार है।

यदि करुणा का विस्तार करना है तो शस्य कहे जाने वाले वनस्पति में भी कन्द मूल के भोजन से बचा जा सकता है क्योंकि उनके लिये पौधे को जड़ सहित उखाड़ा जाता है। इस प्रक्रिया में पौधे का जीवन समाप्त होता है फिर भी इस श्रेणी के शाकाहार में कम से कम चर जीवों की घात तो नहीं होती। इस कारण यह मांसाहार की अपेक्षा श्रेयस्कर ही है। इसकी तुलना किसी भी तरह से मांसाहार से नहीं की जा सकती है, क्योंकि मांस में प्रतिपल अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है माँस में मात्र उस एक प्राणी की ही हिंसा नहीं है वरन् मांस पर आश्रित अनेकों जीवों की भी हिंसा व्याप्त होती है।

अतः हिंसा और अहिंसा के चिंतन को सूक्ष्म-स्थूल, संकल्प-विकल्प, सापराध-निरपराध, सापेक्ष-निरपेक्ष, सार्थक -निरर्थक के समग्र सम्यक् दृष्टिकोण से विवेचित किया जाना चाहिए। साथ ही उस हिंसा के परिणामों पर पूर्व में ही विचार किया जाना चाहिए।

निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।

सूक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, फिर भी द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही अहिंसक मनोवृति है। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही तो हमारे मानवीय जीवन मूल्य है। हिंसकभाव से भी विरत रहना अहिंसा पालन है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना, अहिंसक वृति की साधना है।

पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किंघली के यह शब्द बहुत कुछ कह जाते है, "यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिंसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है।"

सूचना:
निरामिष का करूणामय एक वर्ष पूर्ण हुआ। यह निरामिष ब्लॉग के द्वितीय वर्ष में प्रवेश का गौरवशाली अवसर है इसी प्रसंग पर अगली पोस्ट विशेषांक की तरह होगी।

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* सम्बंधित आलेख *
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* शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल
* हिंसा का अल्पीकरण करने का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है।
* विवेकी सम्वेदनाएं और संयम ही अहिंसा संस्कृति है
* शाकाहार : तर्कसंगत, न्यायसंगत